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नई शुरुआत सकारात्मक होनी चाहिए

सुप्रीम कोर्ट

विपक्ष को बीजू जनता दल के अध्यक्ष और लगातार 24 साल तक ओडिशा के मुख्यमंत्री रहे नवीन पटनायक से सीखना चाहिए। उन्होंने कितनी विनम्रता से जनादेश को स्वीकार किया। उन्हें अपदस्थ करने वाली भाजपा के मोहन चरण मांझी के शपथ समारोह में वे मंच पर पहुंचे, जहां भाजपा के शीर्ष नेताओं ने उनका स्वागत किया। विधानसभा में भी उन्होंने नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी संभाली और एक सीट पर उनको हराने वाले भाजपा विधायक से भी वे पूरे सद्भाव के साथ मिले।

अंग्रेजी की एक कहावत है, ‘वेल बिगन इज हाफ डन’ यानी अच्छी शुरुआत से आधा काम बन जाता है। तो 18वीं लोकसभा की शुरुआत होने वाली है और उम्मीद करनी चाहिए कि शुरुआत अच्छी होगी। अच्छी शुरुआत हुई तो आधा काम अपने आप बन जाएगा। इस लोकसभा के सकारात्मक और रचनात्मक आरंभ की आवश्यकता इस कारण भी है कि यह देश की 18वीं लोकसभा है। चुनाव परिणाम आने के बाद एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने इस बात का विशेष तौर पर उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि व्यक्ति के जीवन में 18वें वर्ष का बड़ा महत्व होता है। वह वयस्क होता है। अपने निर्णय स्वंय करने में सक्षम होता है। इसके साथ ही उसे विभिन्न प्रकार के संवैधानिक व कानूनी अधिकार प्राप्त हो जाते हैं। उसी तरह भारतीय लोकतंत्र और स्वतंत्र भारत में अपनाई गई संसदीय शासन प्रणाली के लिए 18वीं लोकसभा का भी विशेष महत्व है। यह एक प्रतीकात्मक तुलना है लेकिन सैद्धांतिक व व्यावहारिक दोनों तरह से कह सकते हैं कि भारत का लोकतंत्र समय के साथ परिपक्व हुआ है और इस बार देश के मतदाताओं ने एक विशिष्ठ जनादेश दिया है, जिसमें सत्तापक्ष और प्रतिपक्ष दोनों को अपनी भूमिका का ज्यादा बेहतर तरीके से और ज्यादा सकारात्मक तरीके से निर्वहन करना है।

सोमवार यानी 24 जून को जब 18वीं लोकसभा का पहला सत्र शुरू होगा तो सिर्फ देश ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की नजरें इस पर होंगी। पहले दो दिन तो शपथ ग्रहण की औपचारिकता होनी है। लेकिन उसके बाद कई अहम घटनाक्रम हैं। पहला, स्पीकर का चुनाव। दूसरा, राष्ट्रपति का अभिभाषण। तीसरा, राष्ट्रपति के अभिभाषण पर सरकार की ओर से पेश धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान विपक्ष का आचरण और प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी का जवाब। एक और घटनाक्रम अहम है और वह है नेता प्रतिपक्ष का चुनाव। ध्यान रहे 16वीं और 17वीं लोकसभा चुनाव में किसी भी विपक्षी पार्टी को लोकसभा में 10 प्रतिशत सीटें नहीं मिल पाई थीं, जिसकी वजह से किसी दल के मुख्य विपक्षी दल का दर्जा नहीं मिल पाया था। तभी पिछली दो लोकसभाओं में आधिकारिक रूप से कोई नेता प्रतिपक्ष नहीं था। तभी कई अहम पदों पर नियुक्ति के लिए बनी चयन समिति के प्रारूप में बदलाव किया गया और मुख्य विपक्षी पार्टी के नेता की जगह सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता को शामिल करने का प्रावधान किया गया। इस बार कांग्रेस आधिकारिक रूप से मुख्य विपक्षी पार्टी है तो उसे नेता प्रतिपक्ष चुनना है। जब कांग्रेस मुख्य विपक्षी पार्टी नहीं बन पाई थी तो 16वीं लोकसभा में मल्लिकार्जुन खड़गे और 17वीं लोकसभा में अधीर रंजन चौधरी नेता चुने गए। इस बार कांग्रेस संसदीय दल राहुल गांधी को नेता प्रतिपक्ष बनाने की मांग कर रहा है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस बार मतदाताओं ने भारतीय जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता सौंपने की बजाय उसके नेतृत्व वाले एनडीए को सरकार चलाने का जनादेश दिया है। साथ ही एक मजबूत विपक्ष भी चुना है ताकि सरकार और विधायी कामकाज चेक एंड बैलेंस के सिद्धांत के तहत काम कर सकें। परंतु विपक्षी पार्टियों को जनादेश की गलत व्याख्या से बचना चाहिए। विपक्ष के नेता कह रहे हैं कि भाजपा को सरकार बनाने का और श्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनने का जनादेश नहीं मिला है। यह तथ्यात्मक रूप से भी गलत है और राजनीतिक रूप से भी। एनडीए ने श्री नरेंद्र मोदी को तीसरी बार प्रधानमंत्री बनाने के लिए वोट मांगा था और देश के मतदाताओं ने उसे 293 सीटें दीं, जो बहुमत के जादुई आंकड़े से 21 ज्यादा है। इसलिए जनादेश तो बहुत स्पष्ट है। हां, इतना जरूर है कि मतदाताओं ने इस बार मजबूत विपक्ष चुना है। परंतु मजबूत विपक्ष का काम यह नहीं होना चाहिए कि वह सरकार को कामकाज नहीं करने दे। मतदाताओं ने विपक्ष को मनमानी करने, विधायी कामकाज में बाधा डालने, संसद में गतिरोध पैदा करने और सरकार के निर्णयों को रोकने के लिए जनादेश नहीं दिया है। लगातार 10 बर्षों तक मुख्य विपक्षी नहीं बन पाई कांग्रेस को अगर इस बार मुख्य विपक्षी पार्टी बनने का अवसर मिला है तो उसे समझना चाहिए कि उसमें क्या कमियां थीं, क्यों लोगों ने उसे खारिज किया था और अब क्यों मौका दिया है। अगर वह इस मौके का इस्तेमाल सकारात्मक तरीके से नहीं करेगी तो इसका अर्थ होगा कि वह उसे गंवा रही है।

नई लोकसभा का पहला सत्र आरंभ होने से पहले विपक्ष जिस तरह के मुद्दे उठा रहा है और जिस तरह मीडिया में विपक्ष के नेता बयान दे रहे हैं उससे आसार अच्छे नहीं दिख रहे हैं। विपक्ष के नेताओं के हवाले से खबर आ रही है कि संसद का सत्र हंगामे वाला होगा। असल में विपक्ष चुनाव परिणामों के दिन से इस तरह का माहौल बनाने में लगा है। बुरी तरह से चुनाव हारने और बहुमत से बहुत दूर रह जाने के बावजूद कांग्रेस व इंडी गठबंधन की पार्टियां चुनाव जीत जाने का दावा कर रही हैं और सबसे हैरानी की बात है कि स्पष्ट बहुमत हासिल होने के बावजूद भाजपा और एनडीए के नेता बैकफुट पर दिख रहे हैं! पिछले दो चुनावों के मुकाबले मत प्रतिशत और सीटों की संख्या में बढ़ोतरी से उत्साहित कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियों ने स्पीकर के चुनाव को विवादित बनाने का प्रयास किया। यह सकारात्मक राजनीति नहीं है कि विपक्षी पार्टियां सत्तारूढ़ गठबंधन की पार्टियों को उकसाएं कि वह स्पीकर का पद मांगे नहीं तो अपना उम्मीदवार उतारे। यह राजनीति में मोलभाव की स्थापित कांग्रेसी संस्कृति को बढ़ावा देने वाली बात है।

स्पीकर का पद न तो टीडीपी मांग रही है और न जनता दल यू की ओर से ऐसी कोई मांग है। लेकिन विपक्षी पार्टियों ने उनको भड़काने और उकसाने का काम किया। उसमें कामयाबी नहीं मिली तो डिप्टी स्पीकर पद के लिए दबाव बनाने का प्रयास शुरू हुआ। इसके साथ ही स्पीकर पर आम सहमति की बजाय चुनाव कराने का संकेत दिया जाने लगा। दबाव की राजनीति, मोलभाव की राजनीति, सदन में बढ़ी हुई ताकत का प्रदर्शन करके विधायी कामकाज में बाधा डालने की राजनीति और एक व्यक्ति की छवि चमकाने के लिए आम सहमति की स्थापित संसदीय परंपराओं के प्रति असम्मान दिखाना अच्छी बात नहीं है। कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियों को समझना चाहिए कि देश के मतदाता इसे पसंद नहीं करते हैं।

इसका यह अर्थ नहीं है कि विपक्ष को संसद में आवश्यक मुद्दे नहीं उठाने चाहिए या विपक्षी पार्टियां इस बार पहले सत्र में जो मुद्दे उठाने की बात कर रही है वो मुद्दे गैरजरूरी हैं। कई मुद्दों पर विपक्ष के सरोकारों से देश के आम लोगों की सहमति है। मेडिकल में दाखिले के लिए होने वाली नीट की परीक्षा हो या महाविद्यालयों में नियुक्ति के लिए होने वाली पात्रता परीक्षा नेट के प्रश्नपत्र लीक होने का मामला बहुत गंभीर है। केंद्र सरकार खुद ही इसे गंभीरता से ले रही है और केंद्रीय शिक्षा मंत्री ने इसकी जांच की बात कही है। ऊपर से यह मामला पहले से सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में है और वहां नियमित सुनवाई हो रही है। संसद में भी यह मुद्दा उठना चाहिए लेकिन हंगामा नहीं होना चाहिए। क्योंकि हंगामे से या आरोप लगाने से किसी समस्या का समाधान नहीं होता है। समस्या तब सुलझेगी, जब उस पर गंभीर चर्चा होगी। विपक्ष को चर्चा में शामिल होना चाहिए और सकारात्मक सुझाव प्रस्तुत करने चाहिए। ध्यान रहे प्रतियोगिता और प्रवेश परीक्षाओं में पेपर लीक और कदाचार रोकने के लिए एक केंद्रीय कानून संसद ने पास किया था, जिसे लागू कर दिया गया है। सरकार लाखों बच्चों के भविष्य को लेकर स्वंय गंभीर है। विपक्ष को अगर उसमें कोई कमी दिख रही है तो उस पर हंगामा करना समाधान नहीं है। अगर उसके पास सकारात्मक सुझाव है तो उसे सामने रखना चाहिए।

इसी तरह विपक्षी पार्टियां तीनों आपराधिक कानूनों को लेकर नई लोकसभा के पहले सत्र में हंगामा करने की तैयारी में हैं। अगर ऐसा होता है तो इसका यही अर्थ होगा कि लोकसभा में पहले से ज्यादा सीट मिलने से विपक्ष में अहंकार आ गया है। ध्यान रहे ये कानून पिछले साल दिसंबर में यानी संसद के शीतकालीन सत्र में पास किए गए थे। उस समय विपक्ष ने जरूर इसका विरोध किया लेकिन बाद में इसे मुद्दा नहीं बनाया। लोकसभा चुनाव प्रचार में भी विपक्ष ने यह मुद्दा नहीं उठाया। लेकिन अब एक जुलाई से जब इन कानूनों को लागू करने का समय आया तो विपक्ष लोकसभा में अपनी बढ़ी हुई सीटों के अहंकार में इसके खिलाफ हंगामे की तैयारी कर रहा है। इसी तरह कांग्रेस नेता श्री राहुल गांधी ने शेयर बाजार की उथलपुथल में घोटाले का आरोप लगाते हुए संयुक्त संसदीय समिति यानी जेपीसी से जांच कराने की बात कही थी। विपक्ष यह मुद्दा भी संसद में उठाएगा। सरकार इसका जवाब दे चुकी है और इसमें किसी तरह की गड़बड़ी कोई खबर सामने नहीं आई है। ऐसे में अगर विपक्ष इसका मुद्दा बनाता है तो उसका भी अर्थ यही होगा कि संसद की पवित्रता के प्रति उसके मन में सम्मान नहीं है और वह गंभीर चर्चा करने या सकारात्मक भूमिका निभाने की बजाय सदन को बाधित करने को ही अपना परम पुनीत कर्तव्य मानती है।

विपक्ष को बीजू जनता दल के अध्यक्ष और लगातार 24 साल तक ओडिशा के मुख्यमंत्री रहे नवीन पटनायक से सीखना चाहिए। उन्होंने कितनी विनम्रता से जनादेश को स्वीकार किया। उन्हें अपदस्थ करने वाली भाजपा के मोहन चरण मांझी के शपथ समारोह में वे मंच पर पहुंचे, जहां भाजपा के शीर्ष नेताओं ने उनका स्वागत किया। विधानसभा में भी उन्होंने नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी संभाली और एक सीट पर उनको हराने वाले भाजपा विधायक से भी वे पूरे सद्भाव के साथ मिले। यह रचनात्मक विपक्ष की पहचान होती है। संसद में भी विपक्षी पार्टियों को उनसे सबक लेते हुए सकारात्मक और रचनात्मक भूमिका निभाने का प्रयास करना चाहिए।

(लेखक सिक्किम के मुख्यमंत्री प्रेम सिंह तमांग (गोले) के प्रतिनिधि हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

By Naya India

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