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खुशफहमी न पाले, कांग्रेस अब अपने को ठिक करें!

इस मीडिया का जो वर्ग चरित्र है वह जनविरोधी है। और राहुल की पूरी राजनीति जन समर्थक। आम जनता के हित में। इस मीडिया की खुशामद करके आप इससे काम नहीं ले सकते। इसे तो डरा कर जैसा मोदी जी करते हैं आप सही रख सकते हैं।… कांग्रेसी नेताओं को सिर्फ चाहिए ही चाहिए। देना उन्होंने नहीं सीखा है। इतना पैसा है कांग्रेसी नेताओं के पास कि दस साल क्या अभी जाने कितने साल वे पार्टी का पूरा खर्चा चला सकते हैं।… राहुल के पास अब टाइम ही टाइम है। क्या करना है? मगर करने को कुछ सबसे जरूरी काम हैं। उनमें संगठन मजबूत करना सबसे टॉप प्राथमिकता पर होना चाहिए।

अगर किसी एक चीज का नाम लेना हो जिसने नरेंद्र मोदी को जिताया है तो वह है गोदी मीडिया। गोदी मीडिया ने नरेंद्र मोदी को हारी हुई बाजी जीता दी। विडंबना यह रही कि कांग्रेस भी इसी गोदी मीडिया के भरोसे रही। कांग्रेस के नेता सोचते रहे कि इस गोदी मीडिया को विज्ञापन देकर इसकी खुशामद करके वह इससे अपने पक्ष में कुछ लिखवा लेंगे, कहलवा लेंगे। मगर कांग्रेस का पक्ष रखना तो दूर रहा गोदी मीडिया ने कांग्रेस को और उसके साथ इंडिया गठबंधन को उससे भी ज्यादा आरोपित किया जितना मोदी ने किया था। मोदी की एक बाइट दिखाकर मीडिया उससे दस गुना ज्यादा कांग्रेस से सवाल करती थी। और मजेदार बात यह कि कांग्रेस के नेता खुश होकर ट्वीट करते थे कि गोदी मीडिया ने हमारा यह विज्ञापन छाप दिए।

वाह! क्या बात है। उन्हें पैसा दिया और फिर अहसान मान रहे हैं कि हमारे विज्ञापन छाप दिए। चला दिए। अरे कोई खबर छापते तो बात भी थी। मतलब कांग्रेस के नेता पदाधिकारी इतने गोदी मीडिया के दबाव में थे कि पैसा देकर, गाली खाकर विज्ञापन छपवाकर धन्य धन्य हो रहे थे। मतलब वह जैसे गरीब होता है, दबा हुआ आदमी जो गाली खाकर दो चार हाथ खाकर भी मालिक, मालिक करता है कि बड़ी कृपा महाराज कि आपने जान बख्शी। नहीं तो वह भी आपकी है।

कांग्रेस गोदी मीडिया के सामने पूरी तरह नतमस्तक हो गई थी। इसी का परिणाम कि रजत शर्मा आन एयर कांग्रेस की महिला प्रवक्ता रागिनी नायक को मां बहन की गालियां दे रहे थे। गोदी मीडिया अब कांग्रेस को कुछ मानने को तैयार नहीं। और इसकी दोषी खुद कांग्रेस है। कांग्रेस के नेताओं ने ही गोदी मीडिया को आगे बढ़ाया। पैसा दिया उनके चैनल खुलवाए। देश भर में जगह जगह कम दामों में जमीनें दीं। क्या मदद नहीं की।

मोदी जी यह सब नहीं करते हैं। वह डंडे से उन्हें चलाते हैं। अभी इंटरव्यू में जो कहते हैं उन्होंने सौ दिए एंकर पत्रकारों को वे खूब लताड़ते दिखे। खूब ज्ञान उपदेश देते हुए। यहां तक कि कौन राहुल कहते हुए भी! उसी राहुल ने उन्हें अकेले दम चने चबवा दिए। अवसरवादी, सुविधाजीवी कांग्रेसियों के बावजूद। सोचिए अगर राहुल के पास कांग्रेसियों की वैसी काम करने वाली टीम होती जैसी मोदी जी की अपनी प्रतिबद्ध टीम है तो क्या होता?

इस मीडिया का जो वर्ग चरित्र है वह जनविरोधी है। और राहुल की पूरी राजनीति जन समर्थक। आम जनता के हित में। इस मीडिया की खुशामद करके आप इससे काम नहीं ले सकते। इसे तो डरा कर जैसा मोदी जी करते हैं आप सही रख सकते हैं। इस मीडिया का सत्ता से भी कोई संबंध नहीं है। 2011 से यह अन्ना हजारे की जय जयकार में लग गई थी। जबकि सत्ता दिल्ली में भी और केन्द्र में भी कांग्रेस के पास थी। उस समय कांग्रेस के नेता चाहते तो मीडिया को निष्पक्ष रख सकते थे।

मगर कांग्रेस के ही तमाम नेता अन्ना की हवा में बह रहे थे। जिस सोनिया ने उन्हें सत्ता में लाया था उससे उनकी तमाम शिकायतें थीं। सबको जो मिला उससे ज्यादा चाहिए था। राहुल ने कोई पद नहीं लिया था। मगर उनके खिलाफ मुहिम शुरू कर दी गई थी। प्रणव मुखर्जी से बड़ा लाभार्थी कौन था? मगर उनसे बड़ा दगाबाज भी कोई नहीं निकला। राष्ट्रपति पद छोड़ते ही संघ मुख्यालय नागपुर हो आए। और अब तो उनकी बेटी कांग्रेस पर आरोप लगा रही है कि उसने मेरे पिता को कुछ नहीं दिया।

क्या प्रणव मुखर्जी का योगदान हजारवां हिस्सा भी रहा जितना भाजपा को आगे बढ़ाने में लालकृष्ण आडवाणी का था। मगर आडवानी ने कभी कांग्रेस के पक्ष में और उनके बेटी ने कभी पिता के साथ अन्याय के बारे में एक शब्द भी बोला?

कांग्रेसी नेताओं को सिर्फ चाहिए ही चाहिए। देना उन्होंने नहीं सीखा है। इतना पैसा है कांग्रेसी नेताओं के पास कि दस साल क्या अभी जाने कितने साल वे पार्टी का पूरा खर्चा चला सकते हैं। मगर इस चुनाव में तो उसके एकाउंट सीज हुए और उसका यह कहना ठीक है कि उसे पैसों की परेशानी हुई। मगर 2014 के चुनाव में क्या था? वहां भी कांग्रेस ऐसे ही पैसों को लिए रो रही थी।

साजन गरीब और सजनी अमीर! पार्टी के पास पैसा नहीं है और कांग्रेसियों के पास अभी भी इतना पैसा है कि मोदी जी की भाजपा के पास नहीं होगा। बहुत कहते हैं इतने आफिस बना लिए। दिल्ली में सेवन स्टार मुख्यालय।

सवाल है कांग्रेस को किसने रोका था? जहां भाजपा को आफिस के लिए जगह मिली है वहीं राउज एवन्यू में आईटीओ के सामने कांग्रेस को। कांग्रेस ने अपनी अध्यक्ष सोनिया गांधी से वहां मुख्यालय का शिलान्यास तब ही करवा लिया था जब उनकी केन्द्र और दिल्ली दोनों जगह सरकार थी। 15 साल से ज्यादा हो गए। अभी तक काम पूरा नहीं हुआ। और भाजपा ने 2014 में केन्द्र में सरकार बनने के तीन साल के अंदर जिसे कांग्रेस सात सितारा मुख्यालय कहती है बनवा लिया। और देश भर में पचासों।

और सुन लीजिए कांग्रेस के जो प्रदेशों में, जिलों में, ब्लाकों में अपने आफिस थे वे कांग्रेसियों ने बेच दिए या कब्जा कर लिया या अपने लोगों का हो जाने दिया। कांग्रेस ने इसकी जांच पड़ताल करने के लिए एक टीम बनाई थी। मगर कांग्रेसियों ने इतना प्रपंच फैला रखा है कि टीम थक हार कर बैठ गई।

कांग्रेस की समस्या अपनी अंदरूनी बहुत हैं। मोदी जो है सो हैं। वह तो अपनी राजनीति करेंगे। मगर कांग्रेस पिछले कई दशकों से कमजोर होती चली गई। वह तो समझ लीजिए उसकी समावेशी और आम आदमी समर्थक नीतियां इतनी मजबूत हैं और नेहरू गांधी परिवार का नेतृत्व बना हुआ है कि इतना हारते हारते भी वह जीती हुई मानी जा रही है।

इस चुनाव की एक बड़ी व्याख्या यह है कि राहुल ने मोदी के अश्वमेघ घोड़े की नकेल थाम ली। बात सही भी है। इस चुनाव में सबसे बड़ा अंतर राहुल ने ही पैदा किया। हर जगह यह चर्चा है। भाजपा समर्थक भी कह रहे हैं कि मोदी को झटका लगाना जरूरी था। मगर वह उनकी बात है। कांग्रेस को इससे ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है। कांग्रेसी कुछ जरूरत से ज्यादा खुश हो रहे हैं।

यह वैसा ही है जैसा सत्तर के दशक में हम टेस्ट ड्रा करवा कर हो जाते थे। उस दौर में कपिल देव की टीम के 1983 में वर्ल्ड कप जीतने से पहले तक हम टेस्ट क्रिकेट में ड्रा को जीत मानते थे। हारते ही इतना ज्यादा थे। ऐसे ही 2014 से हारते हारते कांग्रेस इस कम मार्जन की हार की जीत मान रही है।

मगर राहुल के लिए सफर लंबा है। मोदी जी का सफर अब जहां से खत्म होने वाला है राहुल का वहां से शुरू होने वाला।

राहुल के पास अब टाइम ही टाइम है। क्या करना है? मगर करने को कुछ सबसे जरूरी काम हैं। उनमें संगठन मजबूत करना सबसे टाप प्राथमिकता पर होना चाहिए। बहुत कमजोर है। कहीं कहीं तो है ही नहीं। यूपी में सपा के संगठन की वजह से जीते हैं। सपा ने कांग्रेस के उम्मीदवारो के लिए भी उसी तरह काम किया जैसे अपने लोगों के लिए। संगठन के साथ गुटबाजी खत्म करना। नंबर दो काम। हरियाणा में अगर अभी होने वाला विधानसभा चुनाव हारे तो तो केवल एक कारण होगा। राजस्थान वाला। गुटबाजी ने ही राजस्थान हरवाया। और इस बार नियंत्रण रहा तो 11 सीटें आईं। हरियाणा में भी 5 आईं। दो तीन और आ सकती थीं।

राहुल को गुटबाजी पर बहुत सख्त होना पड़ेगा। नो गुट का बोर्ड अपने घर के बाहर लगाना होगा। पांच साल बहुत होते हैं। कांग्रेस टूटते टूटते भी इतना बची है कि अगर थोड़ा सा भी जोड़ना शुरू कर दिया जाए तो वह फिर खड़ी हो जाएगी।

By शकील अख़्तर

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स के पूर्व राजनीतिक संपादक और ब्यूरो चीफ। कोई 45 वर्षों का पत्रकारिता अनुभव। सन् 1990 से 2000 के कश्मीर के मुश्किल भरे दस वर्षों में कश्मीर के रहते हुए घाटी को कवर किया।

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