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यदि आम (आदमी) कच्चा है तो चटनी चाटों, अगर पका है तो उसे पूरी तरह चूसो..?

भोपाल। अब आज के मौजूदा राजनीतिक माहौल को देखकर देश का हर जागरूक नगारिक यह सोचों को मजबूर है कि आजादी के बाद के अब तक के इतने वर्षों में देश का आम नागरिक तो हर तरीके से परिपक्व हो गया, कितनी हमारे इन भाग्यविधाताओं की सोच-समझ में कोई अंतर नही आया है। ये आज भी भारतीय मतदाता को 1951 का ही मतदाता मानकर वही पचहत्तर साल पूराना व्यवहार उसके साथ उसी पूराने लोभ-लालच की टोकरी लेकर प्रस्तुत हो रहे है, जबकि वास्तविकता यह है कि आज का आम भारतीय नागरिक इन अनपढ़-असंस्कारित राजनेताओं से कई गुना अपने राष्ट्रªीय धर्म का निर्वहन कर रहा है, जिसे ये सिखाने और दिखाने का दुष्प्रयास कर रहे है।

आज से लगभग पचहत्तर साल पहले छब्बीस जनवरी 1950 को हमारे देश को आजादी के बाद पहली बार ‘गणतंत्र’ देश घोषित किया गया था और देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने राष्ट्रीय ध्वज फहराया था। उसके बाद से अब तक स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त) और गणतंत्र दिवस (26 जनवरी) को राष्ट्रीय दिवस के रूप में परम्परा चली आ रही है, यह परम्परा पूर्ण देशभक्ति तो ठीक है, किंतु क्या हमने अपनी नई पीढ़ी जो कल के भारत का ‘भविष्य’ है, उसे प्रशिक्षित करने का प्रयास किया?

क्या उनके दिल-दिमाग में राष्ट्रभक्ति का चिराग प्रज्वलित किया? क्या उन्हें हमारी आजादी के इतिहास व स्वतंत्रता संग्राम व उनके सैनानियों के बारे में बताया? शायद नहीं…. क्योंकि हमें तो हमारी नई पीढ़ी से ज्यादा हमारे मौजूदा परिवार के भरण-पोषण की चिंता जो है, हमारे पास देश के बारे में इनसे बात करने का समय ही कहां है? मित्रों…. कभी हमने इस मसले पर गंभीर चिंतन कर यह स्वीकार करने का साहस किया कि हमने इस दिशा में कितनी बड़ी गलती की है? क्या हम इसके लिए अपने आपको दोषी नहीं मानते? क्या उच्च शिक्षा व नौकरी ही इस मानव जीवन का मुख्य ध्येय है? इसके अलावा कुछ भी नहीं, यदि हमारी यही धारणा है तो दो मिनट आत्मचिंतन कर आप खुद ही तय करें कि यह हमने कितना गंभीर अपराध किया है?

….और मैं तो यह भी मानता हूं कि आज राजनीतिक, समाज और परिवारों में जितने दोष समाहित हो रहे है, उनके लिए हम ही दोषी है, आज के स्वार्थी, मतलबी, कुर्सी प्रेमी नेता कौन है, वे हमारे ही तो बेटे-बेटी है, जिन्हें हमने अच्छे व राष्ट्रभक्ति वाले संस्कार दिए नहीं इसलिए वे इस तरह अपने आपको प्रकट कर रहे है, यदि उन्हें उनके बचपन से ही राष्ट्रभक्ति व सामजसेवा की शिक्षा मिलती तो क्या वे आज यह गलत राह पकड़ते? आज की क्या स्थिति है, हर कहीं आपाधापी का माहौल है, चाहे वह राजनीतिक क्षेत्र हो या सामाजिक, और जहां तक धार्मिक का सवाल है, वह तो लूट का सबसे बड़ा माध्यम बन गया है, जहां बेरोजगार का भाषाय वस्त्र धारण कर महान विद्वान पंडित होने का दिखावा करते नजर आते है। धार्मिक भावनाएं उभार कर लूट करना ही आज के धर्म का सबसे अहम् काम रह गया है।

इसलिए यदि समग्र रूप से देखा जाए तो हमारे मानव जीवन के हर क्षेत्र में इन दिनों लूट-लूट और सिर्फ लूट का ही बोल बाला है और हर कहीं धन बटौरने की प्रक्रिया जारी है, और बैचारा मानव असहाय बना, जानबूझकर इनके हाथों लूटने को मजबूर है। ….और यह अकेले इस राजनीतिक क्षेत्र में नही बल्कि हर क्षेत्र में विद्यमान है। इसलिए मैंने आज के राजनेताओं की मनोभावना वाला ‘शीर्षक’ दिया है, जो आम आदमी को कच्चा (गरीब) होने पर, उसकी चटनी बनाकर चाटने को और उसके पकने अर्थात् धनवान होने पर उसे चूसने को आतूर रहते है।

बलिहारी है…. आज के माहौल और उसके अभिनेताओं की….।

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