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मोदी की ताकत की धारणाएं सच से उलट

मोदी की मरीचिकाएं देर-सबेर टूटेंगी, यह निर्विवाद है। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस प्रक्रिया को उत्प्रेरित करने वाली और गति देने वाली विश्वसनीय राजनीतिक शक्तियों का सिरे से अभाव है। विपक्ष के नाम पर जो दल मौजूद हैं, वे चूंकि सत्ता के समीकरण बनाने से आगे सोचने में अक्षम हैं, इसलिए ना तो जनता के बीच जाकर फर्जी कहानियों की हकीकत बता पाए हैं और ना ही हिंदू-मुस्लिम की बढ़ी को पाटने की पहल कर पाए हैँ।

पिछले लगभग दस साल से यह कथानक देश के अंदर प्रचलित है कि नरेंद्र मोदी के शासनकाल में भारत की इज्जत बढ़ी है और मोदी ने अपनी हैसियत एक प्रभावशाली विश्व नेता की बना रखी है। ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो यह कहते सुने जाते हैं कि बाकी मोदी की जो भी नाकामियां हों, उनके कार्यकाल में देश ने वैसी प्रतिष्ठा हासिल की है, जैसा पहले कभी नहीं था। आप अगर किसी ‘भक्त’ व्यक्ति से बात कर रहे हों, तो वह यह भी कहता सुना जाएगा कि पहले भारत को पूछता कौन था, जबकि अब बिना भारत से पूछे कोई देश कोई बड़ा कदम नहीं उठाता!

यह धारणा संभवतः इस भ्रम से भी अधिक मजबूत है कि मोदी के कार्यकाल में भारत का आर्थिक उदय हो रहा है। यह मोदी सरकार की उपलब्धि है कि आज भारत को दुनिया का भविष्य समझा जाता है! हम विकसित देश बनने के रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं!

अगर हम देश के अंदर मोदी की राजनीतिक ताकत को समझने की कोशिश करें, तो उसमें इन दोनों धारणाओं का एक बड़ा योगदान नजर आता है। बेशक मोदी की सबसे बड़ी ताकत सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने का उनका कौशल है। मर्यादा, भाषा, एवं पद की गरिमा और व्यक्तिगत शालीनता को ताक पर रखते हुए उन्होंने जिस हद तक जाकर इस कौशल का प्रदर्शन किया है, वह भारत के राजनीतिक इतिहास में बेमिसाल है। इस कौशल के जरिए राजनीतिक बहुमत जुटाने की अपनी क्षमता उन्होंने गुजरात से लेकर पूरे देश के स्तर तक सिद्ध की है। इसीलिए क्रमिक रूप से देश का शासक वर्ग उन पर अधिक से अधिक दांव लगाता गया है। आज उसने लगभग अपना पूरा दांव उन पर लगा रखा है।

बहरहाल, मोदी की आज की ताकत के संदर्भ में उपरोक्त दोनों प्रचलित धारणाएं इसलिए उल्लेखनीय हैं, क्योंकि ये हकीकत के बिल्कुल उलट हैं। विशेषज्ञों के लिए यह लंबे समय तक अध्ययन का एक महत्त्वपूर्ण विषय रहेगा कि आखिर हकीकत के विपरीत आम जन के एक बहुत बड़े हिस्से में ऐसी कृत्रिम धारणाएं निर्मित करना आखिर कैसे संभव हो जाता है?

बहरहाल, इस चर्चा के क्रम में सबसे पहली जरूरत इस पर ध्यान देना है कि आखिर हकीकत क्या है? अमेरिका की जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर इरफ़ान नूरुद्दीन, नीदरलैंड्स की ग्रोनिनजेन यूनिवर्सिटी की डॉ. ऋतंभरा मनुविये, और ब्रिटेन स्थित लंदन यूनिवर्सिटी के डॉ. सिन्हा सुबीर ने मोदी की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा और इस दौर में भारत की बढ़ी इज्जत की कहानी का यथार्थ जानने के लिए एक अध्ययन किया। इस अध्ययन की रिपोर्ट इसी हफ्ते जारी की गई है। इसे ‘मोदी मरीचिका?’ नाम से प्रकाशित किया गया है। (The Modi Mirage? (shorthandstories.com))

इस रिपोर्ट की शुरुआत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 2023 में स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से संबोधन में किए गए एक दावे का हवाला दिया गया है। मोदी ने कहा था- यह पिछले 9-10 वर्षों का हमारा अनुभव है कि दुनिया भर में भारत के प्रति एक नया भरोसा, नई उम्मीद, और एक नया आकर्षण पैदा हुआ है।

अध्ययनकर्ताओं ने मोदी के इसी दावे को संदर्भ बिंदु बनाकर इसकी वास्तविकता परखने के लिए अपना अध्ययन किया। रिपोर्ट में कहा गया है- ‘हमारे अनुसंधान में प्रचलित कहानी की कोई कोणों से जांच की गई। हालिया जनमत सर्वेक्षणों और पिउ, कारनेगी, ग्लोबस्कैन और यूगोव जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के अध्ययनों का सार अध्ययन रिपोर्ट में प्रस्तुत किया गया है।’

इसके पहले कि हम इस अध्ययन के नतीजों का जिक्र करें, यह इस बात पर ध्यान दे लेना उचित होगा कि आम तौर पर जब वैश्विक छवि की बात की जाती है, तो उसका अर्थ पश्चिमी देशों में किसी नेता या देश की छवि की होता है। यह सीमा इस अध्ययन रिपोर्ट के साथ भी है। जैसाकि आम तौर पर भारत में चर्चा होती है, वही नजरिया अपनाते हुए इसमें लगभग उन्हीं सारे आंकड़ों का ही इस्तेमाल किया गया है, जो पश्चिमी देशों के जनमत से संबंधित हैं। मोटे तौर अमेरिका और यूरोप की राय को दुनिया की राय क्यों समझा जाता है, यह इस लेख का विषय नहीं है। इसलिए हम इसमें नहीं जाते हैं। फिलहाल, मोटे तौर पर धारणाएं जिस तरह बनती हैं, उस सीमा के अंदर रहते हुए हम इस अध्ययन के निष्कर्षों की तरफ लौटते हैं।

तो निष्कर्ष हैः

  • भारत के लिए अनुकूल धारणाएं उससे काफी कम हैं, जितना नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पहले थीं।
  • मार्च 2024 में ब्रिटेन और अमेरिका में यूगोव के सर्वे से सामने आया कि उन दोनों देशों में ना तो मोदी को अधिक जाना जाता है, ना ही वे वहां लोकप्रिय हैं।
  • रिपोर्ट में ब्रिटेन में भारतीय मूल के बरतानवी नागरिकों के बीच हुए एक सर्वे का उल्लेख है। इसके मुताबिक 52 प्रतिशत ब्रिटिश भारतीय मोदी के प्रति प्रतिकूल राय रखते हैं, जबकि अनुकूल राय रखने वाले ऐसे लोगों की संख्या 35 प्रतिशत ही है।
  • सर्वे में शामिल 54 फीसदी लोगों ने कहा कि भारत गलत दिशा में जा रहा है।
  • 76 प्रतिशत लोगों ने कहा कि धार्मिक तनाव बेहद अहम मुद्दा है।
  • 71 फीसदी व्यक्तियों की राय में लोकतांत्रिक अधिकारों पर प्रतिबंध बहुत महत्त्वपूर्ण मुद्दा है।
  • 65 प्रतिशत लोगों ने राय जताई कि मोदी के काल में भारत में जो धार्मिक तनाव फैला है, उसकी आंच ब्रिटेन तक पहुंच गई है।

रिपोर्ट में वी-डेम, फ्रीडम हाउस, रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स जैसी संस्थाओं की भारत में लोकतंत्र, आम स्वतंत्रताओं, और प्रेस फ्रीडम इंडेक्स से संबंधित निष्कर्षों का उल्लेख है। इन संस्थाओं की रिपोर्टों के हवाले से इन क्षेत्रों से संबंधित इंडेक्स पर भारत की गिरावट का विवरण दिया गया है। इसके अलावा पश्चिमी मीडिया के भारत संबंधी कवरेज की प्रमुख सुर्खियों का उल्लेख किया गया है। इनके हवाले से पिछले दस साल में भारत में क्रोनी कैपिटलिज्म के प्रसार, सिविल सोसायटी संगठनों पर लगाम, अल्पसंख्यकों पर हिंसा, कठोर कानूनों के तहत बिना मुकदमा चलाए जेल में रखने की बढ़ी घटनाओं आदि से संबंधित आंकड़े इसमें दिए गए हैँ।

अध्ययनकर्ताओं ने यह सवाल उठाया है कि ऐसे हालात के बावजूद भारत में यह धारणा बड़े पैमाने पर क्यों प्रचलित है कि मोदी के कार्यकाल में भारत की इज्जत में नाटकीय बढ़ोतरी हुई है? यह मरीचिका कैसे बनी? फिर कहा गया है- ‘इसका उत्तर प्रेस सेंसरशिप और जोर-जबरदस्ती में ढूंढा जा सकता है। उसके साथ ही सोशल मीडिया पर जोरदार दुष्प्रचार किया गया है।’

जैसे वैश्विक स्तर पर भारत की हैसियत बढ़ने की एक मरीचिका खड़ी की गई है, वैसी ही मरीचिका भारत के आर्थिक उदय की भी है। यहां असल कहानी भारत में मोनोपॉली उद्योग घरानों और अरबपतियों के उदय की है। इसे पूरे भारत के उदय की कहानी बताकर एक भ्रामक धारणा बनाई गई है। अरबपति केंद्रित अर्थव्यवस्था की कहानी का एक विस्तृत विवरण हाल में लंदन स्थित अर्थशास्त्री माइकल रॉबर्ट्स ने लिखा। उसमें उन्होंने अरबपतियों के उदय के साथ-साथ भारत में लोकतंत्र के संकुचन का जिक्र भी उन्होंने किया। उनकी यह टिप्पणी महत्त्वपूर्ण हैः

“ग्लोबल साउथ में मौजूद दीर्घकालिक और सबसे बड़े लोकतंत्र की भारत की छवि तार-तार हो रही है। इस हाल में यह कैसे संभव है कि भाजपा और मोदी इतने लोकप्रिय बने हुए हैं?… इसकी पहली वजह यह है कि भाजपा को सबसे ज्यादा समर्थन ग्रामीण एवं सबसे पिछड़े इलाकों में मिलता है, जिन्हें शहरों में पूंजीवाद के हुए तीव्र विकास का लाभ नहीं मिला है। उधर हिंदू राष्ट्रवाद की अपनी ताकत है, जिसे मुसलमानों का भय पैदा कर और बढ़ाया गया है।

दूसरा कारण गुजरे दशकों के दौरान करोड़ों लोगों को बेहतर जीवन-स्तर और जीवन स्थितियां प्रदान में मुख्य पूंजीवादी पार्टी और भारतीय स्वतंत्रता की ध्वजवाहक कांग्रेस पार्टी की विफलता है। ये (वंचित) लोग सिर्फ गांवों में ही नहीं, बल्कि शहरों की मलीन बस्तियों (स्लम) में भी रहते हैं।”

यह संभवतः वह बुनियादी आधार है, जिसके ऊपर नियंत्रित और गुमराह करने वाली सूचनाओं का अंबार खड़ा कर भारत के आर्थिक उदय का भ्रम खड़ा किया गया है।

इसमें एक धारणा ऐसी है, जिसका प्रत्यक्ष परीक्षण करने की स्थितियां आम लोगों के पास नहीं हैं। अगर सूचना के स्रोत यह बताते हैं कि मोदी काल में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ी है, तो फिलहाल ऐसा कोई साधन आम जन के पास मौजूद नहीं है, जिससे वे इसकी सच्चाई को परख सकें। आर्थिक उदय की कहानी का भ्रम शायद इसलिए प्रचलित हो पाया है, क्योंकि बहुत से लोग दुष्प्रचार की आंधी के कारण इस उम्मीद में हो सकते हैं कि भले अभी वे बदहाल हों, लेकिन जब देश में समृद्धि आ रही है, तो देर-सबेर उसका लाभ उन्हें भी मिलेगा।

मगर यह संभव है कि देर-सबेर लोग अपनी हालत और देश के आर्थिक विकास की कहानी के बीच संबंध की तलाश शुरू कर दें। यानी वे इस अंतर्विरोध को समझने लगें। वे यह सोचने लगें कि देश की ऐसी प्रगति से उन्हें क्यों खुश होना चाहिए, जिससे सारी खुशहाली दूर स्थित कुछ तबकों को हासिल हो रही है, जबकि बदहाली उनके हिस्से आ रही है?

ऐसी सोच विकसित होने के रास्ते में एक बड़ी रुकावट हिंदुत्व का नैरेटिव बना रहा है। इसे बनाने में भी नियंत्रित और गुमराह करने वाली सूचनाओं के सुनियोजित प्रसार का सबसे बड़ा योगदान है। परिणाम यह है कि बहुत से लोग जब तथ्य सामने रखे जाने पर भारत की आर्थिक एवं अंतरराष्ट्रीय साख बढ़ने के मामले में निरुत्तर हो जाते हैं, तब वे इस कथन का सहारा लेने लगते हैं कि और कुछ हो या नहीं, मौजूदा सरकार के समय मुसलमानों को उनकी जगह दिखा दी गई है। स्पष्टतः यह भावना समाज में मुस्लिम समुदाय को लेकर फैलाए भय और नफरत के कारण प्रचलित है। यही भावना से नरेंद्र मोदी की “हिंदू हृदय सम्राट” की छवि का आधार है।

अनुमान लगाया जा सकता है कि अगले चार जून को मौजूदा आम चुनाव के जो नतीजे सामने आएंगे, उन्हें तय करने वाले पहलुओं में उपरोक्त दो मरीचिकाओं और इस भावना का सबसे बड़ा योगदान होगा। उस रोज पता चलेगा कि क्या मरीचिकाएं अभी भी उतनी ही प्रभावशाली हैं या अब इनमें दरार उभरने लगी है। क्या कम-से-कम आर्थिक उदय की मरीचिका कमजोर पड़ी है- इसका संकेत तो अवश्य ही उन नतीजों से मिलेगा।

इस संदर्भ में अच्छी बात यह है कि तथ्यों में अपने-आप को खुद जाहिर की क्षमता होती है। तथ्यों के विपरीत बनाई गई कहानी तात्कालिक तौर पर लोकप्रिय हो सकती है, लेकिन चूंकि यथार्थ का संबंध हर व्यक्ति के जीवन से होता है, इसलिए अंततः उसे हकीकत का अहसास होता ही है। अमेरिका के संविधान निर्माताओं में से एक और वहां के दूसरे राष्ट्रपति जॉन एडम्स ने कहा था- ‘तथ्य बड़े जिद्दी होते हैं। हमारी चाहे जो भी इच्छा हो, हमारे चाहे जैसे झुकाव हों, हम जो भी निर्देश दें या भावावेश अपनाएं, हम तथ्यों को बदल नहीं सकते।’

इसलिए मोदी की मरीचिकाएं देर-सबेर टूटेंगी, यह निर्विवाद है। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस प्रक्रिया को उत्प्रेरित करने वाली और गति देने वाली विश्वसनीय राजनीतिक शक्तियों का सिरे से अभाव है। विपक्ष के नाम पर जो दल मौजूद हैं, वे चूंकि सत्ता के समीकरण बनाने से आगे सोचने में अक्षम हैं, इसलिए ना तो जनता के बीच जाकर फर्जी कहानियों की हकीकत बता पाए हैं और ना ही हिंदू-मुस्लिम की बढ़ी को पाटने की पहल कर पाए हैँ। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा जरूर एक ऐसा प्रयास थी, लेकिन वह अकेली घटना बनकर रह गई। उसके बाद राहुल गांधी खुद किसी अन्य राह पर निकल पड़े!

इसलिए अभी तक की कुल सूरत यह है कि आम जन के सामने खुद ही अपना यथार्थ समझने और प्रचलित नैरेटिव को उसके आधार पर परखने की चुनौती है। क्या हिंदुत्व और मरीचिकाओं के प्रभाव में आई आबादी के कुछ हिस्से ने ऐसा करने की शुरुआत कर दी है, इसका संकेत चार जून को मिलेगा।

By सत्येन्द्र रंजन

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता में संपादकीय जिम्मेवारी सहित टीवी चैनल आदि का कोई साढ़े तीन दशक का अनुभव। विभिन्न विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के शिक्षण और नया इंडिया में नियमित लेखन।

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