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lok sabha election 2024

पंजाब में शिरोमणि अकाली दल ने भाजपा से समझौता करने से इनकार ऐसे ही नहीं किया है। ओडिशा में भी नवीन पटनायक भाजपा से अपना दामन बांधने से ऐसे ही नहीं कतराए हैं। समझ लीजिए कि ये सारे संकेत क्या कह रहे हैं? ….राजनीतिक रजतपट पर दस साल से चल रहे दृश्यों ने मतदाताओं के मन में बदलाव की एक परत बहुत गहरे बसा दी है। इसलिए इतनी बड़ी शक़्ल-बदलू कार्रवाई के बावजूद 272 के स्पष्ट बहुमत का आंकड़ा भी छू पाना भाजपा के लिए दूर के ‘चंदा’मामा साबित होती दिख रही है। lok sabha election 2024

पिछले एक महीने में जब मैं ने बार-बार कई टीवी-बहसों में कहा कि 2019 में भारतीय जनता पार्टी द्वारा देश भर में जीती सीटों में से 107 पर इस वक़्त उस की हालत बेहद ख़राब है और वह स्पष्ट बहुमत का आंकड़ा छूने की स्थिति में नहीं है तो सूत्रधारों और भाजपा-समर्थक राजनीतिक विश्लेषकों ने मेरी बात को हवा में उड़ा दिया। मेरी दलील थी कि ऊपर से बेहद चौड़ी छाती ले कर घूम रहे नरेंद्र भाई मोदी अगर 2024 के लोकसभा चुनावों को ले कर बुरी तरह घबराए हुए न होते तो उन्हें ‘370-370’ की रट ख़ुद ही इस तरह लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ती और न वे ‘अब की बार 400 पार’ के अतिरेकी नारे बुलंद कर रहे होते। lok sabha election 2024

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इस के अलावा मैं ने यह भी बताया कि भाजपा के पितृ-संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने नागपुर में हुए अपने अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा के सम्मेलन में भी साफतौर पर यह इशारा किया है कि पिछली बार मिली सीटों में से तक़रीबन सौ पर बहुत ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है और स्वयंसेवक इन निर्वाचन क्षेत्रों में मुस्तैदी से डट जाएं।

चाय से भी ज़्यादा गर्म बने रहने की शौक़ीन केतलियों ने भले ही मेरी बात नकार दी, मगर भाजपा का शीर्ष नेतृत्व किसी गफ़लत में नहीं था। ज़मीनी खोखलेपन को ढांपे रहना उस की इसलिए मजबूरी ज़रूर है कि भाजपा के कार्यकर्ताओं और उसे समर्थन देने वाले मतदाताओं का मनोबल धड़ाम से नीचे न गिर जाए। सो, ‘अब की बार, चार सौ पार’ का ज़ुमला पूरे ज़ोर-शोर से चुनावी आसमान में बुलंद होना ही है।

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मगर असलियत चूंकि नरेंद्र भाई मोदी और अमित भाई शाह अच्छी तरह जानते हैं, इसलिए उन्हें जो ठीक लगा, वह करने में जुट गए। और, उन्हें क्या करना पड़ा है? उन्हें अब तक घोषित अपने 405 प्रत्याशियों में से 101 मौजूदा सांसदों को बाहर का रास्ता दिखाना पड़ा है। उन की तादाद जल्दी ही मेरा बताया 107 का आंकड़ा भी पार कर लेगी। lok sabha election 2024

अगर भाजपा का चना भीतर से इतना थोथा न होता तो ऐसा कैसे होता कि मोशा-जोड़ी 101 मौजूदा सांसदों के टिकट काट देती? अगर भाजपा को 370 और एनडीए को 400 सीटों मिलने के उन के दावे इतने ही दमदार होते उन्हें यह करने की ज़रूरत ही क्या थी? भाजपा के 107 मौजूदा सांसदों के पैर सियासी क़ब्र में लटके हुए नहीं होते तो नरेंद्र भाई और अमित भाई को इतने हाथ-पैर मारने ही क्यों पड़ते? क्या जिस राजनीतिक दल को 370 सीटें मिल रही हों, वह इतनी बेताबी से पत्ते फेंटता है?

अगर नरेंद्र भाई की लोकप्रियता की लकीर 2014 और 2019 की तरह ही ऊर्ध्वगामी होती तो वे हर दर पर हर तरह की दस्तक दे-दे कर जिताऊ उम्मीदवार इकट्ठे क्यों कर रहे होते? मतलब साफ है कि नरेंद्र भाई अपने नाम पर किसी को भी जिता कर लोकसभा में पहुंचा देने का अपना करिश्मा काफी-कुछ खो चुके हैं। इसलिए भाजपा की जीत अब सिर्फ़ उन पर केंद्रित नहीं रह गई है।

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थोड़ा और तफ़सील में जाते हैं। अब तक जिन 101 मौजूदा सांसदों के टिकट मोशा-जोड़ी ने काटे हैं, उन में 11 से पहले ही इस्तीफ़े ले लिए गए थे और उन्हें अपने-अपने प्रदेशों में विधानसभा चुनावों में उतार दिया गया था। उस के बाद लोकसभा चुनाव के लिए जारी हुई भाजपा उम्मीदवारों की पांच सूचियों में 89 सांसदों के टिकट काटे गए हैं। एक सांसद को रातोंरात हरियाणा का मुख्यमंत्री बना दिया गया। इस तरह भाजपा ने पिछली बार जीते अपने 303 सांसदों में से फ़िलहाल 101 को इस बार उम्मीदवार नहीं बनाया है। lok sabha election 2024

2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की असली हालत यह है कि उसे अपने सब से सुरक्षित लौह-दुर्ग गुजरात में 26 में से 15 मौजूदा सांसदों को मैदान से हटाना पड़ा है। दिल्ली में भाजपा पिछली बार सभी 7 सीटें जीती थी, मगर हाल यह है कि इस बार उसे इन 7 में से 6 सांसदों को घर बिठाना पड़ा है। कर्नाटक में भाजपा 2019 में 28 में से 25 सीटें जीती थी। 2024 के चुनाव में उतरने के लिए उसे इन में से 12 के टिकट काटने पड़े हैं।

राजस्थान में अपने 24 में से 8 सांसदों के टिकट भाजपा ने काटे हैं। उत्तराखंड में 5 में से दो और असम में 9 में से 5 मौजूदा सांसदों को भाजपा ने, अच्छा नहीं लगता, लेकिन कहना पड़ेगा कि, लात मार दी है। त्रिपुरा में तो दोनों मौजूदा सांसदों को टिकट देने की हिम्मत नरेंद्र भाई और अमित भाई में से किसी की नहीं पड़ी। मैं जांच एजेंसियों की सदुपयोग-दुरुपयोग के झमेले में नहीं पड़ूंगा, मगर झारखंड में भी, बावजूद तमाम प्रबंधन के मोशा-जोड़ी को अपने 11 में से 5 मौजूदा सांसदों के टिकट काटने पड़े। हरियाणा में 10 में से सारे 10 सांसद भाजपा के हैं। उन में 3 सांसदों के टिकट काटे गए, एक कांग्रेस में चला गया, एक मुख्यमंत्री बन गया।

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यानी 10 में से 5 के टिकट बदले। ओडिशा में 8 में से 4 और बिहार में 17 में से 3 के टिकट भाजपा ने काटे हैं। नरेंद्र भाई मणिपुर जाने की हिम्मत जुटा पाए या नहीं, यह अलग बात है, लेकिन इनर-मणिपुर के अपने मौजूदा सांसद को इस बार फिर मौक़ा देने का साहस तो वे नहीं कर पाए। दूसरे दलों से आए चार दलबदलुओं को भी अलग चाल, चरित्र और चेहरे वाली भाजपा को टिकट देना पड़ा। हताशा का आलम यह है कि 4 राज्यसभा सदस्यों को भी उसे लोकसभा चुनाव में उतारना पड़ा है। lok sabha election 2024

तो ज़रा सोचिए कि जिस भाजपा को दिल्ली में अपने 90 प्रतिशत प्रत्याशी बदलने पड़े हों, और-तो-और गुजरात तक में 60 प्रतिशत मौजूदा सांसदों के टिकट काटने पड़े हों, उस की अंदरूनी हालत दरअसल क्या है? असम में भाजपा को 55 प्रतिशत मौजूदा सांसदों को नमस्ते कहना पड़ा है। कर्नाटक, हरियाणा और ओडिशा के आधे सांसदों से मुंह फेरना पड़ा है। झारखंड के 46 प्रतिशत, उत्तराखंड के 40 प्रतिशत और राजस्थान के 33 प्रतिशत मौजूदा सांसदों के टिकट काटने पड़े हैं। पूरे देश में पिछली बार जीते सांसदों में से अब तक 34 प्रतिशत से नरेंद्र भाई को पल्ला छुड़ाना पड़ा है। अब आप ही बताइए, क्या ये लक्षण भाजपा को 370 सीटें दिलाने वाले और एनडीए को 400 पार कराने लायक़ दिखाई दे रहे हैं?

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पंजाब में शिरोमणि अकाली दल ने भाजपा से समझौता करने से इनकार ऐसे ही नहीं किया है। ओडिशा में भी नवीन पटनायक भाजपा से अपना दामन बांधने से ऐसे ही नहीं कतराए हैं। समझ लीजिए कि ये सारे संकेत क्या कह रहे हैं? इसीलिए अगर फूले हाथ-पैर लिए घूम रहे नरेंद भाई और अमित भाई कोई भी तिकड़म-तरकीब आज़माने से बाज़ नहीं आ रहे हैं तो बुरा मत मानिए, मगर इस का बुरा ज़रूर मानिए कि राजनीति को हड़पो-लूटो व्यवस्था में कौन तब्दील कर रहा है? राजनीतिक रजतपट पर दस साल से चल रहे दृश्यों ने मतदाताओं के मन में बदलाव की एक परत बहुत गहरे बसा दी है। इसलिए इतनी बड़ी शक़्ल-बदलू कार्रवाई के बावजूद 272 के स्पष्ट बहुमत का आंकड़ा भी छू पाना भाजपा के लिए दूर के ‘चंदा’मामा साबित होती दिख रही है।

लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया और ग्लोबल इंडिया इनवेस्टिगेटर के संपादक हैं।

By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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