घूमते-फिरते रहते हुए स्वयंसेवक बने रहना आसान है। प्रधानमंत्री-भाव का बोध अपने में भरना बहुत मुश्क़िल है।… सारे मंत्रालयों की सारी परियोजनाओं का शिलान्यास-उद्घाटन किसी और मंत्री को नहीं करने देने, बात-बात पर ‘एक अकेला, सब पर भारी’ का स्वयं ही उद्घोष करते रहने और ‘मोदी की गारंटी का मतलब है गारंटी की गारंटी’ का ख़ुद ही अनवरत आलाप लगाते रहने की नरेंद्र भाई की ताबड़तोड़ मशक्क़त देख कर देशवासियों में यह धारणा ठोस आकार लेती जा रही है कि इस बार स्पष्ट बहुमत का आंकड़ा भाजपा की मुट्ठी से तेज़ी से फिसल रहा है। Lok Sabha election 2024
अपने नरेंद्र भाई मोदी की एक बात तो माननी पड़ेगी कि वे भले भारत के प्रधानमंत्री बन गए हैं, मगर उन्होंने न तो ख़ुद को इस अहसास से सराबोर किया कि वे भारत के प्रधानमंत्री हैं और न देश-दुनिया को कभी यह लगने दिया कि वे भारत के प्रधानमंत्री हैं। वे वैसे के वैसे ही रहे। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विनम्र स्वयंसेवक थे और हैं।
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मुझे इस का भी पूरा यक़ीन है कि आगे भी वे जनम भर हमें कभी यह अनुभूति नहीं होने देंगे कि वे प्रधानमंत्री हैं। चूंकि स्वयंसेवक आजन्म स्वयंसेवक रहता है, सो वे हमेशा संघ के विनत स्वयंसेवक ही बने रहेंगे। लेझिम और लट्ठ से लैस स्वयंसेवक।
घूमते-फिरते रहते हुए स्वयंसेवक बने रहना आसान है। प्रधानमंत्री-भाव का बोध अपने में भरना बहुत मुश्क़िल है। नरेंद्र भाई के लिए ही नहीं, किसी के लिए भी। अगर कोई अ-स्वयंसेवक भी प्रधानमंत्री बन जाए तो कोई ज़रूरी नहीं कि वह प्रधानमंत्री-मनोभाव में भीग पाए। लेकिन ऐसा भी अनिवार्य नहीं है कि कोई स्वयंसेवक प्रधानमंत्री बनने के बाद अपनी स्वयंसेवक-योनि से, पूरी तरह न सही, काफी-कुछ मुक्त हो ही न पाए। दोनों क़िस्म की मिसालें हमारे आसपास शोभायमान हैं। Lok Sabha election 2024
भारतवासी भाग्यशाली हैं कि जिन 14 व्यक्तियों को उन्होंने प्रधानमंत्री के सिंहासन पर बैठे देखा है, उन में से आधे, यानी सात, पूर्णतः अ-स्वयंसेवक थे। जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, चंद्रशेखर, एच.डी. देवेगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल और डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री-भाव में रचे-बसे थे। उन के दामन पर स्वयंसेवक-मनोवृत्ति का कहीं कोई छींटा नहीं था।
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हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई तो खालिस स्वयंसेवक हैं। उन के अलावा सिर्फ़ एक ही और स्वयंसेवक भारत के प्रधानमंत्री बने – अटल बिहारी वाजपेयी। वे मूलतः स्वयंसेवक थे, लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद उन का ऐसा प्रधानमंत्रीकरण हो गया था कि जिस संघ के वे स्वयंसेवक थे, वह संघ ही उन की राह में कांटे बोने निकल पड़ा था।
बाकी के पांच प्रधानमंत्रियों में से कोई भी प्रथमतः तो दीक्षित स्वयंसेवक नहीं था, मगर प्रधानमंत्री बने उन सभी की सियासी जीवन-यात्रा में कभी-न-कभी ऐसे अवसर आए कि उन के व्यक्तित्व की संरचना में थोड़ा-बहुत स्वयंसेवक-भाव झलकते देखने को भारवासी शापित रहे। लालबहादुर शास़्त्री, मोरारजी देसाई, चरण सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह और पी.वी. नरसिंहराव में से कोई भी अपने को इस स्खलन से बचा कर नहीं रख पाया। दो बार तेरह-तेरह दिनों के लिए अंतरिम प्रधानमंत्री रहे गुलजारीलाल नंदा को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है।
सवा 49 बरस के क़रीब ख़ालिस अ-स्वयंसेवक हमारे देश के प्रधानमंत्री रहे। अब तक 16 बरस का समय भारत ने एक एकदम अनुदार और एक थोड़े-से उदार प्रधानमंत्री के साए तले भी बिताया है। क़रीब सवा 17 साल भटकन-भाव की छुअन वाले व्यक्तियों को प्रधानमंत्री देखने की विडंबना भी देशवासियों ने भोगी है।
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बावजूद इस सब के हमें अपनी इस ख़ुशनसीबी के लिए ईश्वर का शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि आज़ादी के बाद हमारे 77 में से 67 साल अ-स्वयंसेवकों, अर्ध-स्वयंसेवकों या चतुर्थांश-स्वयंसेवकों के प्रधानमंत्रित्व काल में गुज़रे। ज़रा अपनी ठोड़ी पर हाथ रख कर संजीदगी से सोचिए कि अगर देश को दस के बजाय पूरे सतहत्तर साल एक अतिवादी स्वयंसेवक की छत्रछाया में बिताने पड़ते तो भारतवासियों की विचारदशा, व्यक्तित्वदशा और मनोदशा आज कैसी होती? Lok Sabha election 2024
मुझे लगता है कि हमारे नरेंद्र भाई जितने अतिरेक-पसंद स्वयंसेवक हैं, उतना चरमवाद तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अब तक हुए छह सरसंघचालकों में से भी किसी में नहीं देखा गया। मैं ने केशव बलिराम हेडगेवार, माधव सदाशिवराव गोलवलकर, मधुकर दत्तात्रय देवरस, राजेंद्र सिंह, कुप्पाहल्ली सीतारमैया सुदर्शन और मोहन भागवत के समय-समय पर ज़ाहिर किए गए विचारों को पढ़ा-समझा है।
और-तो-और, मैं ने उन लक्ष्मण वासुदेव परांजपे की बातों पर भी ग़ौर किया है, जो वन सत्याग्रह के दौर में हेडगेवार के जेल चले जाने पर कुछ महीनों के लिए कार्यवाहक सरसंघचालक बने थे। मैं इन सभी की बुनियादी सोच-प्रक्रिया के पूरी तरह ख़िलाफ़ होते हुए भी यह कहना ज़रूरी समझता हूं कि मौजूदा सरसंघचालक भागवत समेत उन में से किसी की भी विचार अभिव्यक्ति में वैसी स्थूलता, भोथरापन और उपद्रव्यता नज़र नहीं आती है, जैसी नरेंद्र भाई की शब्द-बौछार और देह-भाषा में दिखाई देती है।
यह भी अच्छा ही है कि नरेंद्र भाई प्रधानमंत्री बनने के बाद भी दस साल में अपनी अतिशय स्वयंसेवकगिरी त्यागने को तैयार नहीं हुए। अगर 2014 की गर्मियों के बाद कहीं उन का अटलबिहारीकरण हो जाता तो 2024 में भी भारतवासी उन से मुक्ति की ललक लिए घूमते दिखाई नहीं देते। यह श्रेय नरेंद्र भाई के अकड़ूपन को ही जाता है कि उन से छुटकारे की छटपटाहट देश के एक अच्छे-ख़ासे दालान में अब इतनी तेज़ सुनाई देने लगी है।
370 और चार सौ पार का ज़ुमला उछाल-उछाल कर ज़ोर-ज़ोर से गरबा कर रही टोलियों के कानफाड़ू शोर को अपने कंधे झटक कर नकार रहे समूहों की संख्या उल्लेखनीय रफ़्तार से बढ़ रही है। भारतीय जनता पार्टी मई-जून की लू के थपेड़े अभी से महसूस करने लगी है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नागपुर में चल रही अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक के भीतर भी माथे की सिलवटें गहरी हो गई हैं। Lok Sabha election 2024
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यह पहला लोकसभा चुनाव है, जिस में मतदाता नरेंद्र भाई मोदी के कामकाज के आधार पर अपने फ़ैसले का इज़हार करेंगे। 2014 में मतदाताओं ने नरेंद्र भाई के नहीं, कांग्रेस की सरकार के काम पर फ़ैसला लिया था। माहौल बना दिया गया था कि कांग्रेस-सरकार नाकारा और भ्रष्ट साबित हुई है। सो, नरेंद्र भाई के लहीम-शहीम वादों पर लोगों का भरोसा बढ़ गया। 2019 में मतदाताओं को वादाख़िलाफ़ी की आंच कुछ-कुछ झुलसाने तो लगी थी, मगर नरेंद्र भाई ने शहीदों के नाम पर वोट का दान मांगा और मतों की गठरी लाद कर ले गए।
2024 में उन के तरकश में राम मंदिर, धारा 370 हटाने और नागरिकता संशोधन क़ानून लागू कर देने जैसे अस्त्र हैं। लेकिन ये सारे मिल कर भी ब्रह्मास्त्र साबित होते नहीं दिख रहे हैं। इसलिए नरेंद्र भाई अपने किए विकास कार्यों का भी लंबा-चौड़ा बखान दिन-रात कर रहे हैं। मगर जितना वे यह कर रहे हैं, उतना ही लोग यह समझते जा रहे हैं कि एक तिहाई भी पूरी नहीं हुई परियोजनाओं का उद्घाटन करने में प्रधानमंत्री ने इतनी हड़बड़ी क्यों दिखाई है? Lok Sabha election 2024
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सारे मंत्रालयों की सारी परियोजनाओं का शिलान्यास-उद्घाटन किसी और मंत्री को नहीं करने देने, बात-बात पर ‘एक अकेला, सब पर भारी’ का स्वयं ही उद्घोष करते रहने और ‘मोदी की गारंटी का मतलब है गारंटी की गारंटी’ का ख़ुद ही अनवरत आलाप लगाते रहने की नरेंद्र भाई की ताबड़तोड़ मशक्क़त देख कर देशवासियों में यह धारणा ठोस आकार लेती जा रही है कि इस बार स्पष्ट बहुमत का आंकड़ा भाजपा की मुट्ठी से तेज़ी से फिसल रहा है।
गुजरात समेत तमाम प्रदेशों में अपने बहुत-से मौजूदा सांसदों को प्रत्याशी बनाने से इनकार करने के भाजपा के कदम ने मतदाताओं के मन में यह बात और गहरे उतार दी है कि नरेंद्र भाई अपने चेहरे और नाम के बूते काठ के किसी भी पुतले-पुतली को चुनावी वैतरिणी पार कराने की क्षमता अब खो चुके हैं। एक वक़्त था कि वे जनसभाओं में कहते थे कि उम्मीदवार को मत देखो, आप का वोट तो सीधे मुझे आ रहा है। यही तो मतदाताओं के लिए नरेंद्र भाई के व्यक्तित्व का अनूठा विपणन बिंदु था और यही वह गोंद था, जिस की वज़ह से भाजपाई हर हाल में उन से चिपके हुए थे। इस के बिना नरेंद्र भाई का क्या नूर? सो, इस बार मुसीबत अकेले नहीं आ रही है।