केंद्रीय गृह मंत्री और भारत की राजनीति के चाणक्य अमित शाह ने पांचवें चरण तक 429 सीटों पर हुए मतदान के बाद ही कह दिया था कि भाजपा 310 सीटें जीत चुकी है और 370 सीटों के लक्ष्य की ओर बढ़ रही है। इससे विपक्षी पार्टियों की बेचैनी और बढ़ी है। उनको अपनी हार की इबारत दिवार पर लिखी दिख रही है और इसलिए वे बलि के बकरे की तलाश कर रहे हैं, जिस पर अपनी हार का ठीकरा फोड़ सकें।
एस. सुनील
छठे चरण का मतदान समाप्त होने के बाद 18वीं लोकसभा की तस्वीर और स्पष्ट हो गई है। भारतीय जनता पार्टी उस संख्या की ओर बढ़ रही है, जिसका दावा प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने किया था तो दूसरी ओर विपक्षी पार्टियां बलि के बकरे की तलाश में जुट गई हैं ताकि अपने अपने शहजादों को बचा सकें। विपक्ष का पूरा फोकस अब इस बात पर हो गया है कि चार जून को होने वाली निश्चित हार का ठीकरा किसके ऊपर फोड़ा जाए। कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों के चुनाव प्रबंधक और स्पिन मास्टर्स अपने नेता को तो जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते, जबकि हकीकत यह है कि विपक्ष की सबसे बड़ी समस्या ही नेतृत्व की है। उसके बाद नैरेटिव, संगठन और प्रबंधन का मामला आता है। फिर साख और भरोसे का मामला आता है। विपक्ष के पास न तो नेतृत्व है, न नीयत है और न नैरेटिव है। उन्हें सिर्फ मोदी विरोध की अंधी राजनीति करनी है। तभी चुनाव में अवश्यंभावी हार को देख कर ये पार्टियां ठीकरा फोड़ने के लिए बलि के बकरे की तलाश में जुट गई हैं। चूंकि कांग्रेस सहित इंडी गठबंधन की सभी पार्टियों के शहजादे खुद ही चुनाव लड़ा रहे हैं और हार के लिए जिम्मेदार भी वही होंगे लेकिन ये पार्टियां उनकी बजाय सबको जिम्मेदार बताएंगी। वे ईवीएम को जिम्मेदार ठहराएंगी, चुनाव आयोग पर ठीकरा फोड़ेंगी यहां तक कि अदालतों को भी कठघरे में खड़े करेंगी लेकिन यह नहीं कहेंगी कि जनता ने उनके शहजादों को खारिज कर दिया और उनकी पार्टियों को हरा दिया।
असल में विपक्षी पार्टियों को लोकसभा चुनाव 2024 के लिए मतदान शुरू होने से पहले ही अपनी हार का अंदाजा हो गया था, तभी उन्होंने इलेक्ट्रोनिकल वोटिंग मशीन यानी ईवीएम को खलनायक बनाने का दांव चला। इसके लिए सर्वोच्च अदालत में याचिका दायर करके ईवीएम और वीवीपैट की पर्चियों का सौ फीसदी मिलान करने का आदेश देने की मांग की गई। अदालत ने न सिर्फ यह याचिका खारिज कर दी, बल्कि याचिका दायर करने वाले गैर सरकारी संगठन को फटकार भी लगाई। अदालत ने साफ शब्दों में कहा कि किसी भी व्यवस्था पर आंख बंद करके अविश्वास करना अच्छी बात नहीं है। अदालत ने कहा कि आंख बंद करके संदेह करने से लोकतंत्र मजबूत नहीं होगा। मौजूदा व्यवस्था जारी रखने का आदेश देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर नतीजों के बाद किसी उम्मीदवार को संदेह है तो वह सात दिन के भीतर आवेदन देकर ईवीएम की जांच करा सकता है। सोचें, इससे ज्यादा पारदर्शी व्यवस्था क्या हो सकती है? सर्वोच्च अदालत का यह फैसला 26 अप्रैल को आया, जिस दिन दूसरे चरण का मतदान चल रहा था।
जब विपक्षी पार्टियों का ईवीएम और वीवीपैट वाला दांव खाली चला गया तो उन्होंने तुरंत एक दूसरा मामला खोज लिया। पहले और दूसरे चरण के मतदान का अंतिम आंकड़ा जारी करने में चुनाव आयोग ने सामान्य से ज्यादा समय ले लिया था तो कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और ईवीएम व वीवीपैट की याचिका देने वाली संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स यानी एडीआर फिर से सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। इस बार कहा गया कि सर्वोच्च अदालत चुनाव आयोग को निर्देश दे कि वह मतदान के बाद 48 घंटे के अंदर मतदान का बूथ वाइज डाटा वेबसाइट पर सार्वजनिक करे। कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टियों के साथ साथ एडीआर ने सीधे तौर पर चुनाव आयोग को कठघरे में खड़ा कर दिया। ईवीएम के बाद अब उनके निशाने पर चुनाव आयोग था और गेंद सुप्रीम कोर्ट के पाले में थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका पर सुनवाई की और चुनाव आयोग को किसी तरह का निर्देश देने से इनकार कर दिया। अदालत ने कह दिया कि अभी चुनाव के बीच मतदान का आंकड़ा जारी करने के मौजूदा सिस्टम को बदलने की जरुरत नहीं है।
असल में इस याचिका से भी विपक्षी पार्टियों की बदनीयती सामने आती है। वे चुनाव आयोग से कह रहे हैं कि वह बूथ वाइज डाटा जारी करे और हर बूथ पर पार्टियों के पोलिंग एजेंट्स को मिलने वाले फॉर्म 17सी को स्कैन करके उसे अपलोड करे। सवाल है कि जब पार्टियों के पोलिंग एजेंट्स के पास फॉर्म 17सी है तो वे खुद ही उसे स्कैन करके क्यों नहीं अपलोड कर दे रहे हैं? यह भी सवाल है कि जब पार्टियों के पास फॉर्म 17सी है, जिस पर लिखा हुआ है कि किस बूथ पर कितने वोट थे और कितने वोट पड़े फिर उन्हें यह बात चुनाव आयोग से क्यों पूछनी है या चुनाव आयोग इसमें कैसे हेराफेरी कर सकता है? ध्यान रहे हर पोलिंग एजेंट को फॉर्म 17सी दिया जाता है, जिस पर वोट का पूरा ब्योरा लिखा होता है। अगर किसी बूथ पर एक हजार वोट हैं और सात सौ वोट पड़े हैं, जो कि पोलिंग एजेंट को दिए गए फॉर्म पर लिखा है तो चुनाव आयोग उसे कैसे बढ़ा देगा और अगर बढ़ा देगा तो गिनती के समय क्या पार्टियों के काउंटिंग एजेंट इस पर आपत्ति नहीं करेंगे? ऐसा नहीं है कि विपक्षी पार्टियों को यह बात पता नहीं है लेकिन चुनाव आयोग की साख पर सवाल उठाने और लोगों के मन में संदेह पैदा करने के लिए याचिका दी गई थी। सर्वोच्च अदालत ने उसे भी खारिज कर दिया। ऐसा लग रहा है कि विपक्ष को सबसे आसान निशाना चुनाव आयोग लग रहा है। तभी पूरे देश में विपक्षी पार्टियां सुनियोजित तरीके से उसके ऊपर हमला कर रही हैं। छठे चरण के मतदान के दौरान 25 मई को ममता बनर्जी ने आरोप लगाया कि ईवीएम पर भाजपा का टैग लगा हुआ है। उधर जम्मू कश्मीर में अनंतनाग राजौरी में चल रहे मतदान के दौरान महबूबा मुफ्ती धरने पर बैठ गईं और आरोप लगाया कि ईवीएम से छेड़छाड़ की गई है तो दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने आरोप लगाया कि जान बूझकर धीमा मतदान कराया जा रहा है।
बहरहाल, विपक्ष की ओर से अपनी हार का ठीकरा ईवीएम पर फोड़ने की तैयारी हो रही थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने विफल कर दिया। फिर चुनाव आयोग की साख पर सवाल उठा कर यह नैरेटिव बनाने का प्रयास किया गया कि चुनाव आयोग के पक्षपात की वजह से विपक्ष हारा है। यह दांव भी सुप्रीम कोर्ट के दो टूक फैसले के बाद फेल हो गया है। अब इंडी गठबंधन की पार्टियों के निशाने पर अदालतें हैं। पश्चिम बंगाल में तो ममता बनर्जी ने खुल कर कलकत्ता हाई कोर्ट को निशाना बनाया है और उसके फैसले को भाजपा का फैसला कहा है। यह अदालत का अपमान है। असल में ममता बनर्जी की सरकार ने अन्य पिछड़ी जाति यानी ओबीसी का प्रमाणपत्र जारी करने में जम कर मनमानी की थी। वोट बैंक की राजनीति के तहत ओबीसी कोटे में मुस्लिम समुदाय की कई जातियों को शामिल करके उन्हें मनमाने तरीके से सर्टिफिकेट जारी किए गए थे। ऐसे पांच लाख के करीब सर्टिफिकेट रद्द करने का आदेश हाई कोर्ट ने दिया है। इसका सीधा असर तृणमूल कांग्रेस की वोट बैंक की राजनीति पर पड़ी है। ओबीसी समूह के सामने उनकी पार्टी की पोल खुल गई है तो वे अदालत की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर सवाल उठा रही हैं। इसी तरह ईवीएम और मतदान के आंकड़े पर फैसले के बाद सुप्रीम कोर्ट को निशाना बनाया जा रहा है। सोचें, जब सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी चंदे के इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर फैसला दिया तो वह ठीक था लेकिन ईवीएम और चुनाव आयोग पर फैसला दिया तो वह गलत है! विपक्ष इसी तरह के चुनिंदा एप्रोच में राजनीति करता है। उसे अपने हितों के लिए देश की संवैधानिक संस्थाओं को भी दांव पर लगाने में हिचक नहीं होती है।
असल में भारतीय जनता पार्टी और पूरा एनडीए, जिस ऐतिहासिक जीत की ओर बढ़ रहा है वह कोई तुक्का या तकनीक की वजह से नहीं है, बल्कि प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की सरकार के 10 साल के कामकाज की वजह से है। उनके अथक परिश्रम की वजह से है। देश के करोड़ों करोड़ मतदाताओं के उनके प्रति प्यार और समर्पण की वजह से है। देश के 140 करोड़ नागरिकों के भरोसे की वजह से है। लोग ‘मोदी की गारंटी’ पर यकीन करते हैं और विपक्ष की ओर से किए जा रहे भारी भरकम वादों पर भरोसा नहीं करते है। कांग्रेस से लेकर समाजवादी पार्टी या राष्ट्रीय जनता दल या झारखंड मुक्ति मोर्चा या तृणमूल कांग्रेस के शहजादों की राजनीति देश के लोगों को पसंद नहीं है इसलिए वे विपक्ष को हरा कर भाजपा की जीत सुनिश्चित कर रहे हैं। यह अनायास नहीं है कि देश के सबसे बड़े चुनाव रणनीतिकार से लेकर अमेरिका के जाने माने चुनाव विश्लेषक तक भारतीय जनता पार्टी के तीन सौ से ज्यादा सीट जीतने की भविष्यवाणी कर रहे हैं। केंद्रीय गृह मंत्री और भारत की राजनीति के चाणक्य अमित शाह ने पांचवें चरण तक 429 सीटों पर हुए मतदान के बाद ही कह दिया था कि भाजपा 310 सीटें जीत चुकी है और 370 सीटों के लक्ष्य की ओर बढ़ रही है। इससे विपक्षी पार्टियों की बेचैनी और बढ़ी है। उनको अपनी हार की इबारत दिवार पर लिखी दिख रही है और इसलिए वे बलि के बकरे की तलाश कर रहे हैं, जिस पर अपनी हार का ठीकरा फोड़ सकें। ईवीएम, चुनाव आयोग और अदालतों के बाद देखते हैं कि विपक्षी पार्टियां किस पवित्र संस्था को निशाना बनाती हैं? (लेखक सिक्किम के मुख्यमंत्री प्रेम सिंह तमांग (गोले) के प्रतिनिधि हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)