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मरियल कुंडियां और प्रतिपक्ष का तात्विक कर्म

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अगर चुनाव कुप्रबंधन के थोड़े भी पर्याप्त प्रमाण हों तो विपक्ष को मुख्य निर्वाचन आयुक्त के ख़िलाफ़ संसद में महाभियोग चलाने का प्रस्ताव पेश करना चाहिए।….विपक्ष को एक काम और करने की गांठ बांधनी चाहिए। नरेंद्र भाई ने विमर्श के गलियारे बंद करने की मंशा से संसद के नए भवन में केंद्रीय कक्ष का निर्माण ही नहीं होने दिया है। पुराने संसद भवन के केंद्रीय कक्ष को पुनर्जीवित करने का ज़ोरदार उपक्रम सकल-विपक्ष अगर करेगा तो उसे सांसदों, पूर्व सांसदों, राज्यों के मंत्रियों, विधायकों, पूर्व विधायकों और पत्रकारों का निर्विवाद अखिल भारतीय समर्थन हासिल होगा। इस मुहीम की जीत का प्रतीकात्मक महत्व नरेंद्र भाई के मनमानेपन के परखच्चे बिखेरने वाला साबित होगा।

नरेंद्र भाई मोदी और अमित भाई शाह की भारतीय जनता पार्टी को 2024 के लोकसभा चुनाव में सरकार बनाने लायक स्पष्ट बहुमत न मिलने से जिन्हें लग रहा है कि देश में लोकतंत्र मज़बूत हो गया है, वे बहुत मासूम हैं। कांग्रेस को 99 और इंडिया-समूह को 234 सीटें मिलने से जिन्हें लग रहा है कि जनतंत्र को अब कोई खतरा नहीं है, वे और भी ज़्यादा भोले हैं। मुझे तो लग रहा है कि हमारी जम्हूरियत का असली इम्तहान तो अब शुरू हुआ है। ठीक है कि सत्ता-समूह संसद में पहले से कमज़ोर हो गया है। ठीक है कि प्रतिपक्ष संसद में पहले से ताक़तवर हो गया है। मगर इस तथ्य के बावजूद अगर नरेंद्र भाई की झुलस चुकी सत्ता-डोर का पेचोख़म सपाट होने का नाम नहीं ले रहा है तो मान कर चलिए कि आने वाले दिनों में हमारे हुक़्मरान-द्वय का पहले से भी बेदर्द चेहरा देश को देखने को मिलेगा। 

चुनाव नतीजों से नरेंद्र भाई विनम्र नहीं, और धृष्ट होते दिखाई दे रहे हैं। 2014 में अपनी सनसनाती जीत और 2019 में अपनी गगनफाड़ू विजय के बाद भी जिन नरेंद्र भाई ने भीतर-भीतर स्वयंभू होते हुए भी स्वयं को भाजपा के संसदीय दल से नेता चुनवाने की रस्म ऊपर-ऊपर से पूरी की, उन्हीं नरेंद्र भाई ने पिछली बार के मुकाबले 62 सीटें कम हो जाने के बावजूद, अपनी पार्टी के संसदीय दल को इस बार खूंटी पर लटका दिया। मूसलाधार बहुमत के बाद भी जो नरेंद्र भाई अपने पितृ-संगठन का लिहाज़ करने की औपचारिकता पूरे दस बरस बरतते रहे, वे नरेंद्र भाई अब ढलान पर रपटते हुए भी उसे ठेंगा दिखा रहे हैं। जो नरेंद्र भाई लोकलाज की वज़ह से प्रधानमंत्री-कार्यालय की नृत्य मुद्राएं दस साल तक ओट में रखे रहे, उन नरेंद्र भाई ने तीसरी बार प्रधानमंत्री बनते ही अपने पीएमओ का खुलेआम नाभि-प्रदर्शन कर डाला है। 

2014 में मां गंगा ने नरेंद्र भाई को बुलाया भर था। अब तो मां गंगा ने उन्हें गोद ही ले लिया है। अब नरेंद्र भाई जैविक रहे ही कहां हैं, अब तो वे परमात्मा के दूत हैं। सो, जिन ख़ास कामों को पूरा करने के लिए परमात्मा ने उन्हें भेजा है, अब एक-एक कर वे उन्हें तेज़ी से पूरा करेंगे। इस श्रंखला का पहला काम जब हो रहा था तो नरेंद्र भाई ने उसे निर्विध्न संपन्न होने दिया। महात्मा गांधी को कूड़ेदान में फैंकना तो आसान है नहीं, मगर उन की प्रतिमा को पुराने संसद भवन के मुख्यद्वार के सामने से हटा कर कोनेदानके हवाले कर दिया गया। अब वे संसद परिसर के एक कोने में नाम के लिए बनाए गए प्रेरणा-स्थल से हमें निहार-निहार कर प्रेरणा प्रदान किया करेंगे। और बिल्कुल ताज्जुब मत करिएगा, अगर आप किसी दिन बापू की प्रतिमा हटने से खाली हुई ज़गह पर नरेंद्र भाई की भाजपा की वैचारिक वंशवृक्ष के सब से पूज्य आराध्य की मूर्ति लगी देखें। 

तो नरेंद्र भाई जिस भाव-दशा में हैं, क्या वह आप को एक ज़ख़्मी शेर या चोट खाई नागिन की चित्त-वृत्ति सरीखी नहीं लग रही है? वे विनत नहीं, बिफरे हुए दीख रहे हैं। वे जनादेश के संदेश को पलकों पर बिठाने के बजाय उसे ठोकरों में उड़ा देने के लिए संकल्पित दिखाई दे रहे हैं। उन की मनोदशा ग़लतियों से सबक के शीतल झरने में स्नान की नहीं, क्रोधाग्नि के ज्वालामुखी पर तंडुलांबु करने की लग रही है। अगर वे पूरे पांच साल हुकूमत की कमान संभाले रहे और गौतम-गांधी के बजाय नाइट्स टेंपलरको अपना आदर्श मान कर चले तो आर-पार के दौर का असली बिसमिल्लाह तो हम-आप अब देखेंगे। आखि़र हम ने इन दस साल में नरेंद्र भाई को कितनी ही बार यह दुंदुभि बजाते सुना ही है कि अभी तक तो जो हुआ है, एक झलकी है। पूरी झांकी तो अभी बाकी है। 

सो, आश्वस्त हो कर सो जाने का वक़्त अभी नहीं आया है। जागते रहोकी लठिया को नियत अंतराल के बाद तेल पिलाते रहने में कोई भी कोताही बहुत भारी पड़ सकती है। जो यह सोच कर निश्चिंत रहेंगे, वे गच्चा खाएंगे कि पिछले दस बरस के आततायी-दौर में भी जो नहीं टूटे, अब वे भला क्या टूटेंगे? नरेंद्र भाई कच्चे घड़े नहीं हैं। वे सख़्त सलाखों को मोड़ने का हुनर जानते हैं। उन की हड्डियां अभी इतनी बूढ़ी नहीं हुई हैं कि कलियुगी सियासत की कलुषित काया का बोझ न झेल पाएं। वे तो इसी मूल विषय के विद्यार्थी रहे हैं और करत-करत अभ्यास के अब इस विद्या के आमिल हो गए हैं। उन जैसा पहुंचा हुआ फ़कीर भारत की राजनीति में तो आज कोई और है नहीं। 

इसलिए विपक्ष अपने आंशिक कायाकल्प को अभंगुरता का वरदान समझ लेने की भूल न करे। अगर सत्ता-दल की सांकल में कुछ कमज़ोर कड़ियां हैं तो प्रतिपक्षी श्रंखला में भी मरियल कुंडियों की कोई कमी नहीं है। सत्ता पक्ष के उच्चाभिलाषी तो कोई गृहयुद्ध लड़ने के लिए नरेंद्र भाई के डर के मारे खच्चरों पर भी शायद ही चढ़ पाएं, मगर प्रतिपक्ष में ऐसे-ऐसे डॉन क्विक्ज़ोट भरे पड़े हैं कि अपनी अक़्ल को घास चरने भेज कभी भी पोरस के हाथी बन जाएं। नरेंद्र भाई के लिए एनडीए को, और अंततः भाजपा को भी, एकजुट रखना जितना मुश्क़िल साबित होने वाला है, उस से कम मुश्क़िल विपक्ष के लिए ख़ुद को एकरंगी बनाए रखना भी नहीं होगा। 

जनतंत्र को बचाए रखने के लिए प्रतिपक्ष को तात्विक कर्म तो अब करना है। थोड़ा ज़्यादा क्रांतिकारी मशवरा लग सकता है, लेकिन अगर चुनाव कुप्रबंधन के थोड़े भी पर्याप्त प्रमाण हों तो विपक्ष को मुख्य निर्वाचन आयुक्त के ख़िलाफ़ संसद में महाभियोग चलाने का प्रस्ताव पेश करना चाहिए। यह प्रस्ताव भले ही तकनीकी तौर पर पारित न हो पाए, मगर यह पहलक़दमी एक नज़ीर बनेगी। आख़िर भारत की संवैधानिक संस्थाओं के रखवालों को मिले उन्मुक्ति के अधिकार क्या इसलिए हैं कि वे जन-जवाबदेही का लिहाज़ तक न पालने वाले उद्दंड नचबलिए बन कर लहराते घूमें? राहुल गांधी और कुछ करें-न-करें, अगर महाभियोग की पूजन-थाली ले कर निकल पड़ें तो दस बरस के सारे बांस ख़ुद-ब-ख़ुद उलटे बरेली की तरफ़ लदने शुरू हो जाएंगे। 

विपक्ष को एक काम और करने की गांठ बांधनी चाहिए। नरेंद्र भाई ने विमर्श के गलियारे बंद करने की मंशा से संसद के नए भवन में केंद्रीय कक्ष का निर्माण ही नहीं होने दिया है। पुराने संसद भवन के केंद्रीय कक्ष को पुनर्जीवित करने का ज़ोरदार उपक्रम सकल-विपक्ष अगर करेगा तो उसे सांसदों, पूर्व सांसदों, राज्यों के मंत्रियों, विधायकों, पूर्व विधायकों और पत्रकारों का निर्विवाद अखिल भारतीय समर्थन हासिल होगा। इस मुहीम की जीत का प्रतीकात्मक महत्व नरेंद्र भाई के मनमानेपन के परखच्चे बिखेरने वाला साबित होगा। उन की कृत्रिम अग्निवीरता को धराशायी करने के लिए छोटे लगने वाले इस तरह के कुछ बड़े क़दम उठाना विपक्ष की प्राथमिक सूची में शामिल होना ज़रूरी है। 

सो, इन शुभकामनाओं के साथ कि दो दिन बाद आरंभ हो रही 18वीं लोकसभा जनतंत्र के जज़्बे को अनवरत दृढ़ बनाए रखने में कामयाब रहे, पक्ष-प्रतिपक्ष अपनी-अपनी भूमिकाओं की सार्थकता सिद्ध करें और ये पांच बरस सचमुच के अच्छे दिनहमें लौटा दें; आइए, दिखाने भर को नहीं, सचमुच आत्मसात करने के लिए, अपने संविधान को हम शीश नवाएं और उस की रक्षा का संकल्प लें।

By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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