हुआ यह कि पांच चरणों के इस युग में कांग्रेस का ढोल बजा तो खूब, लेकिन तरह-तरह की व्यक्तिगत कार्यावलियों को अपनी चोर-जेब में छिपाए बहुत दिनों से ताक में बैठे कारकून इस ढोल की पोल में घुस गए।.. 139 बरस पुरानी पार्टी का सारा क्रियान्वयन-तंत्र सियासी सहभागियों के बजाय कारिंदों के सुपुर्द हो गया। कांग्रेस की मुसीबत की आज यही असली जड़ है।.. यह जाने वालों के मीन-मेख निकालने का नहीं, आत्म-निरीक्षण का समय है। देर से ही सही, कभी तो अंतर्दर्शन भी हो। जब जागो, तब सवेरा। जागो तो सही। और, फिर जागते रहो!
यह अलग बात है कि कांग्रेस छोड़ कर किसी के भी भारतीय जनता पार्टी में जाने पर अनुचर-मीडिया ऐसा माहौल बनाने में लग जाता है गोया जाने वाले पंडित जवाहरलाल नेहरू या दादाभाई नौरोजी थे, मगर यह भी तो एक बात है कि जाने वाले भले ही कितने ही अप्रासंगिक थे, कितने ही ऐरेग़ैरेनत्थूखेरे थे, वे जा क्यों रहे हैं? ‘जिन्हें जाना हो, जाएं, जिन्हें रहना हो, रहें’ को अपना बीज-मंत्र बना लेने वाले महामना, हो सकता है कि, सही हों।
जिन्हें सब-कुछ मिला, उन के जाने की चिंता नहीं करने का सिद्धांत भी, हो सकता है कि, सही हो। लेकिन जिन्हें कुछ नहीं मिला और जो फिर भी नहीं जा रहे, उन की ही कौन-सी परवाह करने की फ़िक्र कांग्रेस में कोई पाल रहा है? इसलिए पिछले दो-एक दशक में कहीं तो कुछ गड़बड़ी कांग्रेस की मूल-सोच में आई है, जिस ने ये हालात पैदा किए हैं कि नए-नकोर तो नए-नकोर, बरसों-बरस के खांटी हमजोली भी विदाई-गीत गाने लगे हैं।
यह सच है कि चंद लोग अपने बेहद निजी स्वार्थ, लालच और भय की वज़ह से भाजपा में गए हैं। लेकिन मुझे लगता है कि उन से कहीं बहुत ज़्यादा तादाद ऐसे लोगों की है, जो मतलबपरस्ती, लिप्सा और डर के कारण नहीं, जानबूझ कर की जाने वाली उपेक्षा, दुत्कार और अपमान से चिढ़ कर भाजपा में गए हैं।
छोटे-बड़े किसी के भी जाने के बाद उसे गद्दार करार दे देना आसान है, उसे विचारधारा-विहीन बता देना आसान है, उसे पदलोलुप वग़ैरह कह कर कोसना आसान है; मगर यह सब कहते वक़्त ख़ुद से यह पूछना आसान नहीं है कि इन सब मतलबपरस्तों, गद्दारों और पदलोलुपों को अपनी आस्तीन में लपेटा किस-किस ने था? ऐसे-ऐसों को उन की क़ाबलियत से ज़्यादा दे-दे कर पाल-पोस कौन-कौन रहा था? पूत के पांव पालने में ही न परख पाने की नाकामी का दोष किस-किस के मत्थे है? ऐसा क्यों है कि आंखों के तारे ही टूट-टूट कर गिरे?
मैं बताता हूं कि ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है कि तक़रीबन 17 बरस पहले कांग्रेस में नए प्रयोगों का एक दौर बहुत तेज़ी से शुरू हुआ। एक नई कांग्रेस की रचना आरंभ हुई। इस काम की नींव में भले ही कितनी ही नेकनीयती रही हो, मगर इस उपक्रम का रेखाचित्र ड्राइंग बोर्ड पर शायद उतनी ऐहतियात से तैयार नहीं हुआ था और उस से कांग्रेस की नींव हिलने लगी। फिर 11 साल पहले इस रचना-काल का दूसरा चरण शुरू हुआ। इस चरण में कांग्रेस की नींव में खर-पतवार इकट्ठी होने लगी।
कांग्रेस की पुनर्रचना का तीसरा चरण 7 साल पहले शुरू हुआ। इस चरण में कुछ क़ायदे के काम हुए और कुछ बेक़ायदे के। इस कारण फलदार पेड़ कटते गए और कचरा-करकट बढ़ता चला गया। नतीजतन नींव की मजबूती पर सवालिया निशान पहले की ही तरह टंगे रहे। क़रीब पांच साल पहले कांग्रेस की पतनगाथा में चौथे चरण का पन्ना जुड़ा और वह अंतरिम-काल के हवाले हो गई। सारे अहम फ़ैसले पेंडुलम पर लटक गए। डेढ़ बरस पहले कांग्रेस के पुनरुत्थान के पांचवे चरण की औपचारिक शुरुआत हुई है। इस मौजूदा चरण में मंचीय व्यवस्था और नैपथ्य व्यवस्था का रंगबिरंगापन कांग्रेस के गले की फांस बना हुआ है।
सो, हुआ यह कि पांच चरणों के इस युग में कांग्रेस का ढोल बजा तो खूब, लेकिन तरह-तरह की व्यक्तिगत कार्यावलियों को अपनी चोर-जेब में छिपाए बहुत दिनों से ताक में बैठे कारकून इस ढोल की पोल में घुस गए। अर्थवान, वैचारिक प्रतिबद्धता से सराबोर और ज़मीनी समझ रखने वाले इक्कादुक्का लोगों के अपवाद छोड़ दीजिए तो कांग्रेस का शिखर नेतृत्व तज़ुर्बेकार राजनीतिक सहयोगियों की टोली से फिसल कर आहिस्ता-आहिस्ता पूरी तरह कारकूनों के कब्जे में चला गया।
139 बरस पुरानी पार्टी का सारा क्रियान्वयन-तंत्र सियासी सहभागियों के बजाय कारिंदों के सुपुर्द हो गया। कांग्रेस की मुसीबत की आज यही असली जड़ है। अब जब तक इस विष-नाभि का संहार करने वाले बाण शिखर नेतृत्च के तरकश में जन्म नहीं लेते, तब तक कांग्रेस इसी गति से चलेगी और इसी गति को प्राप्त होती रहेगी।
ऐसा नहीं है कि इस गति से बचने का कोई उपाय नहीं है। इस गति से बचने का उपाय सब जानते भी हैं। इस उपाय पर अमल करने के लिए अंतरिक्ष विज्ञानी होना ज़रूरी नहीं है। कौन नहीं जानता कि राजनीतिक संगठन मानव संसाधन के कुशल प्रबंधन से मजबूती पाते हैं। कौन नहीं जानता कि देशव्यापी प्रबंधन तो तभी होगा, जब पहले कोई संगठन अपने आंतरिक मानव संसाधन का कुशल प्रबंधन कर ले। आंतरिक प्रबंधन पारस्परिक विश्वास से होता है।
एक हाथ से ताली बजती होती तो फिर बात ही क्या थी? इसलिए ऐसा नहीं हो सकता कि आप के सहयोगी तो आप पर विश्वास कर बिछे-बिछे जाएं और आप से उन्हें विश्वास का प्रतिदान ही न मिले। भरोसे के इस संकट का समाधान निकाले बिना कैसे कोई राजनीतिक दल किसी भी रण में विजय हासिल कर सकता है?
मगर बदनसीबी यह है कि कांग्रेस के मध्यांचल में विराजे योद्धा अपनों को ठिकाने लगाने की महारत तो रखते हैं, मगर भाजपा से निपटने में उन की सारी सूरमाई गुफा-गमन कर जाती है। जितनी शतरंजी चालें ये शूरवीर पार्टी के भीतर ही एक-दूसरे को गिराने के लिए चलते हैं, उस की पासंग भी उन्होंने भाजपा की रणनीतियों को बेरंग करने के लिए सोची-चली होतीं तो कांग्रेस आज इस तरह हांफ नहीं रही होती।
असलियत यह है कि देश के मतदाताओं का बहुत बड़ा हिस्सा आज भाजपाई हुकूमत से मुक्ति के लिए कमर कसे बैठा है, वह अपने समर्थन से विपक्ष का दामन तर-ब-तर कर देना चाहता है, लेकिन कांग्रेस के मध्यांचली टपोरियों की वजह से सब-कुछ बिखरता चला जा रहा है। इस की अनदेखी करना शीर्ष नेतृत्व की सियासी दीर्घायु के लिए अंततः आत्मघाती ही होगा।
कांग्रेस छोड़ कर जाने वाले बहाने कुछ भी बनाएं, लेकिन मानव-मन की बुनावट ऐसी है कि वह व्यक्ति को अपनी बुनियादी वैचारिक प्रतिबद्धताओं से आजीवन बांधे रखती है। विचारबद्धता किसी व्यक्ति की सांस्कृतिक परवरिश, विरासती अभिप्रेरणा, शख़्सियत और मिज़ाज़ से तय होती है। इसलिए आमतौर पर कोई भी व्यक्ति अपनी मूल विचारधारा को आसानी से नहीं बदल पाता है।
मानव-मस्तिष्क की आधारभूमि सहज परिवर्तनीय है ही नहीं। इसलिए यह कह देना कि किसी ने रातोंरात अपनी विचारधारा बदल ली है, पूरे मसले का अतिसरलीकरण करना है। अगर कोई विचारबद्धता-विहीन है तो उस के ऐसा होने की झलक तो प्रवेशद्वार पर ही दिख जाएगी। ऐसे में उसे अंतःकक्ष में सादर बिठा कर आसंदी उपलब्ध कराने का सवाल ही पैदा नहीं होना चाहिए।
अगर ऐसे लोगों को उन की क़ाबलियत से भी बड़ी ज़िम्मेदारियां दी गईं तो अब उन के जाने पर झांकना तो ख़ुद के भीतर होगा। यह जाने वालों के मीन-मेख निकालने का नहीं, आत्म-निरीक्षण का समय है। देर से ही सही, कभी तो अंतर्दर्शन भी हो। जब जागो, तब सवेरा। जागो तो सही। और, फिर जागते रहो!