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चुनाव आयोग कर सकता है!

जब तक न्यायालय ने किसी विपक्षी नेता/दल को किसी बात का अपराधी न ठहराया हो, तब तक किसी मंत्री द्वारा उस नेता या दल के विरुद्ध बोलना संविधान की शपथ के प्रतिकूल है। अतः असंवैधानिक, और पद का दुरुपयोग है। न केवल चुनाव के समय, बल्कि जब तक वह मंत्री पद पर है उस पूरी अवधि में।अतः चुनाव आयोग स्थाई आदेश दे सकता है कि मंत्री पद पर रहते हुए दलगत वक्तव्य न दिए जाएं। कोई मंत्री न अपने दल, न किसी विपक्षी दल का नाम लेकर उस की प्रशंसा या निन्दा करे।….मंत्रियों का केवल अपने चुनाव क्षेत्र में, मात्र अपने प्रचार के सिवा कहीं भी प्रचार करना वर्जित हो। अन्यथा सत्ता-विहीन उम्मीदवारों के विरुद्ध जाने-अनजाने सरकारी ताकत लगती है।

चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठ रहे हैं। ई.डी., सी.बी.आई. के दुरुपयोग से सत्ताधारी दल को लाभ होने की बात फैल रही है। सुप्रीम कोर्ट ने भी सी.बी.आई. को सिखाई गयी कहने वाला ‘तोता’ कहा था। अर्थात, दलीय लाभ के लिए राजकीय तंत्र का दुरुपयोग चिन्तनीय विषय बन चुका है।

किन्तु सवाल उठाने वाले दल आधी-अधूरी कहते हैं। उन की चिन्ता न्याय से अधिक ईर्ष्या प्रेरित लगती है। कि जो अनैतिक काम सत्ताधारी दल करते हैं, वह तो चलता रहे। केवल उस सत्ता स्थान पर वे खुद पहुँच जाएं। इसीलिए किसी राजनीतिक दल ने चुनाव आयोग या सुप्रीम कोर्ट से चुनाव में और राजकीय कार्य में भी दलीय हस्तक्षेप रोकने की माँग नहीं की। जबकि वही मूल बिन्दु है, जिस से सभी दलों के लिए समान व्यवस्था सुनिश्चित होगी। यह चुनाव आयोग कर सकता है।

सब से पहली बात, राज्य और पार्टी का घालमेल बंद करना। संविधान की तीसरी अनुसूची में मंत्री पद की शपथ लिखी है। तदनुसार हर मंत्री पद की शपथ लेते कहता है: ”… मैं बिना लगाव या दुर्भावना के हर तरह के लोगों के प्रति सही काम करूँगा/गी जो संविधान और कानून सम्मत हो।”

अतः किसी राजकीय मंत्री द्वारा किसी दल/नेता के विरुद्ध आरोप लगाना, दुर्भावना के बयान देना अनुचित है। जब तक न्यायालय ने किसी विपक्षी नेता/दल को किसी बात का अपराधी न ठहराया हो, तब तक किसी मंत्री द्वारा उस नेता या दल के विरुद्ध बोलना उस शपथ के प्रतिकूल है। अतः असंवैधानिक, और पद का दुरुपयोग है। न केवल चुनाव के समय, बल्कि जब तक वह मंत्री पद पर है उस पूरी अवधि में।

अतः चुनाव आयोग स्थाई आदेश दे सकता है कि मंत्री पद पर रहते हुए दलगत वक्तव्य न दिए जाएं। कोई मंत्री न अपने दल, न किसी विपक्षी दल का नाम लेकर उस की प्रशंसा या निन्दा करे। इस से दलीय लाभ के लिए राज्य-तंत्र का दुरुपयोग रुकने का आरंभ होगा।

दूसरा कदम, सरकार में बैठे नेताओं द्वारा पार्टी कार्य बंद कराना। किसी मंत्री, आयोग सदस्य, आदि को राजकीय सुविधा, बंगला, गाड़ी, स्टाफ आदि राजकार्य के लिए मिलता है। न कि पार्टी कार्य के लिए। अतः उसे किसी हाल में सार्वजनिक रूप से पार्टी कार्य, सम्मेलन, बयानबाजी, आदि में भाग नहीं लेना चाहिए। उन्हें जो संसाधन, मीडिया कवरेज, महत्ता मिलती है वह मंत्री या राजकीय आयोग के पद के कारण। जिन का उपयोग किसी दल के हित या विरुद्ध करना नितांत अनैतिक है। एक दल को बल पँहुचाने सार्वजनिक रूप से सक्रिय रहना, तथा दूसरे दल को अनुचित हानि पँहुचाना है।

वस्तुत: इंदिरा गाँधी के चुनाव पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले (१९७५) का तर्क यही था। राजकीय संसाधन का उपयोग किसी चुनावी उम्मीदवार के पक्ष में करना अवैध करार दिया गया था। वह मंत्री के चुनाव-कार्य ही नहीं, मंत्रियों द्वारा पार्टी काम करने पर भी लागू होता है, जिस से किसी पार्टी को लाभ और दूसरे को हानि हो। अतः मंत्री का पार्टी काम करना बंद होना चाहिए।

वैसे भी, पार्टी काम के लिए हर पार्टी का अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, महासचिव, आदि का पूरा तामझाम है ही। बल्कि पार्टियों को सरकारी बँगले तक (अनुचित ही) आवंटित हैं। अतः पार्टी कार्य, सम्मेलन, वक्तव्य, आदि केवल पार्टी अधिकारियों के माध्यम से हो। इस से पार्टी और सरकार में घालमेल रुकेगा।

यदि कोई नेता अपने पार्टी-कार्य हेतु जरूरी है, तो उसे राजकीय पदों से मुक्त करें। वरना यह और पक्का प्रमाण है कि वह नेता उतना जरुरी नहीं – बल्कि उस के राजकीय पद के संसाधन, महत्ता, दबदबे का उपयोग पार्टी के लिए हो जा रहा है!

यह इस से भी दिखेगा कि कुछ मंत्री सदैव पार्टी कार्य में व्यस्त रहते हैं। उस के विवरण मीडिया में छपते रहते हैं। लेकिन कोई मंत्री एक दिन भी पार्टी कार्य में कहीं गया, तो उस दिन मंत्री का सरकारी काम उपेक्षित पड़ा रहा। यह अनुचित है: पार्टी-कार्य के लिए राजकीय काम की हानि करना।

अतः राज्य-पार्टी घालमेल रोकना चुनावी निष्पक्षता के लिए भी बुनियादी बिन्दु है। मंत्री राजकीय सुविधाओं, संसाधनों के बल के साथ अपना पार्टी-प्रचार करते हैं। जिस से सत्ता-विहीन दल के उम्मीदवार विषम स्थिति में रहते हैं। मानो, फुटबॉल मैच में एक टीम के खिलाड़ी नंगे पाँव रखे जाएं, जब कि प्रतिद्वंद्वी टीम के खिलाड़ी शानदार बूट पहने हों!

अतएव मंत्रियों का केवल अपने चुनाव क्षेत्र में, मात्र अपने प्रचार के सिवा कहीं भी प्रचार करना वर्जित हो। अन्यथा सत्ता-विहीन उम्मीदवारों के विरुद्ध जाने-अनजाने सरकारी ताकत लगती है। चुनाव आयोग वह सब सरलता से रोक सकता है क्यों कि पाबंदी सभी दलों पर लागू होगी। तभी चुनावी मैच में समान अवसर, लेवल प्लेयिंग फील्ड, सुनिश्चित होगी।

राजनीतिक दलों की आम प्रवृत्ति को महान समाजशास्त्री राबर्ट मिचेल्स ने ‘अल्पतंत्र का लौह नियम’ कहा था। कि आकार बढ़ते ही हर दल, संगठन के नेतृत्व में अनैतिक, लोभी, तानाशाही भाव पैदा होकर बढ़ने लगते हैं। जिसे दल के निचले लोग भी नहीं रोक सकते। अतः दलों पर विशेष अंकुश की व्यवस्था होनी चाहिए, न कि विशेष सुविधाओं की!

 

यही हमारे संविधान की भावना भी थी। उस में हर पद पर नियुक्त व्यक्ति को अधिकार, उत्तरदायित्व दिया गया था – दल को नहीं। अतः दल भी व्यापारिक कंपनियों, अन्य सामाजिक संस्थाओं की तरह सामान्य संस्था हैं। अतः जैसे किसी कंपनी का मालिक, या उस के मैनेजिंग बोर्ड का सदस्य कभी राजकीय मंत्री बनने पर दिन-रात अपनी कंपनी का धंधा बढ़ाने के लिए दूसरी कंपनियों के विरुद्ध ताकत नहीं लगा सकता, या प्रोपेगंडा नहीं कर सकता; वही राजनीतिक दलों की स्थिति होनी चाहिए। संविधान ने दल को कोई अलग स्थान नहीं दिया है। अतः चुनाव आयोग दलों को अपनी जगह दिखा सकता है। वरना राज्य-तंत्र सत्ताधारी दलों के मैनेजरों, तथा अदृश्य लोगों का बंधक बनता जाएगा।

इन बातों पर पार्टीबंदी से हट कर विचार होना चाहिए। सामाजिक हित, विवेक, और सहज न्याय से हर बात परखनी चाहिए। वरना याद रहे, सोवियत संघ में पार्टी और राज्य का घालमेल हो जाने से सब कुछ तबाह हुआ! सोवियत सत्ता व पार्टी की मनमानी देखने वाला वहाँ कोई न रहा। मीडिया, अदालतें, विश्वविद्यालय, लेखक-कवि, आदि सभी पार्टी अनुचर बना दिए गए। फलत: पार्टी में भी, सब से धूर्त, क्रूर तत्वों की बढ़त हुई। क्योंकि वैसे लोग ही अनुचित अनैतिक काम कर पार्टी को फैला सकते थे। दूसरों को मिटा सकते थे! अंततः स्वयं पार्टी में भी ऊपर कोई जानकार, विवेकशील, योग्य न बचा। अंत में एक ही झटका लगने पर सोवियत व्यवस्था का दयनीय अंत हो गया। वह ऐसी सत्वहीन हो चुकी थी।

ध्यान दें, स्वतंत्र भारत में उसी सोवियत तंत्र के कई अवगुण शुरू से अपनाए गये। उस के दुष्परिणाम कुछ वैसे ही हुए, और हो रहे हैं। यद्यपि कुछ आर्थिक सुधार पी.वी. नरसिंहराव ने किए थे। पर दलीय, संसदीय, शैक्षिक क्षेत्रों में सोवियत नकल वाली हानियाँ बनी रहीं। बल्कि उस में वृद्धि होती गई है। राजनीतिक दलों को सभी नैतिकता, सूचना अधिकार कानून, तथा आय-कर कानूनों से मुक्त रखने की तरकीब उसी पतन की एक और सीढ़ी है। यह संपूर्ण राष्ट्रीय पतन की भी सीढ़ी बन सकती है! चाहे अभी न‌ दिखे, जैसे सोवियत विघटन का संकेत भी होने के कुछ महीने पहले तक किसी को न दिखा था। सोवियत रूस की आर्थिक और सैन्य प्रगति से उस की बढ़ती सत्वहीनता छिपी रही थी।

हमारी व्यवस्था का हाल यूरोपीय लोकतंत्रों से तुलना करके भी समझ सकते हैं। भारत में राजनीतिक दलों, नेताओं का व्यापक दबदबा, उन्हें राजकीय संसाधनों से तरह-तरह की और आजीवन सुविधाएं, आदि – यह सब पश्चिमी लोकतंत्रों में कतई नहीं है। न हमारे संविधान निर्माताओं ने ऐसी कोई व्यवस्था दी थी।

अतः हमारे चुनाव आयोग को विश्व के प्रतिष्ठित लोकतंत्रों के चलन का आकलन भी करना चाहिए। तब स्पष्ट दिखेगा कि यहाँ राजनीतिक दलों ने कितने अनुचित विशेषाधिकार झटक लिये हैं। जो न केवल सामान्य न्याय, बल्कि भारतीय संविधान की भावना के भी विरुद्ध भी है। ऊपर दिए गये सभी सुझाव व्यवहारिक हैं। चुनाव आयोग उन पर सम्यक विचार करके पूर्णतः न्यायोचित व्यवस्था कर सकता है। जो सभी दलों के लिए समान हो। यही उस का संवैधानिक कर्तव्य है।

By शंकर शरण

हिन्दी लेखक और स्तंभकार। राजनीति शास्त्र प्रोफेसर। कई पुस्तकें प्रकाशित, जिन में कुछ महत्वपूर्ण हैं: 'भारत पर कार्ल मार्क्स और मार्क्सवादी इतिहासलेखन', 'गाँधी अहिंसा और राजनीति', 'इस्लाम और कम्युनिज्म: तीन चेतावनियाँ', और 'संघ परिवार की राजनीति: एक हिन्दू आलोचना'।

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