मैंने इस महीने का दूसरा सप्ताह लद्दाख में गुज़ारा। लद्दाख मैं कई बार गया हूं। मगर इस बार के लद्दाख ने मुझे नया नज़रिया दिया। लद्दाख के दिन इन दिनों गुनगुने हैं। लद्दाख की रातें अभी बर्फ़ीली नहीं वासंती हैं। लेकिन इस गुनगुनाहट और वासंतीपन के होते हुए भी लद्दाख उदास दिखाई देता है। स्पंदन नहीं है। यांत्रिक लगता है। लोगों के भीतर दिल धड़क रहे हैं। लोग गर्माहट से भरे लगते हैं। लेकिन मुझे दिल की यह धड़कन ‘पेसमेकरी’ लगी और लोगों में गर्माहट ओढ़ी हुई नज़र आई। भीतर से वे सब ग़मगीन न भी कहूं तो ‘जाहि विध राखे राम’ के लाचार भाव के झंखाड़ों में उलझे दिखाई देते हैं। जम्मू कश्मीर से अलग हो कर केंद्र शासित क्षेत्र बनने की स्वायत्तता उन्हें ख़ुशी दे रही है। मगर लद्दाखी युवाओं के अच्छे भविष्य के फ़िक्र की सिलवटें उन के माथे पर हैं।
लद्दाख की राजधानी लेह अब लेह नहीं है। उसके कुछ कोने लेह हैं। बाकी सब कस्बे से महानगर बनने की मंज़िल हासिल करने की होड़ से सराबोर हैं। समतल होते पहाड़, उन पर होता बेसब्रा निर्माण, स्थानीयता को धता दिखाते निर्लज्ज हालात, शहरी एकरूपता के वैश्विक नक्शे को गले लगाती बेहया ख़्वाहिशों का दबाव और इस सब के बीच अपना ‘स्व’ बचाए रखने की कुलबुलाहट। यह आज का लेह है। यह आज का लद्दाख है।
लद्दख और कश्मीर जुडवां बहनें हैं, जो एक-दूसरे से 136 कोस दूर रहती हैं। पहाड़ दोनों तरफ हैं। कश्मीर में भी। लद्दाख में भी। कश्मीर में हरे-भरे। लद्दाख में रेगिस्तानी। एक तरफ आमंत्रण भाव से पगे हुए दूसरी तरफ निस्पृह। एक तरफ रंग रंगीले दूसरी तरफ भूरे सूखे। लेकिन अगर कुदरत ने कश्मीर को गुलमर्ग दिया है तो लद्दाख को भी ऐसे शुष्क़ मटमैले ढूहों से नवाज़ा है कि उस के भूदृश्य पर मुग्ध होने के लिए आप को सिर्फ़ ज़रा नम निग़ाह चाहिए। प्रकृति ने अगर कश्मीर को डल झील दी है तो लद्दाख को उस की दादी-अम्मा पैंगोंग की सौगात दी है। सूरज की किरणों के साथ अलग-अलग रंग बिखेरता पैंगोंग का पानी किसी को भी पानी-पानी कर देने की दैवीय शक्ति से अभिमंत्रित है।
जो कश्मीर जाते हैं, उन्हें लद्दाख भी ज़रूर जाना चाहिए। सूखे पर्वतों का, पर्वतीय रेगिस्तान का, भी अपना एक सौंदर्य है, अपनी एक करुणा है, अपना एक मर्म है। सब कुछ देवदार और चिनार के पेड़ों, फूलों की घाटी और डल के जल में ही जज़्ब मत समझिए। सिंधु नदी के किनारे-किनारे बसी सभ्यता और कदम-ब-कदम तरल होती जाती हवा में अपनी जड़ें जमाए मौजूद हज़ारों बरस पुराने बीसियों गोंपा भी अपने गर्भ में ग़ज़ब का इतिहास समेटे हुए हैं।
चीन और पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाले एक लाख वर्ग किलोमीटर से कुछ ज़्यादा वाले हिस्से को छोड़ कर लद्दाख का जो क़रीब 60 हज़ार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र भारत के पास है, उस में 113 गांव बसे हैं। इन में से एक गांव को छोड़ कर बाकी 112 गांवों में लोग रहते हैं। लद्दाख की कुल आबादी तक़रीबन साढ़े तीन लाख है। करगिल और लेह ज़िलों में डेढ़-डेढ़, पौने दो-दो लाख लोग रहते हैं। इन में से 75 प्रतिशत गांवों में रहते हैं। लद्दाख की आबादी में सवा 77 प्रतिशत बौद्ध हैं, 14 प्रतिशत मुस्लिम और सवा आठ प्रतिशत हिंदू।
2019 में लद्दाख के अलग केंद्रशासित प्रदेश बनने के बाद पिछले साल लद्दाख स्वायत्त पर्वतीय विकास परिषद की 26 सीटों के लिए चुनाव हुए थे। इस चुनाव में ‘इंडिया’ समूह को 22 और भारतीय जनता पार्टी को 2 सीटों पर जीत मिली। दो निर्दलीय विजयी हुए। ‘इंडिया’ समूह से जीते पार्षदों में 12 नेशनल कांफ्रेंस के हैं और 10 कांग्रेस के। 26 निर्वाचन क्षेत्रों में से 23 मुस्लिम-बहुल हैं और तीन बौद्ध-बहुल। इस चुनाव में 78 प्रतिशत मतदान हुआ था। कुल मतदाता 1 लाख 84 हज़ार 803 थे। 76 हज़ार 680 वोट पड़े थे। इन में से 27 हज़ार 303 कांग्रेस को, 23 हज़ार 578 नेशनल कांफ्रेंस को और 10 हज़ार 934 भाजपा को मिले थे।
2024 के लोकसभा चुनाव में लद्दाख से 48 प्रतिशत वोट ले कर निर्दलीय प्रत्याशी मुहम्मद हनीफा जीते हैं। 2014 और 2019 में यहां से भाजपा के दो अलग-अलग प्रत्याशियों को जीत हासिल हुई थी। 2019 में जीते भाजपा के सांसद जामयांग त्सेरिंग नामग्याल 2024 में बाग़ी हो कर ‘इंडिया’ समूह से लड़े, मगर 37 हज़ार वोट ही हासिल कर पाए। भाजपा का प्रत्याशी भी महज़ 32 हज़ार वोट ही पा सका। निर्दलीय उम्मीदवार को 65 हज़ार से ज़्यादा वोट मिले थे। लद्दाख की राजधानी लेह में निर्दलीय प्रत्याशी हनीफा का दफ़्तर अब तक उन के घर से चलता था। लेह से मेरे दिल्ली लौटने के एक दिन बाद वे कांग्रेस में शामिल हो गए। कांग्रेस का ज़िला कार्यालय लेह के बाज़ार में एक चौराहे के कोने पर टिमटिमाता-सा नज़र आता है। सो, अब उन से संपर्क का एक ठिकाना वह भी हो जाएगा। मगर इस के बरक्स लद्दाख में कोई ज़्यादा जनाधार न होते हुए भी भाजपा का तिमंज़िला बुलंद दफ़्तर लेह की मुख्य सड़क के एक टीले पर चमचमाता दिखाई देता है।
कश्मीर की ही तरह लद्दाख की अर्थव्यवस्था भी पर्यटन पर निर्भर है। कुछ कारोबार भारतीय सेना से जुड़े कामकाज के ज़रिए भी होता है। मोटे अंदाज़ के मुताबिक़ लद्दाख में डेढ़ लाख के आसपास सैनिक तैनात हैं। कश्मीर में भी सवा लाख के आसपास सैनिक मौजूद हैं। कश्मीर और लद्दाख में पर्यटन के आयाम इसलिए अलग-अलग हैं कि, मुझे तो सौभाग्य से इस बार भी नहीं पड़ी, मगर लद्दाख जाने वालों में से ज़्यादातर को लेह पहुंचने के बाद दो दिन अपने शरीर का, समुद्रतल से वहां की ऊंचाई के मुताबिक, अनुकूलन करने की ज़रूरत पड़ती है। लेह 11 हज़ार 562 फुट की ऊंचाई पर है। मैदानी इलाक़ों की पांच-आठ सौ फुट की ऊंचाई से दो-एक घंटे की उड़ान के बाद एकदम साढ़े ग्यारह हज़ार फुट पर पहुंचने से आधों की तबीयत खराब होने लगती है। लद्दाख की सब से ऊंची जगह 25 हज़ार 800 फुट पर साल्तोरो है। मैं वहां तो कभी नहीं गया, मगर 17 हज़ार 688 फुट पर स्थित चांगला दर्रे से कई बार गुज़रा हूं। इतनी ऊंचाई की दुश्वारियां वहां जा कर ही महसूस की जा सकती हैं।
लद्दाख के पहाड़ शांत हैं। कश्मीर में भी, बावजूद बहुत-सी ताज़ा आतंकी घटनाओं के, मोटे तौर पर शांति है। लेह के बाज़ार में इस बार चहल-पहल ज़रा हलकी है। पर्यटकों की कमी के कारण लद्दाखियों की मुस्कान थोड़ी फीकी है। मैं ने वज़ह जानने की कोशिश की तो उदासी भरा जो जवाब मिला, वह तो कभी सोचा ही नहीं था। ‘साहब, कश्मीर में अब अमन है तो लोग वहां जाते हैं यहां क्यों आएंगेट’ इस कथन में छुपी मायूसी जायज़ है।
वैसे ही पर्यटकों के मामले में कश्मीर और लद्दाख का कोई मुक़ाबला नहीं है। कश्मीर हर साल एक करोड़ से ज़्यादा पर्यटक पहुंचते हैं और लद्दाख जाने वालों का आंकड़ा अभी दस लाख तक भी कभी नहीं पहुंचा है। तो जब हम जुड़वां बहनों में से एक के सुख-शांति से रहने का उत्सव मना रहे हों तो हमें दूसरी के सुकून के साधन भी खोजने चाहिए। लद्दाख में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए अतिरिक्त क़दम उठाने की सचमुच संजीदा ज़रूरत है। शुभस्य शीघ्रम।
(लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया और ग्लोबल इंडिया इनवेस्टिगेटर के संपादक हैं।)