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करोड़ों लोगों की पीड़ा, यंत्रणा की बीती का दस्तावेज

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नाजी दस्ते केवल यहूदियों का खात्मा करते थे, और अपने संदिग्ध विरोधियों को। पर यदि किसी गैर-यहूदी बंदी के विरुद्ध वस्तुत: कोई प्रमाण नहीं मिलता तो उसे छोड़ दिया जाता था। यानी, नाजी जर्मनी में आम जर्मनों पर कोई आंतक न था। गैर-राजनीतिक लोग बेखटके जीते रहे थे। यह सोवियत संघ में बिलकुल नहीं था। जिस व्यक्ति को पकड़ लिया गया, उसे छोड़ने का कोई सवाल ही न था।.. पूरी सोवियत व्यवस्था, कम्युनिस्ट पार्टी का पूर्णत: विमानवीयकरण हो गया था। किसी मानवीय मूल्य के लिए उस में स्थान नहीं था।

गुलाग आर्किपेलाग की विरासत -3

‘गुलाग आर्किपेलाग’ के आरंभिक सैकड़ों पन्नों में किसी की गिरफ्तारी से लेकर उस के इंट्रोगेशन के असंख्य विवरण हैं। सब के सब नाम, स्थान, आदि के साथ। वह सब सोल्झेनित्सिन को 1962 के बाद सैकड़ों कैदियों और पूर्व कैदियों ने अपनी-अपनी आपबीती और आँखों‌-देखी बताई, पहुँचाई थी। जब सोल्झेनित्सिन अपनी पहली रचना ‘ईवान डेनिसोविच के जीवन का एक दिन’ छपने से प्रसिद्ध हो चुके थे। उन्होंने अपने और दूसरे कैदियों के अनुभव से ही लिखा था ”विश्व के उतने केंद्र होते हैं जितने लोग विश्व में मौजूद हैं”। हर‌ व्यक्ति अपने को केंद्र में रखकर ही सारी दुनिया का सुख-दुख देखता है। इस से भिन्न होना अपवाद ही है।

इसीलिए, जब तक आप गिरफ्तार नहीं होते, तब तक आप सपने में भी नहीं सोच सकते कि सोवियत ‘नीली टोपी वालों’ की गिरफ्त में आ चुके व्यक्ति की दशा क्या हो सकती है। ‘गुलाग…’ का पहला अध्याय ही है: “अरेस्ट”। जहाँ से किसी बंदी की वह यात्रा शुरू होती थी जिस का अंत लाखों रूसियों के लिए कुत्ते की मौत जैसा होता रहा। चार दशकों से भी अधिक समय तक। जो व्यक्ति एक बार गायब हो गया, यानी रात में खुफिया पुलिस के लोग उसे उठा ले गये, फिर पास-पड़ोस के लोग समझ जाते थे कि उस की कहानी खत्म हुई। उस का परिवार भी तत्काल अछूत हो जाता था, क्योंकि सहानुभूति दिखाने का मतलब था उसी परिणति का सीधा खतरा। गिरफ्तार हुए व्यक्तियों की पत्नियाँ अक्सर  तुरंत सरकार से तलाक की अर्जी दे देती थीं ताकि अपने और अपने बच्चे को बचाएं। सो, सिद्धांत में समाजवाद लोगों को इकट्ठा और निकट लाता है। वास्तव में सोवियत समाजवाद में हर व्यक्ति पूरी तरह अकेला, निस्सहाय होता था!

ऐसा व्यापक दमन, अखंड संदेह, और क्रूरता किसलिए थी? मनमानी, थोक गिरफ्तारियाँ, लंबी-लंबी सजाएं, पकड़े गये व्यक्ति को किसी हाल में निर्दोष न मानना, सब से अपराध जबरन कबूलवा कर लगभग निश्चित मौत की दिशा में भेजने में विराट राजकीय ऊर्जा और संसाधन खर्च करने की क्या तुक थी? 1930  के दशक में ही इतनी बड़ी संख्या में खुद सर्वोच्च सरकारी पदों पर रहे लोगों – सरकार के मंत्री, पार्टी की सर्वोच्च पोलित ब्यूरो के सदस्य, सांसद, सैनिक जेनरल, राजदूत, बड़े वैज्ञानिक, उच्च स्तरीय पार्टी सचिव, पार्टी अखबारों के संपादक, आदि – को ‘विदेशी एजेंट’ होना कबूलवा कर गोली मारी गई कि कोई भी समझ सकता है कि यदि किसी सरकार में इतनी बड़ी संख्या में

उच्च पदस्थ लोग भीतरघाती हों, तो वैसी सरकार का बचना असंभव था। वस्तुत: यह कम्युनिज्म की विडंबनाओं में एक है कि उच्च पदों पर रहे वे अधिकांश बड़े कम्युनिस्ट झूठे ही ‘विदेशी एजेंट’ होना स्वीकार करते हुए भी समझते थे कि इस से वे पार्टी और देश की रक्षा और सेवा कर रहे हैं! पर यह पागलपन एक भयावह आर्थिक बर्बादी भी थी। देश भर में खुफिया पुलिस, इंट्रोगेशन, जेल, ट्रांसपोर्ट, सुरक्षाकर्मी, कंटीले तार, वाच-टावर, गार्ड, आदि के भारी इंतजाम पर करोड़ों रूबल सालाना अनुत्पादक खर्च की इस के सिवा कोई कैफियत न थी, कि इस के बिना कम्युनिस्ट सत्ता अपने को सदैव असुरक्षित महसूस करती थी। अपनी ही जनता से, बल्कि अपनी ही एकाधिकारी पार्टी के हजारों सदस्यों से भी! क्योंकि सत्ता पर कब्जा करने के जल्द ही बाद उसे आभास हो गया कि जिन किताबी कल्पनाओं से सर्वहारा की यानी कम्युनिस्ट तानाशाही द्वारा शोषणविहीन, खुशहाल समाज बना देने का उन का दावा था उस का रंचमात्र भी वस्तुत: बनाने की कोई विधि उन के पास नहीं है। अतः जबरन और निर्ममता पूर्वक सत्ता पर कब्जा किए रखने के सिवा उन्हें कभी कोई उपाय समझ नहीं आया।

यहाँ हिटलरी नाजियों से भी तुलना रोचक है। नाजी दस्ते केवल यहूदियों का खात्मा करते थे, और अपने संदिग्ध विरोधियों को। पर यदि किसी गैर-यहूदी बंदी के विरुद्ध वस्तुत: कोई प्रमाण नहीं मिलता तो उसे छोड़ दिया जाता था। यानी, नाजी जर्मनी में आम जर्मनों पर कोई आंतक न था। गैर-राजनीतिक लोग बेखटके जीते रहे थे। यह सोवियत संघ में बिलकुल नहीं था। जिस व्यक्ति को पकड़ लिया गया, उसे छोड़ने का कोई सवाल ही न था। संपूर्ण देश‌ में, सभी पर सत्ता का आतंक रखना अपने आप में एक लक्ष्य था। फिर, हर व्यक्ति रूसी या गैर-रूसी, पार्टी सदस्य या गैर-सदस्य, उच्च पदस्थ या निम्नतम मजदूर, जिस पर भी किसी समतुल्य अधिकारी की नजर टेढ़ी हो गई, वह पकड़ा और खत्म किया जा सकता था। कोई भी अपने को आजीवन सुरक्षित महसूस नहीं कर सकता था, चाहे वह खुद पार्टी सचिव और शासक वर्ग का उच्च अधिकारी क्यों न हो। यही सोवियत सत्ता थी, कम से कम १९५६ तक। बाद में भी इस की आँच काफी घटी जरूर थी, खत्म नहीं हुई थी।

किसी निर्दोष बंदी व्यक्ति को यंत्रणा देना भर ही क्रूरता नहीं थी। पूरी सोवियत व्यवस्था, कम्युनिस्ट पार्टी का पूर्णत: विमानवीयकरण हो गया था। किसी मानवीय मूल्य के लिए उस में स्थान नहीं था। समाजवाद, फिर पार्टी, फिर पार्टी नेता, होते हुए सर्वोच्च पार्टी नेता तक विमानवीयकरण का एक विचित्र सोपान क्रम था। कि उन के समक्ष हर मानवीय, नैतिक, या कानूनी बिन्दु महत्वहीन थे। पार्टी और समाजवाद का हित, दोनों अमूर्त धारणाएं ही अपने-आप में अकाट्य दलील थी, जिसे सामने रखकर कोई अधिकारी अपने क्षेत्राधिकार में किसी को भी पकड़ सकता था। आम लोगों में निष्फल क्रोध और विवशता के सिवा कोई भावना न बचे, ऐसी व्यवस्था बन गई थी। जॉर्ज आरवेल ने इस बात को समझा था, जो उन की सुप्रसिद्ध रचनाओं ‘एनिमल फार्म’ तथा ‘1984’ में और विस्तार से व्यक्त हुआ है।‌ सदैव भय, धोखा, दुष्चिन्ता, दूसरे को कुचलने और अपनी बारी में खुद कुचले जाने की एक बंद दुनिया। यह सोवियत समाजवाद का आम सत्य था।

बहरहाल, दो हजार पन्नों में सैकड़ों लोगों के विवरण और अपने भी दशकों के अवलोकनों से सोल्झेनित्सिन ने विकट परिश्रम से उस सत्य को प्रमाणिक रूप से दुनिया के समक्ष रखा था। जिसे स्वयं उन्होंने मानो किसी तालाब की एक बूँद जितना ही सामने ला सकने जैसा बताया था। यानी एक झलक भर। करोड़ों लोगों की पीड़ा, यंत्रणा, हत्या, अकाल मोतों में से केवल कुछ दर्जनों या सौ-एक लोगों की बीती को सामने ला सकना। जो उन्हें मिल सकी, जितना वे स्वयं देख, भोग, समझ सके थे। उतना ही। निर्द्वंद और बिना क्रोध, आक्रोश दिखाए उन सब को लिख देना। केवल ठोस विवरण और अनुभूतियाँ। दूसरे भुक्तभोगियों की और अपनी। इसी क्रम में संबंधित राजकीय व्यवस्था और समाज की स्थिति का स्वत: होता चित्रण। यही ‘गुलाग आर्किपेलाग…’  का कथ्य है।

पर जैसा अमेरिकी प्रोफेसर गैरी साउल मॉरसन ने नोट किया है, कि ‘गुलाग…’ में इतनी विशाल मात्रा में जुल्म, उत्पीड़न, विवशता, हताशा, विमानवीयता के विवरण कहीं दुहराव भरे, बोझिल, या बोरिंग उबाऊ नहीं लगते। कोई सहृदय पाठक पन्ने दर पन्ने, अध्याय दर अध्याय को नयी कथा जैसा, निरंतर भिन्न वेदना, और संवेदना के साथ पढ़ता चला जाता है। इसी अर्थ में यह ग्रंथ इतिहास और राजनीति की पुस्तक होकर भी अपने स्वरूप में ‘साहित्यिक अन्वेषण’ है, जो पुस्तक के उप-शीर्षक में सोल्झेनित्सिन ने सटीक ही जोड़ा था। इस का संपूर्ण टेक्स्ट लगातार रोचक बना रहता है, कि अमुक व्यक्ति का या अमुक प्रसंग में आगे क्या हुआ? (साभार-बीबीसी.कॉम)

By शंकर शरण

हिन्दी लेखक और स्तंभकार। राजनीति शास्त्र प्रोफेसर। कई पुस्तकें प्रकाशित, जिन में कुछ महत्वपूर्ण हैं: 'भारत पर कार्ल मार्क्स और मार्क्सवादी इतिहासलेखन', 'गाँधी अहिंसा और राजनीति', 'इस्लाम और कम्युनिज्म: तीन चेतावनियाँ', और 'संघ परिवार की राजनीति: एक हिन्दू आलोचना'।

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