स्वामी दयानन्द के प्रबल समर्थक लाजपत राय ने शिक्षा के प्रसार के लिए कार्य किया और दयानन्द एंग्लो वैदिक (डीएवी) स्कूलों के प्रसार में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने भारतीय उद्यमों को आर्थिक सहायता प्रदान करने के उद्देश्य से 1897 में पंजाब नेशनल बैंक की स्थापना की। स्वामी दयानन्द के साथ मिलकर उन्होंने आर्य समाज को पंजाब में लोकप्रिय बनाया था। आर्य समाज के सक्रिय कार्यकर्ता होने के नाते उन्होंने दयानन्द कॉलेज के लिए कोष इकट्ठा करने का काम भी किया।
17 नवबंर- लाला लाजपत राय बलिदान दिवस
स्वतंत्रता सेनानी लाला लाजपत राय (28 जनवरी 1865- 17 नवम्बर 1928) आर्य समाज के भी प्रबल समर्थक थे। वे आर्य समाज से जुड़कर सामाजिक सुधार आंदोलनों में भी सक्रिय रूप से शामिल थे। 28 जनवरी 1865 ईस्वी को पंजाब के लुधियाना ज़िले के जगराव क़स्बा निवासी अग्रवाल वैश्य लाला राधाकृष्ण के घर माता गुलाब देवी की कोख से उत्पन्न मगर अपने ननिहाल पंजाब के फरीदपुर जिले के ग्राम ढुंढिके में जन्मे लाला लाजपत राय ने स्वतंत्रता संग्राम के साथ ही समाज सुधार के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके पिता राधाकृष्ण उर्दू और फारसी के शिक्षक थे, जिन्हें कुछ विद्वान अग्रवाल वैश्य तो कुछ ब्राह्मण मानते हैं।
राधाकृष्ण की इस्लामी मन्तव्यों में भी गहरी आस्था थी। वे मुसलमानी धार्मिक अनुष्ठानों का भी नियमित रूप से पालन किया करते थे। नमाज़ पढ़ना और रमज़ान के महीने में रोज़ा रखना उनकी जीवनचर्याओं में शामिल था, फिर भी वे सच्चे धर्मजिज्ञासु थे। अपने पुत्र लाला लाजपत राय के आर्य समाजी बन जाने का भी गहरा प्रभाव उन पर पड़ा, और उनकी रुचि वेद के दार्शनिक सिद्धान्त त्रैतवाद को समझने की ओर हो गई। पिता की इस जिज्ञासु प्रवृत्ति का प्रभाव उनके पुत्र लाजपत राय पर भी पड़ा था। लाजपत राय के पिता वैश्य थे, किन्तु उनकी माता सिख परिवार से थीं। दोनों के धार्मिक विचार भिन्न-भिन्न थे। इनकी माता एक साधारण महिला थीं। वे एक हिन्दू नारी की भांति ही अपने पति की सेवा करती थीं।
उम्र के पांचवें वर्ष में शिक्षा आरंभ कर लाजपत राय ने 1880 में कलकता तथा पंजाब विश्व विद्यालय से एंट्रेंस की परीक्षा एक वर्ष में उत्तीर्ण कर 1882 में गर्वमेंट कॉलेज से एफ ए और 1885 में मुखतारी (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात रोहतक और फिर 1886 से हिसार में वकालत प्रारम्भ की। एक सफल वकील के रूप में 1892 तक वे यहीं रहे, और इसी वर्ष लाहौर आये। तब से लाहौर ही उनकी सार्वजनिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया। इसी समय वे आर्य समाज के सम्पर्क में आये और उसके सदस्य बन गये। स्वामी दयानन्द और आर्य समाज के कई विद्वानों के सम्पर्क में आने के कारण उनमें उग्र राष्ट्रीयता की भावना जागृत हुई।
स्वामी दयानन्द के प्रबल समर्थक लाजपत राय ने शिक्षा के प्रसार के लिए कार्य किया और दयानन्द एंग्लो वैदिक (डीएवी) स्कूलों के प्रसार में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने भारतीय उद्यमों को आर्थिक सहायता प्रदान करने के उद्देश्य से 1897 में पंजाब नेशनल बैंक की स्थापना की। 1906 में उन्होंने लक्ष्मी बीमा कम्पनी की भी स्थापना की। सन 1882 के अंतिम दिनों में मात्र सत्रह वर्ष की आयु में लाजपत राय का आर्य समाज से पहला साक्षात्कार आर्य समाज के लाहौर के वार्षिक उत्सव में सम्मिलित होने पर हो चुका था। इस कार्यक्रम में उनके शामिल होने पर आयोजक अत्यंत खुश थे, उन्होंने समारोह के मुख्य कार्यक्रम लाला मदनसिंह के व्याख्यान के पश्चात पण्डित गुरुदत्त और लाजपत राय को मंच पर खड़ा कर दिया और दोनों से व्याख्यान दिलवाये। उनके व्याख्यान सुन लोग बहुत खुश हुए और खूब तालियाँ बजाई।
इस प्रकार लाला लाजपत राय का आर्य समाज में प्रवेश हुआ। इससे पूर्व ही समाज के सभासद बनने के प्रार्थना-पत्र पर उनसे हस्ताक्षर करवा लिए गए थे। लाला साईदास को लाजपत राय, स्वामी श्रद्धानंद सहित अनेक होनहार नवयुवकों को उस समय आर्य समाज से जोड़ने का श्रेय प्राप्त है। 30 अक्टूबर 1883 को अजमेर में स्वामी दयानन्द का देहान्त हो जाने के बाद 9 नवम्बर 1883 को लाहौर में आयोजित आर्य समाज की एक शोक सभा के अन्त में स्वामीजी की स्मृति में वैदिक साहित्य, संस्कृति तथा हिन्दी की उच्च शिक्षा के साथ-साथ अंग्रेज़ी और पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान में भी छात्रों को दक्षता प्राप्त कराने के उद्देश्य से महाविद्यालय की स्थापना करने का निर्णय लिया।
स्वामी दयानन्द के साथ मिलकर उन्होंने आर्य समाज को पंजाब में लोकप्रिय बनाया था। आर्य समाज के सक्रिय कार्यकर्ता होने के नाते उन्होंने दयानन्द कॉलेज के लिए कोष इकट्ठा करने का काम भी किया। दयानन्द एंग्लो वैदिक कॉलेज पहले लाहौर में स्थापित किया था। लाला हंसराज के साथ दयानन्द एंग्लो वैदिक विद्यालयों का प्रसार भी लाजपत राय ने किया। उनकी आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द एवं उनके कार्यों के प्रति अनन्य निष्ठा थी। स्वामी दयानन्द के देहावसान के बाद उन्होंने आर्य समाज के कार्यों को पूरा करने के लिए स्वयं को समर्पित कर दिया था। हिन्दू धर्म में व्याप्त कुरीतियों के विरुद्ध संघर्ष, प्राचीन और आधुनिक शिक्षा पद्धति में समन्वय, हिन्दी भाषा की श्रेष्ठता और स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए आर-पार की लड़ाई आर्य समाज से मिले संस्कारों के ही परिणाम थे।
1888 में 23 वर्ष की आयु में उन्होंने लाहौर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक अधिवेशन में भाग लिया और इसके बाद से ही वह पूरी तरह से स्वतंत्रता संग्राम में जुट गए। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गरम दल के प्रमुख नेताओं में लाला लाजपत राय भी शामिल थे। भारतीय स्वाधीनता इतिहास में बाल गंगाधर तिलक और बिपिन चंद्र पाल के साथ मिलकर इस त्रिमूर्ति को लाल-बाल-पाल के नाम से जाना जाता है। गरम दल का मानना था कि अंग्रेजों के विरुद्ध कठोर कदम उठाना चाहिए। उन्होंने स्वदेशी आंदोलन और असहयोग आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। स्वदेशी आंदोलन के दौरान उन्होंने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और भारतीय उत्पादों के उपयोग को बढ़ावा दिया। असहयोग आंदोलन के दौरान उन्होंने लोगों को सरकारी नौकरियों, अदालतों और शैक्षणिक संस्थानों का बहिष्कार करने के लिए प्रेरित किया। लालाजी ने ही सर्वप्रथम भारत में पूर्ण स्वराज की मांग की मांग की।
उनका मानना था कि भारत को पूर्ण स्वतंत्रता ही हासिल करनी चाहिए। लाजपत राय छद्म नाम से लेखन कार्य किया करते थे। अपने लेखों में कई बार जन गण नामक उपनाम का इस्तेमाल करते थे। कानून की शिक्षा प्राप्ति के समय ही वे अंग्रेजी भाषा में इतने पारंगत हो गए थे कि उन्होंने अंग्रेजों को ही उनकी भाषा में चुनौती दी। वे सिर्फ मंचों से स्वदेशी का प्रचार नहीं करते थे, बल्कि वे स्वयं भी विदेशी वस्त्रों के स्थान पर खादी पहनते थे और लोगों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित किया करते थे। उनकी शारीरिक बनावट काफी मजबूत थी। उनके गठीले शरीर और गंभीर मुद्रा को देखकर विदेशी भी उनसे दूर ही रहना पसंद करते थे। क्रिकेट के शुरुआती दौर में भी लाजपत राय को इस खेल में काफी रुचि थी। वह कभी-कभी क्रिकेट मैच देखने भी जाते थे। वे एक सशक्त वक्ता होने के साथ-साथ एक लेखक और पत्रकार भी थे।
उन्होंने कई समाचार पत्रों और पत्रिकाओं का सम्पादन किया और राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े विषयों पर लेख लिखे। उनकी प्रमुख रचनाएं- पंजाब केसरी, यंग इंण्डिया, भारत का इंग्लैंड पर ऋण, भारत के लिए आत्मनिर्णय, तरुण भारत हैं। 1916 में उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्रा की और वहां भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बारे में जागरूकता फैलाई। लालाजी ने अमरीका के न्यूयॉर्क शहर में अक्टूबर 1917 में इंडियन होमरूल लीग ऑफ़ अमेरिका नाम से एक संगठन की स्थापना की थी। 20 फ़रवरी 1920 को जब वे भारत लौटे, उस समय तक वे देशवासियों के लिए एक नायक बन चुके थे। 1928 में ब्रिटिश सरकार के द्वारा भारत के संविधान सुधारों की जांच के लिए साइमन कमीशन का गठन किया गया। इस कमीशन में एक भी भारतीय सदस्य नहीं होने के कारण लाजपत राय ने इसका पुरजोर विरोध किया। 30 अक्टूबर 1928 को लाहौर में हुए साइमन कमीशन के विरोध प्रदर्शन के दौरान ब्रिटिश पुलिस ने लाठीचार्ज किया। इस विरोध प्रदर्श में लालाजी को गंभीर चोटें आईं और उन्हीं चोटों के कारण 17 नवम्बर 1928 को उनका निधन हो गया।
लाला लाजपत राय की मृत्यु से सारा देश उत्तेजित हो उठा और चंद्रशेखर आज़ाद, भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव व अन्य क्रांतिकारियों ने लालाजी की मौत का बदला लेने का निर्णय किया। इन देशभक्तों ने लाजपत राय के निधन के ठीक एक महीने बाद अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली और 17 दिसम्बर 1928 को ब्रिटिश पुलिस के अफ़सर सांडर्स को गोली से उड़ा दिया। लाला लाजपत राय की मौत के बदले सांडर्स की हत्या के मामले में ही राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह को फांसी की सज़ा सुनाई गई।