सारे फसाद की जड़ यह डबल रोटी ही है। कुछ वर्ष पूर्व दक्षिणी आस्ट्रेलिया की सरकार ने बर्गर व पिजा जैसे आधुनिक खान-पान के विज्ञापनों के टेलीविजन पर प्रसारण पर रोक लगा दी थी। अगर हम डबलरोटी नहीं खाएंगे तो दांत सड़ेंगे ही नहीं और अगर दांत नहीं सड़ेंगे तो भला दंत चिकित्सक भूखे नहीं मर जाएंगे? इस तरह अपनी आंतों और अपने दांतों का नुकसान करके हम बनाने वालों को, डाक्टरों को, अस्पतालों को और दवा कंपनियों को अपनी मेहनत का पैसा बांटना चाहते हैं तो हमें कौन रोक सकता है?
देश में उपलब्ध खाद्य पदार्थों में मिलावट और उनकी लगातार गिरती गुणवत्ता के कारण जागरूक और जानकार लोगों द्वारा अपने और बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर चिंता व्यक्त की जा रही है। कई सामाजिक संगठन आधुनिक खाद्य पदार्थों के देश में बढ़ते दुष्प्रभाव को लेकर जागृति पैदा करने में जुटे हैं। बर्गर हो या पिजा का बेस, सैंडविच हो या पावभाजी सबमें मैदा की डबल रोटी के ही विभिन्न रूपों का इस्तेमाल होता है। सारे फसाद की जड़ यह डबल रोटी ही है।
कुछ वर्ष पूर्व दक्षिणी आस्ट्रेलिया की सरकार ने बर्गर व पिजा जैसे आधुनिक खान-पान के विज्ञापनों के टेलीविजन पर प्रसारण पर रोक लगा दी थी। ग़ौरतलब है कि शीतल पेय और वो सारे आधुनिक व्यंजन जिनमें वसा, चीनी और नमक की मात्रा ज्यादा होती है बच्चों के लिए हानिकारक है। उनकी सरकार यह सुनिश्चित किया कि वहां के स्कूलों की कैंटीनों में बच्चों को केवल स्वास्थ्यवर्धक खाद्य पदार्थ ही मिलें।
भारत का शायद ही कोई शहर होगा जहां आम आदमी की सुबह डबलरोटी के साथ शुरू न होती हो। भारत में जैसे चाय की लत डाल कर करोड़ों रूपए के मुनाफे कमाए जा रहे हैं लोगों की सेहत से खिलवाड़ किया जा रहा है वैसे ही डबलरोटी को सुविधाजनक बता कर आज हर घर में जबरन घुसा दिया गया है। जाने-अनजाने सब उसकी आदत के गुलाम बन गए हैं। खासकर शहरवासियों को बनी बनई रोटी यानी डबलरोटी से काफी लगाव है।
डबलरोटी बनाने के लिए बारीक आटा या मैदे का इस्तेमाल किया जाता है। इसे बनाने की प्रक्रिया के दौरान आटे अथवा मैदे में उपस्थित सभी विटामिन और खनिज पदार्थ नष्ट हो जाते है। डबलरोटी स्वाद में तो अच्छी लगती है लेकिन रेशे रहित होने के कारण दांतों के लिए अत्यंत नुकसान देह है। यही नहीं यह हमारी पाचन प्रणाली के लिए भी हानिकारक है।
गेहूं के साबुत दाने में कार्बोहाईड्रेट्स के अलावा विटामिन और खनिज पदार्थ भी होते हैं। गेहूं विटामिन मध्यभाग के बाहरी हिस्से में पाया जाता है। मैदा बनाने की प्रक्रिया में कुछ कार्बोहाईड्रेट्स तो बच जाते हैं लेकिन विटामिन पूर्ण रूप से खत्म हो जाते है। इसी प्रकार गेहूं के दाने के बाहरी हिस्से में जिंक और अंदरूनी हिस्से में कौडमियम नामक तत्व पाए जाते हैं। मैदा बनाने के कारण जिंक नष्ट हो जाता है और कौडियम रह जाता है। इस तरह जितने भी जरूरी और लाभदायक तत्व हैं वह नष्ट हो जाते है और दूषित तत्व रह जाते हैं आपकी चहेती ब्रेड के लिए।
क्या कभी सोचा कि डबलरोटी ज्यादा समय तक क्यों रह पाती है? क्योंकि इसमें लगे आटे में पौष्टिक तेल तक नष्ट हो जाता है। यही नहीं इसमें किसी प्रकार के रेशे भी नहीं बचते। जिसका शरीर को नुकसान उठाना पड़ता है। बिना रेशे के खाद्य पदार्थ दांतों में चिपक जाते है। जिससे दांत सड़ सकते हैं। रेशे रहित भोजन कब्ज का भी कारण बनता है। आप अपने इलाके में एक सर्वेक्षण कर लें, तो पाएंगे कि ज्यादातर उन लोगों को ही कब्ज होता है, जो डबलरोटी खाते हैं। उन्हें नहीं जो ताजी रोटी खाते हैं।
लेकिन चीनी, टेलीविजन और केबिल टीवी की तरह डबलरोटी भी आधुनिक सभ्यता की पहचान बन गई है। मार्डन मम्मियां समझती हैं कि बच्चों को ब्रेकफास्ट में टोस्ट, लंच में सैंडविच और डिनर में बर्गर देकर उन्होंने बच्चों का दिल जीत लिया है। वह नहीं जानतीं कि यह डबलरोटी उनके बच्चों की सेहत की कितनी बड़ी दुश्मन है?
कभी गेहूं का आटा गूंथिए और उसमें से अपनी उंगलियों को निकाल कर साफ कीजिए। वहीं दूसरी तरफ़ मैदा आपकी उंगलियों पर इस तरह चिपक जाती है कि पानी से कई बार रगड़ने पर ही छूटती है। इसी तरह डबलरोटी की मैदा आपके और आपके बच्चों की आतों की अंदरूनी कोमल झिल्ली पर चिपक जाती है। उसकी स्वाभाविक क्रियाओं को रोक देती है। आसानी से बाहर नहीं निकलती। नया भोजन खा लेने से आतों में पहले से पड़ी मैदा और चिपक जाती है। आगे चलकर बड़ी-बड़ी बीमारियों का कारण बनती है।
जिस तकनीक से डबलरोटी का निर्माण किया जाता है वह उसकी पौष्टिकता को पूर्ण रूप से नष्ट कर देती है। जबसे यह तथ्य साबित हुआ तभी से ही पश्चिमी देशों ने डबलरोटी बनाने के आटे में कृत्रिम विटामिन तथा खनिज पदार्थ मिलाने शुरू कर दिए है। उन देशों में जो डबलरोटी मिलती है उसमें काफी विटामिन ऊपर से मिलाए गए होते हैं। आज के पढ़े-लिखे लोगों की मूर्खता का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि पहले तो गेहूं के आटे में से सभी महत्वपूर्ण पोष्टिक तत्व नष्ट कर देते है। फिर बाद मे उसी आटे में कृत्रिम विटामिन तथा खनिज पदार्थ मिला कर उसे डबलरोटी की सूरत में इस्तेमाल करते हैं। वह भी ताजी नहीं बासी।
भारतीयों को इस बात से सबक सीखना चाहिए। अकलमंदी गलती करते जाने में नहीं, समय रहते उसे सुधारने में है। युनाइटेड नेशन्स विश्वविद्यालय ने अपनी एक खोज से यह नतीजा निकाला है कि यदि सही मायनों में गेहूं व आटे का फायदा उठाना है तो पूरी दुनिया को भारतीयों से रोटी बनाने का तरीका सीखना होगा। हम भारतीय है जो अपनी ताकतवर रोटी भूलकर सुबह, दोपहर व शाम डबलरोटी के पीछे दीवाने है। योगासन सदियों भारत में धक्के खाता रहा और जब अमरीका और दूसरे विकसित देशों ने योग सीखकर अपनी सेहत और पैसे बनाना शुरू किया तो भारत में भी योग सीखने व सिखाने वालों की लाइन लग गई। क्या रोटी के मामले में भी हम यही करने वाले हैं?
पश्चिम के एक वैज्ञानिक रूडोल्फबैलन टाइम लिखते हैंः गेहूं के आटे में उपस्थित तरल तत्व के कारण आटा ज्यादा समय तक टिक नहीं पाता। इसलिए रोटी खाने वालों को बार-बार आटे की चक्की की तरफ जाना पड़ता है। क्योंकि गेहूं को तो सालों तक रखा जा सकता है। इसलिए चक्की वाले भी एक समय में ज्यादा गेहूं न पीस कर थेड़े-थोड़े करके पीसते हैं। इससे आटे की ताजगी और पौष्टिकता दोनों बनी रहती है।
मामला बिल्कुल साफ है। गेहूं रखना, आटा पिसवाना और ताजा रोटी बनाकर खाना, इससे ज्यादा फायदे की बात कोई हो नहीं सकती। पर हम सीधे और सरल रास्तों को न अपना कर आधुनिकता के पीछे भागते हैं और आधुनिकता को ही अपनाना चाहते हैं। फिर चाहे यह हमारे लिए नुकसानदायक ही क्यों न हो। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो पिछड़े हुए माने जाएंगे।
बात केवल आधुनिक बनने की नहीं है, बात उन बेरोजगार दंत चिकित्सकों को रोजगार दिलवाने की भी है जो हजारों की तादाद में हर साल दंत चिकित्सा में डाक्टरी पास करके आते हैं। अगर हम डबलरोटी नहीं खाएंगे तो दांत सड़ेंगे ही नहीं और अगर दांत नहीं सड़ेंगे तो भला दंत चिकित्सक भूखे नहीं मर जाएंगे? इस तरह अपनी आंतों और अपने दांतों का नुकसान करके हम बनाने वालों को, डाक्टरों को, अस्पतालों को और दवा कंपनियों को अपनी मेहनत का पैसा बांटना चाहते हैं तो हमें कौन रोक सकता है?