judiciary of india: भारत की न्याय पालिका हमारे संविधान की मंशा के अनुरूप ही काम कर रही है तथा भारत का सर्वोच्च न्यायालय अमेरिका जैस नही है, जहां मामले दशकों तक लम्बित रहते है, हमारी ओर से दिन में जितने मामलों का निराकरण होता है उतने तो कई पश्चिमी देशों में एक वर्ष में भी नही दिया जाता
ये उद्गार भारत की न्याय व्यवस्था व न्याय में कथित विलम्ब के आरोप पर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने व्यक्त किए, साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि सर्वोच्च न्यायालय जनता की अदालत है और उसे अपनी इस भूमिका का निर्वहन पूरी निष्ठा, ईमानदारी और कानून के अनुरूप करना चाहिए।
उन्होंने न्याय पालिका से उस पर पक्षपात व न्याय संहिता के विपरीत काम करने के आरोपों पर अपना मन्तव्य व्यक्त किया। उन्होंने न्याय पालिका की प्रजतांत्र में अहम् भूमिका भी प्रतिपादित की।
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इस मामले में दिलचस्पी क्यों नही
जस्टिस चंद्रचूड ने न्याय पालिका को स्पष्ट हिदायत दी कि उसे देश के सामने प्रतिपक्षी दल की भूमिका में कतई सामने नहीं आना है, क्योंकि न्याय पालिका ही वर्तमान प्रजातंत्र के तीन अंगों कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका में आज विश्वसनीय रही है तथा देश की जनता को सिर्फ और सिर्फ प्रजातंत्र के इसी अंग के प्रति विश्वास व निष्ठा शेष बची है।
माननीय मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ के इस दावे की सच्ची व ईमानदारी समीक्षा तो जनता के स्तर पर होगी, किंतु इसी बीच यह आरोप भी सच है कि देश की विभिन्न अदालतों में कई वर्षों से करोड़ों मामले लम्बित है इन अदालतों में सर्वोच्च न्यायालय भी शामिल है,
यहां यह उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय ने मुकदमों के निराकरण को शीघ्र व निश्चित समयसीमा में करने को सही तो बताया था लेकिन इसे असंभव भी करार दिया था, क्योंकि उनका सरकार पर स्पष्ट आरोप था कि करोड़ों लम्बित मामलों को निपटाने के लिए पर्याप्त न्यायाधीश, न्यायालय और अमला नही है,
जिसकी सरकार पूर्ति नही कर पा रही है, यदि पर्याप्त अदालतें, न्यायाधीश व अमला हो तो लम्बित मामले शीघ्र ही निपाटाए जा सकते है। न्याय पालिका के इस जवाब पर केन्द्र सरकार पूरी तरह मौन है। अब यह समझ से परे है कि सरकार की इस मामले में दिलचस्पी क्यों नही है?
संसद के हर फैसले की समीक्षा करना छोड़ना होगा
यहां यह विचारणीय है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा सरकार पर पूरा ठीकरा फोड़ने के बजाए स्वयं उसे ही अपने स्तर पर इस दिशा में प्रयास किए जाने चाहिए और चूंकि सर्वोच्च न्यायालय देश के उच्च न्यायालयों से लेकर जिला स्तर तक की अदालतों के लिए मार्गदर्शक बिन्दू है,
इसलिए सर्वोच्च न्यायालय को इस दिशा में आदर्श स्थापित करना चाहिए, फिर उसी का अनुसरण निचली अदालतें भी करेेगी। फिर वर्षों से न्याय की प्रतीक्षा करने वालों को आशा की कोई किरण नजर आएगी।
किंतु अब फिर वही सवाल है कि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को यह कहने को क्यों बाध्य होना पड़ा कि ‘‘सुप्रीम कोर्ट को प्रतिपक्ष की भूमिका निभाने की जरूरत नहीं’’, उनका कहना था कि ‘‘क्या यह किसी से भी छिपा है कि पिछले कुछ समय से सरकार के हर फैसले और यहां तक कि संसद से पारित प्रत्येक कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौति देने का सिलसिला निकल पड़ा है?’
यदि सुप्रीम कोर्ट जनहित याचिकाओं के सहारे सरकार एवं संसद के हर फैसले की समीक्षा करेगा और यहां तक की कानूनों की वैधानिकता को परखे बिना उसके अमल पर रोक लगा देगा, जैसा कि कृषि कानूनों के बारे में हुआ था, तो फिर तो वह विपक्ष की भूमिका में ही नजर आएगा?
यदि सर्वोच्च न्यायालय को जनता की अदालत के रूप में अपनी छवि को मजबूत करना है तो उसे संसद के हर फैसले की समीक्षा करना छोड़ना होगा और देश की जनता को तय समय पर शीघ्र व सस्ता न्याय देने की पहल करनी होगी, यही प्रजातंत्र की अपने इस अंग से अपेक्षा है।