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पत्रकारिता भारत में सबसे जोखिम का काम

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देश में पत्रकार और पत्रकारिता इस समय अपने सबसे कमजोर समय में है। विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत लगातार गिरता जा रहा है। 180 देशों में हम 159 वें स्थान पर आ गए हैं। मतलब दुनिया में केवल 21 देश ही हमसे खराब स्थिति में हैं।.. मुकेश की हत्या केवल पत्रकारिता के इतिहास में ही नहीं किसी भी हत्या के मामले में सबसे नृशंस और वीभत्स है। आपको पता है कि उसके लीवर तक के चार टुकड़े कर दिए गए थे।

छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके के पत्रकार मुकेश केजरीवाल की हत्या जितने नृशंस तरीके से की गई है वह बताता है कि हत्या करने और करवाने वालों को कोई डर नहीं था। देश में पत्रकार और पत्रकारिता इस समय अपने सबसे कमजोर समय में है। विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत लगातार गिरता जा रहा है। 180 देशों में हम 159 वें स्थान पर आ गए हैं। मतलब दुनिया में केवल 21 देश ही हमसे खराब स्थिति में हैं। पत्रकारिता भारत में सबसे जोखिम का काम होती जा रही है। उनकी

सुविधाएं सीजीएचएस से मेडिकल फेसिलिटी, रेल्वे में कंसेशन, संसद के पास वगैरह तो खत्म कर ही दिए गए हैं या उन्हें रोक कर प्रक्रिया के पेचिदगियों में फंसाकर मंशा के संकेत दिए जा रहे हैं। दूसरी तरफ बड़े मीडिया संस्थान नौकरियां कम कर रहे हैं। रिपोर्टिंग पर खर्चा बिल्कुल बंद कर दिया है। सूचना निकालने के बदले आ गई सरकारी सूचना को चमकाने का काम किया जा रहा है। विश्वसनीयता का मतलब खत्म कर दिया गया है। अगर कोई सवाल पूछे भी जाते हैं तो विपक्ष से किसानों से पीड़ित जनता से।

पत्रकारिता का जो मुख्य काम था बेजुबान जनता की आवाज बनना उसको बदलकर अब जनता को उसके कर्तव्य बताने का काम होने लगा है। कोविड में कितने पत्रकारों, कैमरामेनों, फोटोग्राफरों की जान गई उसका कोई अधिकृत आंकड़ा आज तक सामने नहीं आ पाया है। प्रेस कौसिंल आफ इन्डिया ने पत्रकारों की स्थिति की जांच के लिए एक कमेटी बनाई थी। उसकी रिपोर्ट में 626 पत्रकारो के जान गंवाने की बात थी।

2500 पत्रकारों को नौकरी से निकालने की। जिन्हें निकाला गया था उनमें से 63 परसेन्ट को कुछ नहीं दिया गया था। कमेटी ने मीडिया पर एक व्यापक आर्थिक और सामाजिक सर्वे की बात कही थी। मगर उसका क्या हुआ कुछ पता नहीं। इस दौरान आत्महत्याएं एक बड़ा दुखद पहलू रहा। सैंकड़ों पत्रकार, फोटोग्राफर, कैमरामेनों ने नौकरी जाने परिवार की खराब हालत न देखे जाने के बाद अपनी जान देने का जो फैसला किया उसकी सूची कभी सामने आई ही नहीं पाई। कानूनी प्रक्रियाओं के डर से परिवार चुप रहे। या उन्हें डरा, समझाकर चुप करवा दिया गया।

यह वह त्रासदी थी जो कहीं दर्ज ही नहीं हुई। कोविड के दौरान और उसके बाद सरकार और मीडिया संस्थानों दोनों ने अपनी जिम्मेदारी नहीं समझी। मीडिया का मुनाफा लगातार बढ़ रहा है। उन्हें कोई कोष बनाना चाहिए था सरकार को भी इसमें मदद करना चाहिए थी। जहां से पीड़ित पत्रकारों या उनके परिवारों को सहायता मुहैया करवाई जाती। बस्तर के मुकेश चन्द्राकर जैसे जमीनी पत्रकार के पत्रकारिता के लिए मारे जाने वाले युवा के परिवार की सहायता ऐसे ही किसी कोष से हो सकती थी। मुकेश की हत्या केवल पत्रकारिता के इतिहास में ही नहीं किसी भी हत्या के मामले में सबसे नृशंस और वीभत्स है।

आपको पता है कि उसके लीवर तक के चार टुकड़े कर दिए गए थे। हार्ट फाड़ दिया गया था। पोस्टमार्टम करने वाले तीन डाक्टरों की टीम तक उस डेड बाडी को देख नहीं पा रही थी। डाक्टर राजेन्द्र राय ने कहा कि हमने आज तक ऐसी निर्मम हत्या नहीं देखी। एक कालर बोन टूटी थी। पांच पसलियां टूटी थीं। सिर पर 15 फ्रेक्चर थे। गर्दन टूटी हुई थी। डाक्टरों ने कहा शरीर की कोई हिस्सा ऐसा नहीं था जहां चोट न हो।

इतनी क्रूरता, हिम्मत कहां से आती है?  क्रूरता का तो माहौल बना दिया गया है। क्रूर और निर्मम शब्दों में भाषण दिए जाते हैं। लोकसभा में खुले आम गालियां देने के बाद बाप कौन है?  भाजपा का दिल्ली से प्रत्याशी! और वह क्या केन्द्र में मंत्री रहते हुए गोली मारो…! दूसरी मंत्री  रामजादे हरामदादे! और इनसे भी बड़े वाले मंत्री सबसे बड़े मंत्री ईवीएम का बटन इतनी जोर से दबाओ कि करंट वहां लगे! और प्रधानमंत्री की भाषा का तो कहना ही क्या? सूर्पणखा, कांग्रेस की विधवा, जर्सी गाय, भैंस छीन ले जाएंगे। भैंस नहीं हुई बच्चे का खिलौना हो गया।

शाब्दिक हिंसा सबसे खतरनाक होती है। सारी हिंसाओं को जन्म देने बढ़ावा देने वाली। और हिम्मत? हिम्मत तो ह्त्यारों को यही राजनीतिक व्यवस्था देती है। जहां अब पीड़ित को ही निशाना बनाया जाने लगा है। हत्यारे अत्याचारी का समर्थन है।

भाजपा के सांसद ब्रजभूषण शरण सिंह का बच कर निकल जाना सबने देखा। अन्तरराष्ट्रीय पहलवान लड़कियां रो रोकर रह गईं। मगर सज़ा तो बड़ी बात वह गिरफ्तार तक नहीं हुआ। लखीमपुर खीरी में अपनी गाड़ी से किसानों को रौंद कर मार देने वाले लड़के और उसका बचाव कर रहे, सवाल पूछने पर पत्रकार का फोन छीन रहे के पिता अजय मिश्रा टेनी का मंत्री पद नहीं जाता। वह तो 2014 लोकसभा में जनता ने हराकर हिसाब बराबर किया वरना बीजेपी ने तो उन्हें गृह राज्य मंत्री ही बनाए रखा। गृह से कपड़ा कोयला तक में नहीं पहुंचाया। तो

यह हिम्मत इस सिस्टम से आती है कि पत्रकार गरीब कमजोर कोई कुछ नहीं कर सकता। लेकिन हत्या इतनी निर्मम थी कि देश भर के पत्रकारों में गम और गुस्से की लहर दौड़ गई। एडिटर्स गिल्ड आफ इन्डिया, प्रेस क्लब आफ इन्डिया ने आवाज उठाई। छत्तीसगढ़ के पत्रकार सडक पर आए। प्रेस क्लब आफ इन्डिया ने एक शोक और विरोध सभा का आयोजन किया। जिसमें बड़ी तादाद में पत्रकारों ने हिस्सा लिया।

पत्रकारिता जिसे अब बहुत मुश्किल बना दिया गया है। वैसे ही कम होती जा रही है। और खतरे बढ़ते जा रहे हैं। सरकार, सेठ, पुलिस, व्यवस्था के खिलाफ लिखना अपराध हो गया है। जबकि आम जनता के सारे सवाल इन्हीं से होते हैं। पत्रकारिता हमेशा इन्हीं को घेरती थी। गरीब जनता से यह शर्मनाक सवाल थोड़ी पूछती थी कि पांच किलो मुफ्त अनाज से खुश हो ना! फिर नेक्स्ट सवाल वोट दोगे ना! सब गोदी मीडिया बन गया है। हिन्दू-मुसलमान करना। झूठे नरेटिव सेट ( कहानी गढ़ना) करना। और पीड़ित को ही हमेशा अहसास कराते रहना कि गलती उसकी है।

लेकिन इन सबसे अलग दूरदराज के इलाकों में आज भी ग्राउन्ड पर पत्रकारिता हो रही है। गांव, देहात, अशांत इलाकों छोटी जगहों पर पत्रकार अपनी जान जोखिम में डालकर पत्रकारिता कर रहे हैं। पत्रकारिता मर नहीं सकती। मगर इन दिल्ली और राज्यों की राजधानी के बाहर के पत्रकारों को कुछ मिलता नहीं है। नाममात्र का पैसा और थोड़ा सा क्रेडिट। जबकि खतरा हंड्रेड परसेन्ट।

बस्तर जैसा इलाका जहां के बीजापुर जिले का मुकेश रहने वाला था किस हिम्मत और जूनून की पत्रकारिता करता था यह उसके साथ काम कर चुके या दिल्ली और दूसरे शहरों से बस्तर कवर करने गए पत्रकारों ने बताया। सुरक्षा बलों और नक्सलियों के बीच एक युद्ध क्षेत्र में तब्दील हो गए बस्तर में काम करना कितना कठिन है यह इससे समझा जा सकता है कि कभी पुलिस उन्हें उठा ले जाती है कि उनके पास नक्स्लियों की कोई जानकारी है। तो कभी नक्स्ली कि वे पुलिस के लिए काम कर रहे हैं।

और यह तो एक प्रमुख समस्या है ही। लेकिन बाकी ठेकेदारों का भ्रष्टाचार, प्रशासन का मनमाना रवैया, जल जंगल जमीन पर हमले यह सब ऐसी समस्याएं हैं जो रोज पत्रकारों के सामने होती हैं। और जब वह इसपर लिखते हैं तो उन्हें धमकियां मिलती हैं। मुकेश को भी मिल रही थीं। लेकिन वह लिखता रहा वीडियो बनाता रहा तो आखिर उसी को खत्म कर दिया गया।

यूट्यूब पर उसका एक चैनल है बस्तर जंक्शन। उसे देखकर मालूम होता है कि वह कितने खतरों में काम कर रहा था। कुछ समय पहले ही उसने और दूसरे पत्रकारों ने वहां पत्रकार सुऱक्षा कानून की मांग करते हुए प्रदर्शन किया था। मगर उस कानून बनाने की बात तो किस को सुनना थी उसकी अपनी जान बचाने की बात भी किसी ने नहीं सुनी। पत्रकारों ने इस मामले को उठाया है। देखना है बाकी और कौन कौन सामने आते हैं? सरकारें दोनों केन्द्र और राज्य छत्तीसगढ़ की क्या करती हैं?

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By शकील अख़्तर

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स के पूर्व राजनीतिक संपादक और ब्यूरो चीफ। कोई 45 वर्षों का पत्रकारिता अनुभव। सन् 1990 से 2000 के कश्मीर के मुश्किल भरे दस वर्षों में कश्मीर के रहते हुए घाटी को कवर किया।

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