किसी समय देश की राजनीति में बेहद ताकतवर माने जाने वाले गुलाम नबी आज़ाद एक ही वर्ष में गुमनामी में खोने लगे हैं।… आज़ाद कभी भी ताकतवर ज़मीनी नेता नही थे। लगातार दिल्ली में सत्ता में रहने के कारण ताकतवर नेता का लबादा तो उन्होंने ओढ़े रखा था मगर वास्तविकता में ज़मीनी राजनीति से उनका कभी भी कोई लेना-देना नहीं रहा। गलती कांग्रेस की भी रही है कि उसने खुद आज़ाद का कद इतना बड़ा बना दिया था कि एक समय दिल्ली में यह भ्रम सभी को हो चुका था कि आज़ाद बहुत ही ताकतवर नेता हैं।…बड़े-बड़े बुद्धिजीवियों व पत्रकारों, विशेषकर अंग्रेज़ी अखबारों से जुड़े पत्रकारों ने एक ऐसी तस्वीर गढ़ रखी थी जिससे लगता था कि सच में आज़ाद बहुत ही बड़े व ताकतवर नेता हैं।
ज़मीनी राजनीति से दूर रहकर सत्ता के गलियारों में ज़िंदगी भर मज़े लेने वाला कोई चर्चित राजनीतिक नेता ज़मीन पर उतरते ही कुछ ही समय में किस तरह से कमज़ोर और हताशा का शिकार हो सकता है इसका अहसास गुलाम नबी आज़ाद की मौजूदा स्थिति से होता है। दिल्ली की मखमली सड़कों से दूर जम्मू-कश्मीर की ऊबड़-खाबड़ दुर्गम पहाड़ी सड़कों की भूल-भुलैया में गुलाम नबी आज़ाद एक वर्ष में ऐसे भटके हैं कि उनके समर्थकों ने भी उनका हाथ छोड़ देने में अपना भला समझा है। यह सबकुछ आज़ाद द्वारा कांग्रेस छोड़ने के बाद पांच-छह महीनों में ही हो गया। हालत यह है कि साल समाप्त होते-होते आज़ाद का कुनबा पूरी तरह से बिखर चुका है और आज़ाद पूरी तरह से अलग-थलग व अकेले पड़ चुके हैं।
किसी समय देश की राजनीति में बेहद ताकतवर माने जाने वाले गुलाम नबी आज़ाद एक ही वर्ष में गुमनामी में खोने लगे हैं। जिस नेता के आगे-पीछे देश भर से कांग्रेसी नेताओं-कार्यकर्ताओं की भीड़ मंडराती रहती थी आज उसकी हालत यह है कि स्वतंत्रता दिवस पर जब झंडा फहराने लगे तो सिवा सुरक्षा कर्मियों के उनके साथ कोई दूसरा नहीं था।गुलाम नबी आज़ाद ने अपने ट्विटर अकाउंट से स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर राष्ट्रीय ध्वजारोहण की कुछ फ़ोटो शेयर की हैं, इन फोटो में वे पूरी तरह से अकेले दिखाई दे रहे हैं। ये फोटो बहुत कुछ बताते हैं। कैसे आज़ाद अकेले पड़ चुके हैं,यह इन फोटो से साफ तौर पर समझा जा सकता है।
आज़ाद द्वारा ट्विटर पर साझा किए गए फोटो में उनके साथ उनकी सुरक्षा में तैनात कुछ सुरक्षा कर्मी तो ज़रूर नज़र आ रहे हैं मगर उनकी पार्टी का एक भी नेता, साथी या कार्यकर्ता फोटो में नही है।
गुलाम नबी आज़ाद पिछले साल 26 अगस्त को कांग्रेस से अलग हुए थे और 26 सितंबर को बड़े शोर-शराबे के साथ उन्होंने अपनी एक अलग पार्टी बनाने का ऐलान किया था। मगर हालत यह है कि एक साल के भीतर ही उनके साथ कांग्रेस छोड़ने वाले लगभग सभी बड़े नेता व कार्यकर्ता वापस कांग्रेस में लौट चुके हैं। एक-आध नेता ही ऐसा बचा है जो अभी भी आज़ाद और उनकी पार्टी के साथ जुड़ा हुआ है। लेकिन पार्टी के स्थापना दिवस तक शेष बचे नेता उनके साथ जुड़े रहते हैं या नही यह देखना दिलचस्प होगा।
पुरानी कहावत है कि पुरखों की चली-चलाई दुकान पर बैठना आसान है मगर असल परीक्षा उस समय होती है जब खुद दुकान खोल कर उसे चलाया जाए। दो बार लोकसभा का सदस्य और पांच बार लगातार राज्यसभा का सदस्य रहने वाले गुलाम नबी आज़ाद पर यह कहावत पूरी तरह से लागू होती है।
एक साल के भीतर ही जिस तरह से गुलाम नबी आज़ाद ने अपनी पार्टी का संचालन किया है उससे उन्हें राजनीति की कड़वी सच्चाइयों का पता चल गया है। दिल्ली बैठकर कांग्रेस जैसी एक स्थापित बड़ी पार्टी के एक बड़े नेता के नाते राजनीति करना और अपनी बनाई पार्टी को चलाना व नए संगठन को खड़ा करने में कितना अंतर है यह आज़ाद को बखूबी समझ आ गया है।
जिस धमाके के साथ आज़ाद ने कांग्रेस को छोड़ा था उसकी हवा कुछ ही महीनों में ही निकल गई थी। मगर दिल्ली के कुछ पत्रकार और बुद्धिजीवी का मानना था कि आज़ाद कांग्रेस को कम से कम जम्मू-कश्मीर में तो नुक्सान पहुंचा सकने की ताकत तो रखते ही हैं। ‘नया इंडिया’ में जब पहली बार गुलाम नबी आज़ाद की नवगठित पार्टी के बारे में सितंबर 2022 में लिखा तो बहुत से पत्रकारों और बुद्धिजीवियों का कहना था कि ‘आज़ाद को कमतर आंकने की भूल की जा रही है…आज़ाद कांग्रेस की ज़मीन हिला देंगे…वगैरा-वगैरा।’
लेकिन दिल्ली के पत्रकारों और बुद्धिजीवियों की राय से सच्चाई कोसो दूर थी। दरअसल आज़ाद कभी भी ताकतवर ज़मीनी नेता नही थे। लगातार दिल्ली में सत्ता में रहने के कारण ताकतवर नेता का लबादा तो उन्होंने ओढ़े रखा था मगर वास्तविकता में ज़मीनी राजनीति से उनका कभी भी कोई लेना-देना नहीं रहा। गलती कांग्रेस की भी रही है कि उसने खुद आज़ाद का कद इतना बड़ा बना दिया था कि एक समय दिल्ली में यह भ्रम सभी को हो चुका था कि आज़ाद बहुत ही ताकतवर नेता हैं। जम्मू-कश्मीर से संबंधित तमाम फैसले लेते समय आज़ाद को इतना अधिक महत्व मिलता, जिससे यह हवा बन जाती कि आज़ाद के बिना तो कुछ संभव ही नही है।
बड़े-बड़े बुद्धिजीवियों व पत्रकारों, विशेषकर अंग्रेज़ी अखबारों से जुड़े पत्रकारों ने एक ऐसी तस्वीर गढ़ रखी थी जिससे लगता था कि सच में आज़ाद बहुत ही बड़े व ताकतवर नेता हैं। इन बुद्धिजीवियों के मुकाबले जम्मू-कश्मीर प्रदेश कांग्रेस के एक छोटे से कार्यकर्ता को भी अधिक पता था कि वास्तव में आज़ाद कितनी ताकत रखते हैं।
यही नही, कहीं न कहीं खुद आज़ाद को भी अपनी ज़मीनी ताकत का पता था।
आज़ाद यह भी जानते थे कि अपनी खुद की पार्टी को चला सकना आसान नही है, यही वजह थी कि गत वर्ष 26 सितंबर को अपनी पार्टी का गठन करने के बाद भी अपनी पार्टी का नाम तय करने में उन्हें महीनों लग गए। पहले प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक आज़ाद पार्टी नाम रखा गया तो बाद में डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव आज़ाद पार्टी नाम तय हुआ। मगर इस सारी प्रक्रिया में पांच महीने गुजर गए। और जब तक नाम पर अंतिम मुहर लगी तब तक लोगों ने आज़ाद को छोड़ना शुरू कर दिया।
हालत यह हो गई कि साल 2022 के समाप्त होते-होते गुलाम नबी आज़ाद का जादू पूरी तरह से खत्म होने लगा और बड़ी संख्या में उनके करीबी नेताओं ने उन्हें अलविदा कह कर वापस कांग्रेस का दामन थाम लिया। यह अपने आप में बहुत ही हैरान करने वाला था कि सबसे पहले आज़ाद को उन लोगो ने छोड़ा जो आज़ाद के सबसे ज़्यादा करीबी थे।
गत वर्ष दिसंबर में राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के जम्मू-कश्मीर में दाखिल होते ही हवा बदली तो उनके बेहद खास रहे पूर्व उपमुख्यमंत्री ताराचंद, पीरज़ादा मुहम्मद सईद और बलवान सिंह जैसे लोग वापस कांग्रेस में लौट आए। दरअसल यह लोग समझ चुके थे कि पार्टी को लेकर आज़ाद बहुत अधिक गंभीर नहीं हैं और सिर्फ कांग्रेस आलाकमान पर दबाव बनाने की राजनीति कर रहे हैं। किसी समय आज़ाद के बेहद करीब रहे एक नेता का तो यहां तक कहना है कि आज़ाद ‘टाईम पास’ कर रहे हैं।कुछ दिन पहले सात अगस्त को आज़ाद को उस समय एक और झटका लगा जब उनके करीबी नेताओं के एक और समूह ने उन्हें अलविदा कहते हुए वापस कांग्रेस में जाने का फैसला कर लिया।
बड़ी तादाद में गुलाम नबी आज़ाद के करीबियों द्वारा उन्हें छोड़ने के बाद आज़ाद और उनकी पार्टी की हालत यह हो चुकी है कि शेष बचे नेताओं में से कौन कब छोड़ कर चला जाए कहना ज़्यादा मुश्किल नही है। 26 सितंबर को पार्टी को बने एक साल पूरा होने वाला है। मगर बुरी तरह से बिखर चुकी आज़ाद की पार्टी अपना स्थापना दिवस मना भी सकेगी या नही इसे लेकर संशय बना हुआ है।