कश्मीर के लोगों को मतदान के लिए जैसे ही साफ व सुरक्षित माहौल मिला तो लोगों ने भी वोट डालने में कोई कंजूसी नही दिखाई। उस जगह भी खूब वोट पड़े यहां किसी ज़माने में चुनाव का पोस्टर लगाना भी संभव नही था। पिछले लोकसभा चुनाव में श्रीनगर के अंदरूनी इलाके के 70 मतदान केंद्रोंमें एक भी वोट नही डाला गया था।… इस बार श्रीनगर के हब्बाकदल विधानसभा क्षेत्र में भी 28.28 और ईदगाह में 26.81 प्रतिशत मतदान हुआ।…सोपोर विधानसभा क्षेत्र में इस दफा का कुल 44 प्रतिशत मतदान होना सबको हैरान कर गया।
कश्मीर घाटी ने कई वर्षों बाद दिल खोल कर और पूरी आज़ादी के साथ मतदान किया। सही मायनों में कश्मीर को अपनी पसंद अनुसार वोट डालने की आज़ादी इस बार ही मिली। शायद लंबे समय से इसी तरह की आज़ादी की कामना आम कश्मीरी के दिल में थी। यह मौजूदा लोकसभा चुनाव की सबसे बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है कि लगभग 37 साल के बाद कश्मीर ने खुले मन से अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया। इस बार कोई घमकी नही थी और न ही किसी भी आतंकवादी संगठन या अलगाववादी संगठन की तरफ से चुनाव बहिष्कार का कोई ऐलान था। सुरक्षित माहौल में अपने मताधिकार का इस्तेमाल करने का जब कई सालों बाद समय आया तो कश्मीर ने निराश नही किया और लोकतंत्र के इस पर्व में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया।
पिछले हो चुके कई चुनावों में लोगों की कम भागीदारी को लेकर कुछ लोग कश्मीर के लोगों को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश किया करते थे। यह दुष्प्रचार किया जाता था कि भारतीय लोकतंत्र में उनकी आस्था नही है। लेकिन इस आरोप को इस बार के लोकसभा चुनाव में लोगों ने अपनी भागीदारी को बढ़ा कर गलत साबित कर दिया है। कश्मीर के लोगों को मतदान के लिए जैसे ही साफ व सुरक्षित माहौल मिला तो लोगों ने भी वोट डालने में कोई कंजूसी नही दिखाई। उस जगह भी खूब वोट पड़े यहां किसी ज़माने में चुनाव का पोस्टर लगाना भी संभव नही था।
हालांकि अति उत्साह में कुछ लोगों द्वारा ऐसा प्रचार भी किया जा रहा है कि जैसे 2024 के लोकसभा चुनाव में ही कश्मीर के लोग ने मतदान में भाग लिया हो। यह धारणा भी गलत है। यही नही यह उन सब लोगों के साथ अन्याय भी होगा जिन्होंने तमाम तरह की विपरीत परिस्थितियों के बावजूद कश्मीर में लोकतंत्र को ज़िदा रखा। लोकतंत्र के लिए बीते वर्षों में कईं राजनीतिक नेताओं, आम लोगों और सुरक्षा बलों के कर्मियों को अपनी जान तक गंवानी पड़ी है। बावजूद तमाम तरह की चुनौतियों के चुनाव की अहमियत और उसके प्रति विश्वास कम न हो, इसके लिए स्थानीय लोग, सुरक्षा बल और चुनाव आयोग समान रूप से लगातार प्रयत्नशील रहे हैं।
यह एक बड़ी हकीकत रही है कि आतंकवाद के भयानक दिनों में भी कश्मीर में कई बार चुनाव हुए हैं और स्थानीय लोगों ने चुनाव में हिस्सा भी लिया है। प्रतिशत भले ही कम रहा हो मगर लोगों ने लोकतंत्र में अपना विश्वास समय-समय पर प्रकट किया है। शहरी क्षेत्रों के मुकाबले ग्रामीण व कस्बाई इलाकों में लोग बड़ी संख्या में मतदान के लिए बाहर निकलते रहे हैं। समस्या उन इलाकों में ज़यादा रहती थी, यहां आतंकवादियों और अलगाववादियों का दबदबा था। इन इलाकों में श्रीनगर जैसे बड़े शहर के अंदरूनी इलाके भी शामिल थे यहां मतदान प्रतिशत बहुत कम रहा करता था।
नही पड़ता था एक भी वोट
हालत यह थी कि आतंकवादियों के गढ़ समझे जाने वाले कुछ इलाकों में एक भी वोट नही डाला जाता था। श्रीनगर जैसे बड़े शहर के अंदरूनी इलाकों में लगभग हर चुनाव में मतदान प्रतिशत बेहद कम रहा करता था। कई ऐसे मतदान केंद्र इस बात के लिए कुख्यात भी हो चुके थे कि मतदान के दिन वहां एक भी वोट नही पड़ता था।
पिछले लोकसभा चुनाव की ही अगर बात की जाए तो, इस तरह के लगभग 70 मतदान केंद्र तो सिर्फ श्रीनगर शहर के अंदरूनी इलाके में ही थे, यहां पर एक भी वोट नही डाला गया था। श्रीनगर के ईदगाह विधानसभा क्षेत्र में 2019 के लोकसभा चुनाव में मात्र 3.4 प्रतिशत ही मतदान हुआ जबकि अमीराकदल क्षेत्र में मतदान का प्रतिशत 4.9 था। इसी तरह से श्रीनगर के ही हब्बाकदल में भी मात्र 4.3 प्रतिशत मतदान हो सका था।
पिछली बार के लोकसभा चुनाव में श्रीनगर सीट पर कुल मतदान सिर्फ 14 प्रतिशत के करीब था। लेकिन इस बार हालात बदल गए और कुल 38 प्रतिशत के आसपास मतदान हुआ। जिन इलाकों में मतदान कम या बिल्कुल भी नही होने की शिकायत रहती थी वहां भी प्रतिशत में आश्चर्यजनक ढंग से बढ़ोतरी देखी गई। इस बार श्रीनगर के हब्बाकदल विधानसभा क्षेत्र में 28.28 और ईदगाह में 26.81 प्रतिशत मतदान हुआ।
कुछ और आंकड़ों की बात करें तो उत्तरी कश्मीर की बारामूला लोकसभा सीट के अंतर्गत आने वाले सोपोर विधानसभा क्षेत्र में 2019 में मात्र 4.3 प्रतिशत मतदान हुआ था। सोपोर कश्मीर घाटी का एक ऐसा इलाका था यहां किसी भी चुनाव में मतदान प्रतिशत तीन-चार प्रतिशत से आगे कभी बढ़ नही पाता था। सोपोर कस्बे और उसके आसपास के क्षेत्रों में आतंकवाद के खतरनाक दिनों में चुनाव को लेकर इतनी अधिक दहशत रहती थी कि मतदान केंद्रों में पूरा दिन सन्नाटा पसरा रहता था। सोपोर को जमायते इस्लामी के गढ़ के रूप में भी जाना जाता रहा है और चर्चित अलगावादी नेता स्वर्गीय सैयद अली शाह गिलानी का पैतृक गृह नगर भी रहा है।
लेकिन इसी सोपोर में इस बार एक नया इतिहास रचा गया। यहां मतदान केंद्र मतदाताओं का इंतज़ार करते-करते थक जाते थे, उन्हीं इलाकों में इस बार ज़बरदस्त मतदान हुआ। सोपोर विधानसभा क्षेत्र में इस दफा का कुल 44 प्रतिशत मतदान होना सबको हैरान कर गया।
हुर्रियत करती थी बहिष्कार का आह्वान
एक ऐसा वक्त भी था कि कश्मीर में जब भी कोई चुनाव आता हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे अलगावादी और अन्य कई आतंकवादी संगठन चुनाव के बहिष्कार का ऐलान कर दिया करते। नतीजतन डर के कारण लोग मतदान के दिन घरों से बाहर निकलने से परहेज़ करते। चुनाव के दिनों आतंकवादियों के हमलों में अचानक से बढ़ोतरी भी हो जाती। घाटी में चुनाव का सीधा-सीधा मतलब था आतंकवादियों द्वारा चुनाव में किसी न किसी तरह की खलल डालना। आतंकवाद की वजह से चाहते हुए भी अपना मत डालने से कश्मीर के अधिकतर लोगों को वंचित रहना पड़ता था।
एक लंबे समय तक आतंकवाद की वजह से कानून व व्यवस्था की स्थिति बुरी तरह से चरमरा गई। घाटी से बड़ी संख्या में पलायन हुआ और तीन दशक से ज़्यादा समय तक आतंकवाद की वजह से सामान्य जीवन अस्त-व्यस्त हो गया। आतंकवाद की वजह से हज़ारों लोग मारे गए और घायल हुए। घाटी के हालात किस कदर खराब हो चुके थे इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1991 के लोकसभा चुनाव जम्मू-कश्मीर में करवाए ही नही जा सके थे।
खराब हालात के कारण 1990 से लेकर 1996 तक जम्मू-कश्मीर में विधानसभा भंग रही और इस दौरान राष्ट्रपति शासन लागू रहा। लंबे समय बाद जब 1996 में विधानसभा चुनाव हुए तो राजनीतिक दलों को चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवार मिलने में भी भारी कठिनाई हुई थी। परिस्थितियां इतनी भयंकर थी कि कई जगह उम्मीदवारों को सार्वजनिक रूप से चुनाव न लड़ने का ऐलान करना पड़ा था।
हुर्रियत कांफ्रेस और विभिन्न आतंकवादी संगठनों द्वारा दिए गए चुनाव बहिष्कार के आह्वान के कारण बहुत कम लोग मतदान करने बाहर निकले। अधिकतर जगह राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने ही वोट डाले। डर और भय के कारण मर्दों ने बुर्के तक पहन कर अपने मताधिकार का इस्तेमाल करना पड़ा था।
आतंकवादियों की धमकियों के कारण नाममात्र का मतदान हुआ और श्रीनगर जैसे शहर में कई नेता कुछ ही मतों की मदद से विधायक बन गए। श्रीनगर की खानयार सीट पर कुल 59696 मतों में से सिर्फ 7633 मत पड़े। परिणाम जब आया तो नेशनल कांफ्रेंस के अली महोम्मद सागर मात्र 6194 मतों के साथ विधायक बन चुके थे। इसी तरह से अमीराकदल में कुल 56467 मतों में से 7141 मत पड़े और महोम्मद शफी भट्ट मात्र 4256 वोट लेकर विधानसभा पहुंच गए।
लेकिन इस बार न तो हुर्रियत कांफ्रेस थी और न ही उसकी तरफ से कोई आह्वान था। इसी तरह से आतंकवाद पर नकेल कसे जाने के कारण तमाम आतंकवादी संगठन भी खामोश थे और चुनाव में किसी भी तरह की रुकावट पैदा नही कर सके। यह एक बड़ा बदलाव था जिससे आम कश्मीरी को डर और खौफ से दूर एक सुरक्षित वातावरण मिला और उसने खुल कर वोट डाला। चुनाव में घाटी के लोगों की इस बार भागीदारी बढ़ने के पीछे यही मुख्य कारण था।
कश्मीर घाटी की तीनों लोकसभा सीटों पर इस बार बहुत ही अच्छा मतदान हुआ और पिछले कई रिकॉर्ड टूटे। बारामूला में इस बार 59 प्रतिशत, श्रीनगर में 38 प्रतिशत और अनंतनाग-राजोरी सीट पर 53 प्रतिशत मतदान हुआ।