पूर्ण राज्य का दर्जा समाप्त कर दिए जाने से कश्मीर के साथ-साथ जम्मू के लोगों में भी कहीं न कहीं नाराज़गी है। जम्मू संभाग की आबादी का एक बड़ा हिस्सा जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन को लेकर बेहद संवेदनशील है और मानता है कि पूर्व डोगरा महाराजा गुलाब सिंह द्वारा बनाए गए जम्मू-कश्मीर के स्वरूप और आकार के साथ छेड़-छाड़ करना ठीक नही था। इसे डोगरा गौरव से भी जोड़ कर देखा जा रहा है।
जम्मू-कश्मीर में ऐसा बहुत कम हुआ है जब किसी एक मुद्दे ने पुरे प्रदेश की जनता को किसी एक मुद्दे विशेष से जोड़ा हो और कोई एक मुद्दा या नारा पूरे प्रदेश को एक धागे में बांध सका हो। प्रदेश के दोनों हिस्सों, कश्मीर और जम्मू में हमेशा मुद्दों को लेकर मतभेद रहे हैं । दोनों जगह हमेशा अलग-अलग मुद्दो पर चुनाव लड़े जाते रहे हैं।
कश्मीर में हमेशा संवेदनशील मुद्दे और नारे उछाले जाने का एक लंबा इतिहास रहा है। उत्तेजना से भरे ‘आज़ादी’ जैसे नारे चुनावों में लगाए जाते रहे हैं। ऐसे नारे भावनाएं भड़काने का काम तो करते थे मगर हासिल कुछ नही था। कई बार चुनाव में ‘पाकिस्तान’ को भी एक बड़ा मुद्दा बनाए जाने की कोशिश की जाती थी।
मगर कश्मीर में इस दफा तमाम ‘भड़काऊ’ मुददों व नारों की जगह ऐसे मुद्दे आम लोगों में जगह बना रहे हैं जो नए भी हैं और आम लोगों से जुड़े हुए भी हैं। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि अभी तक किसी भी राजनीतिक दल की तरफ से नए मुद्दों को ज़ोरदार ढ़ंग से आम जनता के बीच ले जाने की कोशिश नही हुई है, मगर बावजूद इसके नए मुद्दे अपने आप जनता के बीच जगह बना रहे हैं।
दूसरी तरफ प्रदेश के जम्मू संभाग में कश्मीर से पूरी तरह से अलग मुद्दों को लेकर चुनाव होते रहे हैं। जम्मू संभाग में राष्ट्रीय मुद्दों का असर अधिक दिखाई देता रहा है। कभी भी ऐसा मौका नही आया जब दोनों हिस्से एक ही सुर में मुद्दों को उठाते नज़र आए हों। लेकिन इस बार जब जम्मू-कश्मीर में लंबे समय के बाद विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं तो कुछ मुद्दों पर प्रदेश के दोनों हिस्सों में एक आम सहमति बनती दिख रही है और एक स्वर में दोनों तरफ बात होती दिखाई दे रहे है।
पूर्ण राज्य की मांग
इस समय पूरे प्रदेश में पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल किए जाने की मांग एक बड़ा मुद्दा बन रही है। अगर देखा जाए तो इस वक्त यह पूरे प्रदेश का सबसे ज्वंलत मुद्दा है जिसे लेकर प्रदेश के दोनों हिस्सों में व्यापक सहमति है। यह एक सच्चाई है कि आम लोग अनुच्छेद-370 की समाप्ति को लेकर इतने अधिक नाराज़ भले ही नही हों, लेकिन पूर्ण राज्य का दर्जा समाप्त कर दिए जाने से कश्मीर के साथ-साथ जम्मू के लोगों में भी कहीं न कहीं नाराज़गी है। जम्मू संभाग की आबादी का एक बड़ा हिस्सा जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन को लेकर बेहद संवेदनशील है और मानता है कि पूर्व डोगरा महाराजा गुलाब सिंह द्वारा बनाए गए जम्मू-कश्मीर के स्वरूप और आकार के साथ छेड़-छाड़ करना ठीक नही था। इसे डोगरा गौरव से भी जोड़ कर देखा जा रहा है।
यह एक ऐसा मुद्दा है जिसे लेकर लोग काफी मुखर हैं और शिद्दत के साथ चाहते हैं कि प्रदेश को उसका पूर्ण राज्य का दर्जा वापस मिले। लोगों के रुख को देखते हुए विधानसभा चुनाव में लगभग सभी गैर भाजपा राजनीतिक दल भी इस मुद्दे को लोगों के बीच पूरी ताकत के साथ उठाने जा रहे हैं। पांच अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर का दर्जा समाप्त करते समय गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में कहा था कि जल्द ही जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा जल्द लौटा दिया जाएगा। भारतीय जनता पार्टी भी लगातार कहती आ रही है कि प्रदेश का पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल किया जाएगा। लेकिन कब, इसे लेकर पार्टी के पास कोई सपष्ट जवाब फिलहाल नही है।
‘दरबार कूच’ भी बड़ा मुद्दा
पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करने के साथ-साथ ‘दरबार कूच’ (दरबार मूव) का मुद्दा भी एक बड़ा मुद्दा बन रहा है। ‘दरबार कूच’ परंपरा के बंद होने से प्रदेश के दोनों हिस्सों में बहुत गुस्सा है। विशेषकर जम्मू में लोगों को इस मुद्दे पर भारी नाराज़गी है।
पूर्व डोगरा शासक महाराजा रणबीर सिंह द्वारा 1872 में शुरू की गई ‘दरबार कूच’ की परपंरा को बंद करने से सबसे अधिक असर प्रत्यक्ष रूप से जम्मू के व्यापार जगत पर पड़ा है। आम लोग ‘दरबार कूच’ की परंपरा को भी डोगरा स्वाभिमान से जोड़ कर देखते हैं।
यह मुद्दा भारतीय जनता पार्टी के गढ़ माने जाने वाले जम्मू नगर व जम्मू जिले और कुछ हद कर पूरे जम्मू संभाग की अर्थव्यवस्था से बहुत गहरे से जुड़ा हुआ है। जम्मू का कारोबार ‘दरबार कूच’ की परंपरा के समाप्त होने से बुरी तरह से प्रभावित हुआ है। सर्दियों में ‘दरबार कूच’ की वजह से जम्मू के बाज़ारों में जो रौनक हुआ करती थी वह अब गायब है। हर साल जो चार से पांच लाख कश्मीरी आबादी जम्मू आती थी वह अब आना बंद हो गई है।
‘दरबार कूच’ के अपने फायदे थे। यह एकमात्र ऐसी परंपरा थी जो प्रदेश के दोनों हिस्सों को आपस में जोड़े हुए थी। एक खूबसूरत पुल का काम करती थी यह परंपरा। ध्रवीकरण के माहौल में भी अगर जम्मू के लोग और व्यापारी ‘दरबार कूच’ को दोबारा शुरू करने की बात कर रहे हैं तो यह अपने आप में दर्शाता है कि 152 साल पहले शुरू हुई परंपरा की जड़े कितनी मजबूत हैं।
पहाड़ी भाषियों को दर्जे से नाराज़गी
केंद्र द्वारा पहाड़ी भाषियों को भाषा के आधार पर अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने से भी एक बड़े वर्ग में नाराज़गी दिखाई दे रही है। यह नाराज़गी भी एक बड़े मुद्दे में परिवर्तित हो रही है। जिन पहाड़ी भाषी लोगों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिला है उनकी ज़्यादातर आबादी जम्मू संभाग के दो जिलों पुंछ व राजौरी तक ही सीमित है। यही दो ऐसे ज़िले हैं यहां पहाड़ी भाषी लोगों की बड़ी आबादी का राजनीति में दखल और असर है। दोनों ज़िलों में पहाड़ी भाषी 50 से 60 प्रतिशत के आसपास हैं। इनमें बहुसंख्यक आबादी मुस्लिम है जबकि कुछ संख्या हिन्दू व सिख समुदाय की भी है। कश्मीर घाटी में सबसे अधिक बारामूला ज़िले में लगभग 15 प्रतिशत के आसपास पहाड़ी भाषी लोग हैं। पूरे प्रदेश में नौ प्रतिशत ही आबादी ऐसी है, जिसे पहाड़ी भाषी माना जाता है ।
दरअसल गुज्जर-बक्करवाल समुदाय को 1991 से अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिला हुआ है। इसी को लेकर पहाड़ी भाषी लंबे समय से मांग कर रहे थे कि उन्हें भी अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया जाए। लेकिन गुज्जर-बक्करवाल समुदाय पहाड़ियों की इस मांग का लगातार विराध कर रहा था। मगर केंद्र की मौजूदा सरकार ने इस विरोध को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ करके फरवरी 2024 में पहाड़ियों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने का निर्णय ले लिया। लेकिन अब गुज्जर-बक्करवाल समुदाय के साथ-साथ अन्य इलाकों के लोग व वर्ग भी पहाड़ी भाषियों को विशेष दर्जा दिए जाने को लेकर गुस्से में हैं। बेहद दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों का कहना है कि भाषा के आधार पर पहाड़ी भाषियों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देना हर लिहाज़ से गलत है। उनका कहना है कि भौगोलिक परिस्थितियों के आधार पर सरकार को दर्जा देना चाहिए
भारतीय जनता पार्टी की मुश्किल यह है कि पहाड़ी भाषियों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने से यहां एक तरफ गुज्जर-बक्करवाल समुदाय सहित अन्य कई वर्गों में नाराज़गी है वहीं उसके कोर वोटर ने भी केंद्र के इस कदम को पसंद नही किया है।। कश्मीर घाटी जम्मू संभाग में भी इस मुद्दे पर लोगों में नाराज़गी है।
हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में पहाड़ी भाषी लोगों को दिए गए अनुसूचित जनजाति के दर्जे का कोई बहुत अधिक लाभ वोट में परिवर्तित होता दिखाई नही दिया। हालांकि भारतीय जनता पार्टी ने अपना की उम्मीदवार इन इलाकों में खड़ा नही किया था मगर ‘अपनी पार्टी’ को पार्टी ने अपना समर्थन दिया था। लेकिन पहाड़ी कार्ड नही चल सका।
अनुच्छेद-370 मुद्दा नही
अनुच्छेद-370 को लेकर भले ही कश्मीर केंद्रित राजनीतिक दल अभी भी आवाज़ उठाते हैं मगर उनका स्वर बहुत धीमा है। वजह यह है कि अनुच्छेद-370 अब कोई मुद्दा नही है। यह कश्मीर के राजनीतिक दलों की एक राजनीतिक मजबूरी मात्र है। नेशनल कांफ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) ने बेशक अपने चुनावी घोषणापत्र में अनुच्छेद-370 और 35-ए जैसे मुद्दों का ज़िक्र किया है मगर आम लोगों में इन विषयों को लेकर बहुत अधिक चर्चा नही है। राजनीतिक रूप से बेहद सजग रहने वाले कश्मीर के लोग यह बात भलीभांति समझते हैं कि झेलम से बहुत अधिक पानी बह चुका है और अनुच्छेद-370 अब इतिहास के पन्नों में कहीं खो चुका है ।
कश्मीर में ऐसे अनगिनत लोग मिल जाएंगे जो अनुच्छेद-370 पर बात करते समय बिलकुल व्यवहारिक होकर बात करते हैं। इन लोगों का मानना है कि अनुच्छेद-370 में अब रह भी कुछ नही गया था। समय के साथ-साथ अनुच्छेद-370 के अधिकतर प्रावधान खत्म हो चुके थे। इसलिए जब पांच अगस्त 2019 को इसकी समाप्ति की घोषणा हुई तो ऐसा कुछ विशेष बचा नही था जिसके छिन जाने से कोई बहुत बड़ा नुक्सान महसूस होता।
अलबत्ता कुछ राजनीतिक दलों के लिए अनुच्छेद-370 का महत्व पांच अगस्त 2019 से पहले भी था और अभी भी बना हुआ है । विशेषकर उन दलों के लिए जिनकी राजनीति अनुच्छेद-370 के इर्द-गिर्द घूमती रही है। इन दलों में कश्मीर केंद्रित राजनीतिक दल भी शामिल हैं और भारतीय जनता पार्टी भी। इन सबके लिए अनुच्छेद-370 पहले भी महत्वपूर्ण था और आज भी महत्व रखता है। इसमें भी कोई संदेह नही कि भविष्य में भी जब कभी राजनीतिक रूप से आवश्यक होगा अनुच्छेद-370 का जिन्न बोतल से बाहर निकाला जाएगा और उसका राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश की जाएगी। लेकिन यह एक सच्चाई है कि गत वर्षों के दौरान जिस तेज़ी से जम्मू-कश्मीर में परिस्थितियां बदली हैं उसने अपने आप नए मुद्दों को जन्म दिया है। अनुच्छेद-370 की जगह अब यही नए मुद्दे आम आदमी के लिए महत्वपूर्ण हो गए हैं।