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सांकेतिक भाषा को प्रोत्साहन जरूरी

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विश्व बधिर संघ की स्थापना 23 सितम्बर 1951 को हुई। यह संघ 135 देशों के बधिर संगठनों से बना है, जो संसार के लगभग 7 करोड़ बधिर लोगों का प्रतिनिधित्व करता है। बधिरों के मानवाधिकारों की पूर्ण प्राप्ति में सांकेतिक भाषा के महत्व पर लोगों की जागरूकता बढ़ाये जाने उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 23 सितम्बर को अंतर्राष्ट्रीय सांकेतिक भाषा दिवस के रूप में घोषित किया है। प्रथम अंतर्राष्ट्रीय सांकेतिक भाषा दिवस 2018 वर्ष से शुरू हुआ।

23 सितम्बर- विश्व सांकेतिक भाषा दिवस

आत्माभिव्यक्ति अर्थात अपनी बात प्रकट करने, अपना अर्थ सूचित करने के लिए श्रवणीय ध्वनि माध्यम में संप्रेषित करने के स्थान पर दृश्य रूप में सांकेतिक माध्यम से अर्थात हस्तचालित संप्रेषण, अंग संकेत के माध्यम से प्रकटित रूप में संचारित भाषा संकेत भाषा अर्थात इशारा की भाषा अर्थात सांकेतिक भाषा कहलाती है। इसमें वक्ता के द्वारा अपनी विचारों को धाराप्रवाह रूप से व्यक्त करने के लिए हाथ के आकार, विन्यास और संचालन, बांहों अथवा शरीर तथा मुखपटल के हाव भावों का एक साथ उपयोग किया जाता है। इस प्रकार की संकेत अर्थात इशारों की भाषा का प्रयोग अत्यंत प्राचीन काल से ही भारत में युद्ध आदि काल में अपनी सूचना दूर बैठे अपने लोगों तक पहुंचाने आदि कार्यों में किया जाता रहा है।

एक विशेष प्रकार की आवाज अथवा विशेष वाद्य यंत्र का विशेष अंदाज में वादन या फिर ध्वज फहराने आदि कार्यों से गोपनीय सूचनाएं शत्रु से बचाकर सांकेतिक रूप में अपनों तक पहुंचाए जाने की कथाएं भारतीय प्राचीन ग्रंथों में बहुतायत से प्राप्य हैं। भारत में अत्यंत प्राचीन काल से ही मठ, मंदिरों, आश्रमों आदि धार्मिक, पंथीय समुदाय से संबंधित स्थलों, कोलाहल पूर्ण कार्यस्थलों, युद्ध स्थल, शिकार व अन्य गुप्त, गोपनीय कार्यों के समय, जहां वार्त्तालाप का प्रयोग वर्जित हो, अथवा अनुमत नहीं हो, ऐसे स्थानों पर हस्तचालित संप्रेषण अथवा संकेत भाषाओं का प्रयोग होता रहा है।

भारत के अनेक प्रदेशों में जंगली- पहाड़ी, पाट क्षेत्रों में निवास करने वाली विभिन्न मौखिक भाषाओं वाली आदिम जनजातियों के बीच संप्रेषण के लिए भी विभिन्न कार्यों के लिए उनके स्वयं के द्वारा विकसित संकेत भाषा प्रयोग में लाई जाती है। श्रवण शक्ति वाले लोगों द्वारा विकसित अन्य संकेत भाषाओं से भिन्न, यह बधिर संकेत भाषाओं के स्थानिक व्याकरण से मिलता-जुलता है। लेकिन वर्तमान में मात्र मूक, बधिर लोगों के समुदाय के मध्य अपनी बात संप्रेषित करने के लिए संकेत अर्थात सांकेतिक भाषा का प्रयोग किया जाने लगा है।

दरअसल यह प्राकृतिक व स्वाभाविक बात है कि ध्वनि शक्ति आवाज़ अर्थात ज़ुबान नहीं होने वाले लोग भी एक दूसरे से विचार व्यक्त करने की इच्छा होने पर अपने हाथों, सिर और शरीर के शेष अंगों के संचालन द्वारा संकेत करने की कोशिश करने लगते हैं। मूक लोग अक्सर ही ऐसा करते देखे जाते हैं। बधिर-मूक व्यक्ति भी व्यावसायिक लेन- देन के उद्देश्य के लिए इशारों से संवाद करते देखे गए हैं। वह होंठ की गति के माध्यम से भी ऐसा कर सकते हैं।

ऐसी कलाओं में दक्षता प्रदान करने के लिए अक्षरों का न्यूनीकरण और मूक लोगों को बोलना सिखाने की कला से संबंधित शिक्षा पद्धति का भी निर्माण किया गया है। मूक अथवा बधिर लोगों के संकेत से अपनी बात संप्रेषण में सहयोग और सुधार के लिए हस्तचालित वर्णमाला के रूप में हस्तचालित संकेतों के उपयोग द्वारा बधिर लोगों को मौखिक शिक्षा की विधि स्थापित की गई है। स्थानीय व पारंपरिक रूप से इस संसार में सैकड़ों संकेत भाषाएं प्रचलन में हैं और स्थानीय बधिर समूहों द्वारा इनका उपयोग किया जाता है। कुछ संकेत भाषाओं ने तो एक प्रकार की क़ानूनी मान्यता हासिल कर ली है।

आधुनिक इतिहास के अनुसार अधिकतर संकेत भाषाएं बधिर छात्रों के विद्यालयों के आस-पास विकसित हुई हैं। 1755 में अब्बे डी लेपी ने पैरिस में बधिर बच्चों के लिए प्रथम विद्यालय की स्थापना की। लॉरेंट क्लर्क उस विद्यालय का सुविख्यात स्नातक था। 1817 में क्लर्क, थॉमस हॉपकिन्स गलाउडेट के साथ हार्टफ़ोर्ड, कनेक्टिकट में अमेरिकन स्कूल फ़ॉर द डेफ़ की स्थापना के लिए संयुक्त राष्ट्र अमेरिका गए। गलाउडेट के बेटे एडवर्ड माइनर गलाउडेट ने 1857 में बधिरों के लिए वाशिंगटन, डी.सी. में एक विद्यालय स्थापित किया, जो 1864 में नेशनल डेफ़-म्यूट कॉलेज बन गया। अब गलाउडेट यूनिवर्सिटी के नाम से जाना जाता है और यह विश्व भर में बधिर लोगों के लिए एकमात्र उदार कला विश्वविद्यालय के रूप में विख्यात है। लेकिन देखने में तो यह भी आता है कि कभी-कभी एक ही परिवार के भीतर संकेत प्रणालियां विकसित होती हैं।

सांकेतिक भाषा कौशल की तनिक भी कोई जानकारी नहीं रखने वाले अर्थात श्रवण शक्ति सम्पन्न माता-पिता की संतान के बधिर हो जाने पर स्वाभाविक तौर पर संकेतों की एक घरेलू अनौपचारिक प्रणाली उस घर में विकसित होती है। ऐसे घरेलू संकेत संप्रेषण के उपाय अर्थात तरीके किसी अन्य तरीके के अभाव के कारण उत्पन्न होते हैं। एकल जीवनकाल में और समुदाय के समर्थन के बिना बच्चा अपने संप्रेषण की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए स्वाभाविक रूप से संकेतों का आविष्कार करता है। हालांकि बच्चे के बौद्धिक विकास के लिए इस प्रकार की प्रणाली समग्रतः अपर्याप्त है और यह सामान्य रूप से एक पूर्ण भाषा को परिभाषित करने के लिए भाषाविदों द्वारा निर्धारित मानक को किसी भी तरह से पूरा नहीं करता है।

घरेलू संकेत के किसी भी प्रकार को आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं है। लेकिन यह भी सत्य है कि सृष्टि काल में मानव सृष्टि के प्रारम्भिक काल से ही संकेत अर्थात इशारा मौखिक भाषाओं का विशेष घटक रहा है। और हस्तचालित संप्रेषण की विस्तृत प्रणालियां आज भी ऐसे स्थलों अथवा परिस्थितियों में विकसित होती दिखाई दे रही हैं, जहां बात-चीत प्रायोगिक नहीं अथवा वार्तालाप की अनुमति नहीं है। वर्तमान में धार्मिक, पंथीय समुदायों के मठ, मंदिरों, आश्रमों, स्कूबा डाइविंग, टेलीविज़न अथवा सिनेमा रिकॉर्डिंग स्टूडियो, कोलाहलपूर्ण कार्यस्थल, शेयर बाज़ार, बेसबाल, शिकार समूहों द्वारा, शराड खेल में, रग्बी यूनियन में रेफ़री के द्वारा दर्शकों को अपना निर्णय संप्रेषित करने के लिए सीमित लेकिन परिभाषित संकेतों का उपयोग किया जाता है। सांकेतिक भाषा की इन्हीं विशेषताओं के कारण छोटे बच्चों को उनके द्वारा बोलना सीखने से पूर्व ही  संकेत भाषा को सिखाने और प्रोत्साहित करने की प्रवृत्ति  आज अनेक परिवारों में चल पड़ी है।

इसका कारण यह है कि कुछ बच्चे मौखिक रूप से बोलना शुरू करने से पहले ही सांकेतिक भाषाओं के माध्यम से प्रभावी रूप से संप्रेषित करने में सक्षम होते हैं। वाक क्षति अथवा वाक में विलंब जैसे अन्य कारणों वाले ऐसे बच्चे जो बहरे नहीं हैं अथवा  सुनने में असमर्थ नहीं हैं, बोलने पर निर्भर न करते हुए प्रभावी संप्रेषण के लाभ की दृष्टि से संकेत भाषाओं के उपयोग करते देखे जाते हैं। ऐसे बच्चों के परिजन अपने बच्चों के लिए सांकेतिक भाषा शिक्षा की व्यवस्था करते हैं। बहरे लोगों के लिए आयोजित आयोजनों अथवा बधिर लोगों की बहुतायत रूप में उपलब्धता वाले कार्यक्रमों में संपूर्ण स्थानीय समुदाय द्वारा एक बधिर सांकेतिक भाषा को अपनाया जाता है।

बधिर समुदाय समस्त संसार में व्यापक रूप से प्रशस्त हैं। और उनके मध्य मौजूद संस्कृति अत्यंत समृद्ध है। उनके मध्य प्रचलित सांकेतिक भाषा और बधिरों की संस्कृति के संरक्षण की वकालत करने वाले एक संगठन विश्व बधिर संघ की स्थापना 23 सितम्बर 1951 को हुई। यह संघ 135 देशों के बधिर संगठनों से बना है, जो संसार के लगभग 7 करोड़ बधिर लोगों का प्रतिनिधित्व करता है। बधिरों के मानवाधिकारों की पूर्ण प्राप्ति में सांकेतिक भाषा के महत्व पर लोगों की जागरूकता बढ़ाये जाने उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 23 सितम्बर को अंतर्राष्ट्रीय सांकेतिक भाषा दिवस के रूप में घोषित किया है। प्रथम अंतर्राष्ट्रीय सांकेतिक भाषा दिवस 2018 वर्ष से शुरू हुआ।

विश्व बधिर संघ के अनुसार दुनिया में लगभग 80 प्रतिशत बधिर लोग विकासशील देशों में रहते हैं। फिर भी लोगों के बीच सामंजस्य की वकालत करने वाले वर्तमान संसार में बधिर समूह समाज में एक कमजोर समूह है। हालांकि बधिर समूह को समाज के सरकारी व गैरसरकारी विभिन्न संगठनों की ओर से देखभाल और समर्थन मिला है और उनकी स्थिति और जीवन में कुछ हद तक सुधार हुआ है। लेकिन अपनी परेशानियों और पूर्वाग्रहों के कारण बधिर लोगों के लिए वास्तव में समानता प्राप्त करना और समाज में भाग लेना आज भी मुश्किल, परेशानी व कठिनाई से भरी है।

इस स्थिति में बधिर लोगों को रोजगार पाने और स्वतंत्र होने में मदद करने, उनके समाजवादी आधुनिकीकरण में समान रूप से भाग लेने व आर्थिक विकास में योगदान देने, और उन्हें मुख्यधारा में शामिल कराने के लिए सांकेतिक भाषा को समझना, सीखना और प्रोत्साहन देना अत्यंत आवश्यक हो गया है। इससे न केवल अपनी भाषा को समृद्ध बनाया जा सकता है, बल्कि बधिरों को समाज में बेहतर भागीदारी और एकीकरण में मदद मिल सकती है। बधिर लोगों के लिए सांकेतिक भाषा बधिर संस्कृति का वाहक और मूल है और बधिर पहचान का आधार भी है। सुनने वाले लोगों के लिए सांकेतिक भाषा बहरे और सुनने वाले दोनों तरह के समूहों के बीच सुचारू आदान-प्रदान और सामंजस्यपूर्ण सामाजिक संबंधों के निर्माण के लिए मददगार साबित हो सकते हैं।

By अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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