यह बात पूरे भरोसे से कही जा सकती है कि लोकसभा चुनाव में हुए नुकसान को संभाल लेने में भाजपा सफल हुई है, तो उसके पीछे इंडिया में शामिल दलों की उद्देश्यहीनता एक प्रमुख कारण है।… हकीकत है कि भाजपा के पास एक विचारधारा एवं मकसद है, भले यह आम हित (common good) के लिए कितना ही खतरनाक हो। पर हिंदुत्व की विचारधारा और हिंदू राष्ट्र कायम करने का मकसद भाजपा समर्थकों को उसे समर्थन देने का तर्क देता है।
साल 2024 के मध्य में आए लोकसभा चुनाव के नतीजों से संकेत मिला कि नरेंद्र मोदी का आकर्षण और मजहबी ध्रुवीकरण की भाजपा/आरएसएस की राजनीति अब संभवतः डेडएंड (बंद गली) पर पहुंचने लगे हैं। तब ऐसा लगा कि आखिरकार जज्बाती मुद्दों पर रोजी-रोटी के सवालों के भारी पड़ने की शुरुआत अब हो सकती है। मगर साल का अंत आते-आते यह कहने का आत्म-विश्वास अब शायद किसी में नहीं बचा हो! यह एक बड़ा राजनीतिक उतार-चढ़ाव है। इस स्थिति को आखिर कैसे समझा जाना चाहिए?
विपक्षी दलों में इस गंभीर सवाल से उलझने की कोई तत्परता नजर नहीं आती। हर चुनावी जीत पर आह्लादित होना और हर पराजय की जिम्मेदारी इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) में हेरफेर और निर्वाचन प्रक्रिया में भेदभाव पर डाल कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाना उनके बीच आम पैटर्न है। पहले हरियाणा और फिर महाराष्ट्र के चुनाव नतीजों के बाद प्रमुख विपक्षी दलों की प्रतिक्रिया यही बताती है कि अपनी राजनीति और राजनीतिक शैली पर किसी आत्म-मंथन के लिए वे तैयार नहीं हैँ।
इस बात का मतलब यह कहना नहीं है कि भारत में निर्वाचन प्रक्रिया स्वच्छ, स्वतंत्र एवं निष्पक्ष बनी हुई है। बल्कि ये तीनों शब्द चुनाव प्रक्रिया के संदर्भ अपना अर्थ खोते चले जा रहे हैं। स्वच्छता और निष्पक्षता तो पहले ही संदिग्ध होने लगी थी, अब उपचुनावों के दौरान उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यक मतदाताओं को मतदान के रोकने की जैसी कोशिशें देखने को मिलीं, उससे यह कहना भी कठिन हो गया है कि चुनाव प्रक्रिया में भाग लेने की सबकी स्वतंत्रता बरकरार है।
लेकिन क्या विपक्ष के लिए यह गंभीर मुद्दा है? क्या इन दलों के गठबंधन- इंडिया ने आज तक चुनावी धरातल के असमान होते जाने के मसले पर कोई साझा रुख एवं साझा कार्यक्रम तय किया है? यहां तक कि सिर्फ हरियाणा और महाराष्ट्र की मिसाल भी लें, तो उस बारे में विपक्षी दलों का क्या कोई साझा रुख उभर कर सामने आया है?
इन सारे प्रश्नों का उत्तर है- नहीं।
यूपी में भी निर्वाचन आयोग ने कई पुलिसकर्मियों को निलंबित तो किया, मगर इस बेहद गंभीर मसले पर राज्य के बाहर के दलों को कोई चिंता हुई हो, इसके संकेत नहीं हैं। असल में प्रतिक्रिया सिर्फ इससे तय होती है कि कथित चुनावी धांधलियों से वह दल विशेष कितना प्रभावित हुआ है। यह प्रतिक्रिया भी क्षणिक होती है। हर हार के बाद तीन-चार दिन ईवीएम में हेरफेर और चुनाव आयोग की पक्षपातपूर्ण भूमिका की चर्चा उन पार्टियों के समर्थक करते हैं। फिर अगले होने वाले चुनाव की चर्चा में वे लग जाते हैं।
बेशक भारत में चुनाव प्रक्रिया की स्वच्छता बहुत बड़ा मुद्दा है। दरअसल, अगर सचमुच चुनाव स्वतंत्र एवं निष्पक्ष नहीं हो रहे हैं, तो इस समय इससे बड़ा राजनीतिक मुद्दा कोई और नहीं हो सकता। इसका अर्थ यह है कि देश में लोकतंत्र का अस्तित्व ही खतरे में पड़ रहा है। मगर दुर्भाग्यपूर्ण है कि विपक्षी दल इस गंभीर सवाल को अगंभीरता से उठाते हैं। इस बारे में जनता के बीच जागरूकता लाने की किसी योजना पर उन्होंने आज तक विचार नहीं किया है।
जब यह फौरी मुद्दा ही उनकी चिंता के दायरे में नहीं है, तो फिर भाजपा/आरएसएस को वैचारिक एवं रणनीतिक चुनौती देने की बात तो, जाहिर है, उनकी सोच से बाहर ही बनी रही है। 2023 में जब इन दलों ने इंडिया गठबंधन बनाने की पहल की और आखिरकार उसे बनाया, तो उम्मीद जगी थी कि शायद अब वे देश की राजनीतिक अर्थव्यवस्था एवं सामाजिक ढांचे के सामने पेश आई गंभीर चुनौतियों के प्रति जागरूक होंगे। मगर वास्तव में क्या हुआ? कुछ बातों पर गौर करेः
इंडिया गठबंधन ने कभी कोई साझा न्यूनतम कार्यक्रम तय करने पर विचार नहीं किया। इस तरह वो यह संदेश देने में नाकाम रहा है कि उसका कोई बड़ा मकसद है।
जो मकसद सामने है, उसे दो शब्दों- ‘मोदी हटाओ’ में समेटा जा सकता है। लेकिन यह नकारात्मक एजेंडा है। ऐसे एजेंडों के कामयाब होने की संभावना हमेशा ही न्यूनतम रहती है।
‘मोदी हटाओ’ भी शायद इसलिए उनके एजेंडे पर आया, क्योंकि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा बाकी दलों के लिए मौजूद जमीन को येन-केन-प्रकारेण सिकोड़ती चली गई है। केंद्रीय एजेंसियों का दुरुपयोग भी इस मकसद के लिए खुल कर किया गया है। यह कहने का आधार बनता है कि ‘मोदी हटाओ’ की प्रेरणा असल में उन एजेंसियों के दुरुपयोग से कठिन बनती गई परिस्थितियों से उत्पन्न हुई।
इन दलों ने ‘संविधान बचाओ’ का नारा जरूर उछाला है, मगर यहां भी वे संविधान और आरक्षण को समानार्थी बताते नजर आए हैं। यानी इसके जरिए वे जातीय गोलबंदी का कार्ड खेलते अधिक नजर आते हैं। नागरिक स्वतंत्रताओं के हनन और अल्पसंख्यकों को हाशिये पर धकेलने की कोशिशों पर उनकी जुबान अक्सर बंद ही रही है- कभी खुली भी तो कांपते अंदाज में।
याद कीजिए, इंडिया गठबंधन बनाने की प्रक्रिया पटना से बैंगलोर होते हुए अगस्त 2023 में मुंबई पहुंची थी। वहां बड़ा सम्मेलन हुआ। उसके बाद गठबंधन को चार महीने के लिए छुट्टी पर भेज दिया गया, क्योंकि साल के आखिर में चार राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में विधानसभा चुनाव थे। इन सभी राज्यों में कांग्रेस का बड़ा दांव था। वहां वह इंडिया गठबंधन के अंदर dominant पार्टी थी।
वहां कांग्रेस ने गठबंधन सहयोगियों के लिए कोई उदारता नहीं दिखाई। बल्कि मध्य प्रदेश में तो वहां के एक बड़े नेता ने अपमान का भाव दिखाया।
मुंबई सम्मेलन में तय हुआ था कि गठबंधन भोपाल में साझा रैली करेगा। मगर वहां कमान की कमान जिस नेता के हाथ में थी, उन्हें लगा कि सॉफ्ट हिंदुत्व का जो कार्ड उन्हें खेलना है, ऐसी रैली उसके विपरीत जाएगी। तो उन्होंने रैली ही नहीं होने दी।
जब उन चुनावों में तीन राज्यों में कांग्रेस हार गई, तब गठबंधन को अवकाश से बुलाया गया। चूंकि मोदी हटाओ एजेंडे में पूरे विपक्ष की दिलचस्पी थी, इसलिए लोकसभा चुनाव जितना करीब आया, उनकी सक्रियता उतनी अधिक बढ़ी।
गठबंधन नेताओं को इस बात का श्रेय दिया जाएगा कि लोकसभा चुनाव में भाजपा को लगे झटके का श्रेय लेने की होड़ उन्होंने (कम-से-कम सार्वजनिक तौर पर) नहीं लगाई। उन्होंने स्वीकार किया कि चुनाव जनता ने लड़ा। यानी जनता ने उनके जरिए अपने असंतोष को जताया।
इसीलिए अब यह तोहमत भी विपक्षी नेताओं के माथे आएगी कि उन्होंने जन मनोदशा से खुली संभावना को ठोस रूप देने की जरूरत महसूस नहीं की।
कांग्रेस में आत्म-विश्वास इतना बढ़ा कि हरियाणा विधानसभा चुनाव में उसने इंडिया में शामिल दलों- आम आदमी पार्टी और समाजवादी पार्टी को सिरे से झटक दिया। उधर अन्य राज्यों में dominant पार्टियां भी अब कोई उदारता दिखाने के मूड में नहीं रहीं। नतीजा यूपी के उप चुनावों में सपा के सख्त रुख और महाराष्ट्र में सीटों के लिए मची खींचतान में देखने को उभरा। उससे आम जन के बीच बहुत खराब गया।
संदेश यह गया कि इंडिया किसी साझा मकसद से प्रेरित नहीं है, बल्कि चुनावी गणना के मुताबिक सीटों का महज तालमेल है।
यह बात पूरे भरोसे से कही जा सकती है कि लोकसभा चुनाव में हुए नुकसान को संभाल लेने में भाजपा सफल हुई है, तो उसके पीछे इंडिया में शामिल दलों की उद्देश्यहीनता एक प्रमुख कारण है। भाजपा ने इस स्थिति को कैसे संभाला, इस पर ध्यान दिया जाना चाहिएः
भाजपा नेतृत्व ने समझा कि नरेंद्र मोदी का चेहरा अब चुनाव जिताने के लिए काफी नहीं है। इसके लिए स्थानीय समीकरण साधने होंगे।
भाजपा ने जातीय अंतर्विरोधों को उभारने और अलग-अलग जातियों को प्रतिनिधित्व देने की रणनीति पर जोर दिया। हरियाणा में जाट समुदाय के खिलाफ पिछड़ी एवं दलित जातियों में मौजूद भावना को उभारते हुए पिछड़ी-दलित जातियों के प्रतिनिधित्व की रणनीति अपनाई गई। इसी मकसद से लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद मनोहर लाल खट्टर की विदाई कर नायब सिंह सैनी को यह कुर्सी सौंपी गई।
दलितों के बीच वर्गीकरण का समर्थन कर भाजपा ज्यादातर अति दलित जातियों को अपने पक्ष में लाने में सफल रही।
महाराष्ट्र में ओबीसी जातियों की क्रीमी लेयर की सीमा बढ़ाने की मांग को मान कर और मराठा विरोधी भावनाओं को हवा देकर भाजपा ने इन जातियों को अपने पक्ष में गोलबंद किया। सवर्ण जातियों के बहुमत का समर्थन तो उसके साथ बना ही रहता है।
सीएसडीएस के सर्वे के मुताबिक इस चुनाव में मराठा-कुनबी समुदाय के 54 फीसदी, अन्य ओबीसी के 60 फीसदी, दलितों के 34 प्रतिशत, और आदिवासी समुदाय के 39 प्रतिशत मतदाताओं ने भाजपा को वोट दिया।
जातीय समीकरण के साथ “रेवड़ी बांट” कर वोट खरीदने की होड़ में भाजपा खुद को सबसे आगे दिखाने में कामयाब रही।
ऊपर से हिंदुत्व का डोज बढ़ाया गया। “वोट जिहाद”, “बटेंगे-कटेंगे” आदि जैसे गैर-हकीकी मुद्दों को उछाला गया।
हिंदुत्व को अधिक उग्र करने की रणनीति जम्मू में भी कामयाब रही।
झारखंड में जरूर इस रणनीति को सफलता नहीं मिली है। संभवतः इसलिए कि आदिवासियों की अपने पक्ष में पूर्ण गोलबंदी करने में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन सफल रहे। झारखंड में आदिवासी और अल्पसंख्यक मिल कर लगभग 38-39 फीसदी हो जाते हैं। अनुमान लगाया जा सकता है कि इन दोनों की गोलबंदी के साथ “रेवड़ी बांटने” की रणनीति के जरिए कुछ अतिरिक्त वोटों को जुटा कर वहां इंडिया गठबंधन भाजपा को परास्त करने में सफल हुआ है।
झारखंड में कामयाबी के बावजूद यह तो अब साफ हो चुका है कि मौजूदा तौर-तरीकों से इंडिया गठबंधन- या कोई राजनीतिक ताकत भाजपा/आरएसएस को ठोस चुनौती पेश नहीं कर पाएगी। इसकी वजह यह है कि विपक्षी दलों ने विचारधारा और बड़े मकसद से तौबा कर लिया है। कुर्सी हासिल करने के अलावा वे किसलिए राजनीति में हैं, यह स्पष्ट करना उनके लिए मुश्किल हो सकता है।
भाजपा की राजनीति में भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, अवसरवाद आदि जैसी वे तमाम बुराइयां ढूंढी जा सकती हैं, जो अन्य दलों के बारे में कही जाती हैं। बल्कि आज चूंकि उसके पास भारत की सत्ता का सबसे बड़ा हिस्सा है, तो भ्रष्टाचार जैसी बुराइयां उसमें सबसे ज्यादा ढूंढी जा सकती हैं। इसके बावजूद यह हकीकत है कि उसके पास एक विचारधारा एवं मकसद है, भले यह आम हित (common good) के लिए कितना ही खतरनाक हो। हिंदुत्व की विचारधारा और हिंदू राष्ट्र कायम करने का मकसद भाजपा समर्थकों को उसे समर्थन देने का तर्क देता है। भाजपा की सरकार की हर नाकामी के बावजूद यह उन्हें इस दल से जोड़े रख रहा है।
भाजपा सरकारों की जो नाकामियां हैं, वे रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े मसलों पर हैं। सच यह है कि रोजी-रोटी, गरीबी-महंगाई, और आम विकास के तकाजों का उसके पास कोई उत्तर नहीं है। दरअसल, ऐसा जवाब ढूंढना कभी उसकी राजनीति का हिस्सा नहीं रहा। स्वप्न दासगुप्ता ने अपनी किताब Awakening Bharat Mata में उल्लेख किया है कि एक बार लालकृष्ण आडवाणी ने उनसे बातचीत में स्वीकार किया था कि जनसंघ के दौर से कभी भी भाजपा की कोई आर्थिक सोच नहीं रही। आर्थिक मुद्दों पर वह सिर्फ मौके के हिसाब से प्रतिक्रिया तय करती रही है।
इसलिए भाजपा से देश की आर्थिक बेहतरी या खुशहाली की अपेक्षा रखना ही बेमतलब है। और यही कारण है कि इन मोर्चों पर उसकी ऐसी तमाम नाकामियों के बावजूद उसके समर्थकों को कोई फर्क नहीं पड़ता। उन्हें जिस एजेंडे पर गोलबंद किया गया है, कोई चाहे तो उसे नफरती एजेंडा कह सकता है। लेकिन यह एजेंडा आज सफल है। इसलिए कि इसमें देश के शासक वर्गों- खासकर एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग को अपने लिए उपयोगिता नजर आई है। उपयोगिता यह है कि भाजपा के पास रोजी-रोटी, कुछ हाथों में अकूत धन संचय, और आर्थिक शोषण को राजनीतिक चर्चा से अलग रखने का कारगर औजार हिंदुत्व के रूप में मौजूद है। इसीलिए शासक वर्गों ने भाजपा को अपनी प्रिय पार्टी बना लिया है। इसीलिए भाजपा के एजेंडे के पीछे इन तबकों के धन और प्रचार बल की पूरी ताकत हमेशा लगी रहती है।
यह आज एक वैश्विक परिघटना है। जिस किसी देश में चुनावी लोकतंत्र है, कुछ अपवादों को छोड़ कर अधिकांश जगहों पर शासक वर्ग ने किसी ऐसे नेता या दल पर अपना दांव लगा रखा है, जो विभाजक एजेंडे से ऐसा माहौल बनाने में सक्षम हो, जिससे लोग को अपनी जिंदगी के बुनियादी मसलों पर सोचने का वक्त ही ना मिले, अथवा उन्हें इसकी जरूरत ही महसूस ना हो।
मगर वही मसले ऐसे हैं, जिन पर वैकल्पिक कार्यक्रम पेश कर राजनीति मैदान ऐसी ताकतों का मुकाबला किया जा सकता है। 2024 में फ्रांस और श्रीलंका के चुनावों ने यह दिखाया कि कैसे जब विश्वसनीयता के साथ विकल्प पेश किया जा सकता है, तो लोग नफरती एजेंडे को ठुकरा कर उस विकल्प को मौका देते हैं। मेक्सिको और कुछ अन्य लैटिन अमेरिकी देश भी इसकी मिसाल बने हुए हैं। दूसरी तरफ 2024 ने यह भी साबित किया कि नफरती एजेंडे का सॉफ्ट रूप अपना कर इस एजेंडे के असली वारिस को चुनौती देने की कोशिश फेल होने का शर्तिया फॉर्मूला है। अमेरिका में कमला हैरिस की नाकामी इसका सबसे ताजा और ज्वलंत उदारण है।
भारत की राजनीतिक शक्तियां चाहें, तो इस वर्ष के अनुभवों से कुछ ठोस सबक ले सकती हैं। इंडिया गठबंधन में शामिल दलों से अधिक उम्मीद तो नहीं रखी जा सकती, मगर स्पष्ट सोच और साझा मकसद के साथ वे भाजपा के खिलाफ वे खड़े होंगे, यह उम्मीद खुद उन्होंने ही जगाई थी। इस बिंदु पर लोगों को मायूस कर वे खुद अपने भविष्य, बल्कि अस्तित्व के लिए जोखिम मोल लेंगे। फिलहाल, उनके लिए यह जोखिम बहुत बढ़ा हुआ नजर आ रहा है।