रेरिख ने भारत में जो समय बिताया वो एक रचनात्मक दृष्टि से उनके लिए सबसे ज़्यादा फलदायक साबित हुआ। भारत में लगभग 20 वर्षों तक रहने के दौरान उन्होंने एक हजार से भी ज़्यादा चित्र बनाए। इस दौरान उनकी कई पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं, जिनमें हज़ारों साहित्यिक निबंध लिखे गए थे। भारत में, उन्होंने शम्भाला, चंगेज खान, पवित्र पर्वत, तिब्बत, आश्रम, और साथ ही प्रसिद्ध हिमालय श्रृंखला जैसे चित्रों की एक अद्भुत श्रृंखला भी बनाई।
रेरिख की 150वीं वर्षगांठ को समर्पित
-मीता नारायण
साल 2024 महान रूसी कलाकार, विचारक, वैज्ञानिक, लेखक, कवि और दार्शनिक, निकोलाय कोन्स्तांतीनोविच रेरिख (1874-1947) की 150वीं वर्षगांठ को समर्पित है, जिन्होंने अपना रचनात्मक करियर रूस में शुरू किया और वो भारत में सम्पूर्ण हुआ। न केवल उनकी चित्रकलाएं, बल्कि उनकी कविताएं और किताबें भी कला, संस्कृति, लोगों और जीवन के प्रति उनके प्रेम को दर्शाती हैं।
निकोलाय रेरिख का जन्म 1874 में रूस के सेंट पीटर्सबर्ग में हुआ था। उनके पिता एक प्रसिद्ध नोटरी और सार्वजनिक हस्ती थे और उनकी मां का जन्म एक समृद्ध व्यापारी परिवार में हुआ था। रेरिख को उच्चतम स्तर की शिक्षा दी गई। बचपन से ही रेरिख को चित्रकला, इतिहास और पुरातत्व में गहरी रुचि थी और उन्हें कविताएं लिखने का भी शौक था। युवावस्था से ही रेरिख बेहतरीन चित्रकलाएं बनाते थे। इसलिए 16 साल की उम्र में वह एक कलाकार बनने के बारे में विचार करने लगे। 1893 में, हाईस्कूल समाप्त होने के बाद, उन्होंने (अपने पिता के अनुरोध पर) कला अकादमी में दाखिला लिया और साथ ही सेंट पीटर्सबर्ग यूनिवर्सिटी के विधि संकाय में भी अध्ययन शुरू कर दिया। अपनी प्राथमिक पेंटिंग्स में, रेरिख ने रूसी आध्यात्मिक संस्कृति को दर्शाने के लिए, अपनी मातृभूमि और अपने लोगों के इतिहास को चित्रित करने का प्रयास किया।
यूनिवर्सिटी से स्नातक होने के बाद, पेरिस और बर्लिन के संग्रहालयों और प्रदर्शनियों का दौरा करने के लिए रेरिख एक वर्ष के लिए यूरोप चले गए। फ्रांस में उन्होंने प्रसिद्ध कलाकार एफ कॉर्मन से चित्रकला भी सीखी। यूरोप जाने से ठीक पहले, रूस के त्वेर प्रांत में एक पुरातात्विक शोध के दौरान, उनकी मुलाकात अपनी भावी पत्नी येलेना से हुई, जो सेंट पीटर्सबर्ग के प्रसिद्ध वास्तुकार, इवान इवानोविच शापोशनिकोव की पुत्री थी। 1902 में, निकोलाय और येलेना रेरिख के घर में एक बेटे का जन्म हुआ, यूरी, जो आगे चलकर एक प्राच्यविद् वैज्ञानिक बने और 1904 में उनके दूसरे बेटे स्वेतोस्लाव का जन्म हुआ, जो अपने पिता की तरह एक कलाकार और एक सार्वजनिक व्यक्ति बन गया। 1903 और 1904 की गर्मियों में, ऐलेना और निकोलाय ने रूस के चालीस से अधिक प्राचीन शहरों की लंबी यात्रा की। निकोलस ने प्रकृति के कई रेखाचित्र बनाए और येलेना ने कई प्राचीन स्मारकों की तस्वीरें खींचीं।
रेरिख बहुत प्रतिभाशाली व्यक्ति थे जिनके हुनर, विभिन्न क्षेत्रों में देखे जा सकते हैं। वह एक विद्वान संपादक, उत्कृष्ट पुरातत्वविद्, अद्भुत कलाकार, प्रतिभाशाली सज्जाकार और सेट डिजाइनर और ग्राफिक्स के मास्टर थे। अपने पूरे जीवन में, रेरिख ने इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, इटली, अमेरिका, भारत आदि जैसे विभिन्न देशों और महाद्वीपों में विभिन्न प्रदर्शनियों का दौरा किया, कई हजार पेंटिंग, भित्तिचित्रों के रेखाचित्र बनाए, ओपेरा और बैले के लिए नाटकीय सेट और वेशभूषाएं बनाईं, और सार्वजनिक इमारतों और चर्चों के लिए मोज़ाइक और स्मारकीय भित्तिचित्र भी बनाए। 1921 में, न्यूयॉर्क में, रेरिख ने मास्टरइंस्टीट्यूट ऑफ यूनाइटेड आर्ट्स की स्थापना की। उनका मानना था कि कला, ज्ञान और सौंदर्य वे महान आध्यात्मिक शक्तियां हैं जो मानवता के भविष्य को एक नई राह दिखाएंगीं। न्यूयॉर्क में, रेरिख और उनकी पत्नी ने एक अंतर्राष्ट्रीय कला केंद्र की भी स्थापना की, जहां विभिन्न देशों के कलाकार अपनी प्रदर्शनियां प्रस्तुत कर सकते थे।
काव्य और दर्शन
एशिया और विशेष रूप से भारत, रेरिख के दिल के बहुत करीब था, जो उनके रचनात्मक कार्यों में अलग से झलकता है। वह पूर्वी मानसिकता की बारीकियों को गहराई से महसूस कर सकते थे और पूर्व के ऐतिहासिक विकास को अच्छी तरह से समझते थे। रेरिख ने मानवता को संस्कृति की एक नई परिभाषा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके लिए, संस्कृति मानव जाति के अस्तित्व का आधार है, जो लौकिक स्तर पर मानव जाति के विकास की अवधारणा से जुड़ी है। रेरिख के अनुसार, संस्कृति व्यक्ति के प्रति प्रेम है। संस्कृति जीवन और सौंदर्य का संयोजन है। केवल संस्कृति के माध्यम से ही एक व्यक्ति सुधर सकता है और अपने अस्तित्व के नए स्तर पर पहुंच सकता है। 1928 में, मध्य एशिया का अपना भव्य खोजयात्रा पूरी करने के बाद, उन्होंने संपूर्ण मानवता की सांस्कृतिक संपत्ति को सुरक्षित रखने के लिए रेरिख संधि नामक संधि तैयार की।
रेरिख की कविताएं और चित्रकलाएं एक दूसरे से घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई हैं, वे एक दूसरे की पूरक हैं। इन कविताओं को न केवल मैक्सिम गोर्की और लियोनिद आन्द्रेव जैसे रूसी लेखकों ने बल्कि भारत के महान कवि और लेखक, रबींद्रनाथ टैगोर ने भी सराहा है, जिन्होंने उनमें भारत के ज्ञान के साथ एक प्रकार का आध्यात्मिक संबंध देखा। स्वामी विवेकानन्द की किताबें, जो 1914 में रूसी भाषा में प्रकाशित हुईं थीं, वे निकोलाय रेरिख के लिए एक प्रबल प्रेरणास्रोत बनीं। उन्होंने वेदों और भगवद गीता का भी अध्ययन किया और उनसे बहुत प्रभावित हुए। रेरिख का काव्य अत्यंत आध्यात्मिक और मानवतावादी है, जो अंतरतम अर्थात आत्मा के जीवन के बारे में बात करता है। उनकी कविताओं की मुख्य विशेषता यह है कि पाठकों को उनका अर्थ समझने के लिए प्रयास करने की आवश्यकता होती है, अन्यथा उन्हें समझा नहीं जा सकता। जो लोग उन्हें सोच समझकर और ध्यान से पढ़ते हैं, और पूरे मन से उनके गहन दार्शनिक अर्थ को समझने की कोशिश करते हैं, उनके लिए यह काव्य ज्ञान, सौंदर्य, प्रेम और साहस की एक नई दुनिया की झलक बन जाता है। रेरिख की कविताओं में एकता और आध्यात्मिकता की भावना छिपी है। उनके द्वारा प्रयुक्त अनेक काव्य प्रतीकों को वेदों और उनके दार्शनिक अर्थों के माध्यम से समझा जा सकता है।
रेरिख का दर्शन व्यावहारिक, समीचीन और सदैव प्रासंगिक रहता है। यह हमें अतीत से भविष्य तक का मार्ग दिखाता है और दिव्य दुनिया के सार को सांसारिक वास्तविकता से जोड़ता है। रेरिख का मानना था कि मानव जाति का भविष्य काफी हद तक जीवन मूल्यों के सही चुनाव और उन्हें जीवन में उन्हें लागू करने की इच्छा पर निर्भर करता है। भविष्य का निर्माण मानवता के ज्ञान के आधार पर ही होगा। उनका मानना था कि लोगों को सत्य, सौंदर्य और न्याय के अनुसार जीने की आकांक्षा करनी चाहिए। अपने कार्यों में उन्होंने दिखाया कि कैसे ये अवधारणाएँ हमारी उच्च सोच और सद्भाव का विषय हो सकती हैं। निकोलाय रेरिख ने विश्व संस्कृतियों का गहरा अध्ययन किया। उन्हें विश्व के सभी धर्मों के अध्ययन में खास रुचि थी और उन्होंने अपने साहित्यिक, दार्शनिक और कलात्मक कार्यों के माध्यम से मानव जीवन में उनकी भूमिका को समझने का प्रयास किया।
भारत में रेरिख
1923 में, निकोलाय रेरिख अपने परिवार के साथ एक बड़ी वैज्ञानिक खोजयात्रा करने के लिए भारत आए थे। उसी वर्ष, उन्होंने सिक्किम और पूर्वी हिमालय के सांस्कृतिक स्मारकों का दौरा किया और बाद में भारत के पश्चिमी क्षेत्रों, चीनी तुर्किस्तान, सोवियत अल्ताई, मंगोलिया और तिब्बत की भी यात्रा की। उनकी यह खोजयात्रा दार्जिलिंग में समाप्त हुई। इस खोजयात्रा का उद्देश्य इन जगहों के सांस्कृतिक स्मारकों, स्थानीय लोगों की परंपराओं, रीति रिवाजों, धार्मिक विश्वासों, भाषाओं और संस्कृति का अध्ययन करना था। खोजयात्रा के बाद, रेरिख अपने परिवार के साथ पश्चिमी हिमालय में कुल्लू घाटी में बस गए, जहां उन्होंने ‘उरुस्वती’ हिमालय वैज्ञानिक अनुसंधान संस्थान की स्थापना की। संस्थान की स्थापना मध्य एशियाई खोजयात्रा के परिणामों का अध्ययन एवं विश्लेषण करने और भविष्य में हिमालय क्षेत्र के अध्ययन के लिए की गई थी।
निकोलाय रेरिख के लिए भारत एक स्थायी निवास स्थान के साथ-साथ उनकी दूसरी मातृभूमि भी बन गया। उनकी उपलब्धियों और आध्यात्मिक समझ को भारत में जगह मिली, अपनापन मिला। उन्होंने यहां जो चित्रकलाएं बनाईं, वे आत्मा की पवित्रता, सद्भाव, दया और आंतरिक ऊर्जा जैसे उच्चतम मानवीय गुणों का महिमामंडन करती हैं।
रेरिख ने भारत में जो समय बिताया वो एक रचनात्मक दृष्टि से उनके लिए सबसे ज़्यादा फलदायक साबित हुआ। भारत में लगभग 20 वर्षों तक रहने के दौरान उन्होंने एक हजार से भी ज़्यादा चित्र बनाए। इस दौरान उनकी कई पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं, जिनमें हज़ारों साहित्यिक निबंध लिखे गए थे। भारत में, उन्होंने शम्भाला, चंगेज खान, पवित्र पर्वत, तिब्बत, आश्रम, और साथ ही प्रसिद्ध हिमालय श्रृंखला जैसे चित्रों की एक अद्भुत श्रृंखला भी बनाई। उनकी रचनाओं में हिमालय को एक विशेष स्थान दिया गया है। हिमालय की गोद में व्यक्ति अपनी करुणा, शक्ति, और ऊर्जा से साहस, सहनशक्ति और धैर्य को जागृत कर पाता है। हिमालय ने रेरिख को अपनी उत्कृष्ट भावनाओं को व्यक्त करने की शक्ति दी। जब उन्होंने भारत दर्शन किए, तो उनकी पहली कुछ चित्रकलाएँ हिमालय की चोटियों को समर्पित थीं जैसे एवरेस्ट, कंचनजंगा, और नंदा देवी। प्राचीन भारतीय आध्यात्मिक सिद्धांतों, मानव विकास के लौकिक और ऐतिहासिक चक्रों की उनकी पुष्टि ने निकोलाय रेरिख की कल्पना को पर दिए और उनके विश्वदृष्टिकोण को आकार दिया, जो उनके साथ अंतिम सांस तक रहा।
रेरिख के अंतिम दिन
निकोलाय रेरिख ने अपने जीवन के अंतिम वर्षों, यानी 1940 के दशक में, नए कलात्मक विचारों से प्रेरित होकर नई चित्रकलाओं और उत्कृष्ट साहित्यिक कृतियों की रचना की। बीतते सालों के साथ रेरिख का कौशल और भी बेहतर होता गया। उनके चित्रों के रंग और समृद्ध हो गए, और उनका दार्शनिक अर्थ और गहरा होता गया। उनकी अनेक रचनाएँ न केवल दुनिया भर के विभिन्न संग्रहालयों में, बल्कि कई लोगों के निजी संग्रहों में भी रखी हुई हैं। रेरिख और उनकी रचनाओं ने न केवल रूस और भारत में, बल्कि दुनिया के कई अन्य देशों के सांस्कृतिक इतिहास में भी अपनी एक विशेष जगह बनाई है। उनके विचारों और उनकी आंतरिक दुनिया से परिचित होने से मानवता के लिए आध्यात्मिक दुनिया को समग्र रूप से समझने की एक नई दिशा मिलती है।
13 दिसंबर, 1947 को निकोलाय रेरिख का निधन हो गया। उनका अंतिम संस्कार किया गया और उनकी अस्थियों को उनके प्रिय हिमालय के सामने एक पहाड़ी पर दफना दिया गया। विश्व संस्कृति के इतिहास में निकोलाय कोन्स्तांतीनोविच रेरिख को सदैव एक दिग्गज के रूप में याद किया जाएगा। दुनिया भर में शांति फैलाने के लिए उनका महान कलात्मक योगदान हमेशा हमारे दिलों में रहेगा, और हमारी भावनाओं और विचारों को उन्नत व समृद्ध करेगा, और इसलिए रेरिख का नाम आने वाली सदियों तक इतिहास के पन्नों में अंकित रहेगा। (लेखक रूसी भाषाविद्, अनुवादक और जेएनयू के रूसी अध्ययन केंद्र की पूर्व प्रोफेसर हैं।)