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अगली दीवाली तक का प्रश्नपत्र

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मसला दीवाली और ईद का नहीं है। मसला होली और मुहर्रम का नहीं है। मसला दुर्गा पूजा, गणेशोत्सव और रमज़ान का नहीं है। मसला यह है कि क्रिसमस, गुडफ्राइडे, ईस्टर, प्रकाश उत्सव, बैसाखी, बुद्ध पूर्णिमा, महावीर जयंती, पर्यूषण, नवरोज़, ओणम, पोंगल, उगादी, बिहू, मोआत्सुमोंग, आदि-इत्यादि हमारे सामाजिक रसरंग को विस्तार देने के लिए हैं या उसे संकीर्ण बनाने के लिए?

दीवाली आई। दीवाली चली गई। दीवाली फिर आएगी। दीवाली फिर चली जाएगी। पटाखों पर पाबंदी के सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की हम ने कोई परवाह नहीं की। ऐसे किसी आदेश की हम कोई भी परवाह किसी भी दीवाली पर नहीं करेंगे। इसलिए कि गर्वीले हिंदू होने के नाते दीवाली पर धूमधड़ाके के साथ खुशी मनाना हमारा हक़ है। हमें नहीं मालूम कि प्रभु श्रीराम जब वनवास पूरा कर माता सीता के साथ अयोध्या लौटे थे, तब पटाखे हुआ करते थे या नहीं, लेकिन चूंकि अब वे होते हैं, इसलिए उन्हें फोड़ना-चलाना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। हमारे इस तरह के बुनियादी हक़ों पर पहरा लगाने वाला सुप्रीम कोर्ट कौन होता है? इस मामले में तो हम रामलला की भी नहीं मानेंगे।

अयोध्या में सरयू तट पर हर साल जलाए जाने वाले दीयों की संख्या में बढ़ोतरी कर नए-नए कीर्तिमान बनाए बिना अगर हम दीवाली मना लें तो हमारे हिंदू होने पर धिक्कार है। सात साल पहले 2017 में हम ने अयोध्या में 1 लाख 71 हज़ार दीये जलाए थे। उस के अगले बरस 3 लाख 1 हज़ार। 2019 में उन की संख्या 4 लाख 4 हज़ार हो गई और उस के अगले साल 6 लाख 6 हज़ार। 2021 में 9 लाख 41 हज़ार दीये जले और उस के अगले बरस 15 लाख 76 हज़ार। पिछले साल सरयू किनारे 22 लाख 23 हज़ार दीये प्रज्वलित हुए और इस साल 25 लाख।

अयोध्या में दीपोत्सव के आयोजन पर होने वाला करोड़ों रुपए का खर्च घुमा-फिरा कर करती तो उत्तर प्रदेश की सरकार ही थी, मगर इस साल से इस का ज़िम्मा राज्य पर्यटन विकास निगम से सरकार ने सीधे ख़ुद ही अपने हाथ में ले लिया है। रामलला चूंकि 500 साल बाद पहली बार, कलशहीन ही सही, लेकिन अपने नवनिर्मित भव्य-दिव्य आलय में दीवाली मना रहे थे, सो, आनंदोत्सव पर 1 अरब 33 करोड़ रुपए खर्च किए गए। दीपोत्सव के पिछले कुछ वर्षों में हुए आयोजन की अगली सुबह की तसवीरों के जैसे दृश्य अख़बारों के पन्नों और छोटे परदों पर नमूदार हुए थे, उस से द्रवित हो कर इस बार योगी आदित्यनाथ ने ऐसे इंतजाम किए कि हम-आप आंसू न बहाएं। इसलिए इस साल हमें निर्धन बच्चों-औरतों-बूढ़ों को बुझ चुके दीयों से बचे तेल की बूंदें अपने-अपने बर्तनों में इकट्ठी करने का मंज़र देखने के बजाय दीयों पर झाड़ू फिरते सरयू में उन के थोक-प्रक्षेपण के नज़ारों का दर्शन हुआ।

मैं आजकल देख रहा हूं कि आठ-दस साल से हमारे धर्मोत्सव-आयोजनों की बरस-दर-बरस बदलती शक़्ल ने मेरे कई समझदार-से-समझदार परिचितों को भी ऐसा घनघोर खूसट बना दिया है कि वे दीवाली-दशहरे-होली जैसे त्यौहारों पर ‘समानधर्मियों से ख़रीददारी करने’ का शोर मचाने लगे हैं। वे भंडारे की कतार में दो रोटी की आस लगाए खड़े बुभुक्षुओं में से कपड़ों के आधार पर पहचाने जाने वाले दूसरे मज़हब के लोगों को दुत्कार कर बाहर निकाले जाने जैसे धतकर्मों का महिमामंडन करने लगे हैं। वे मुस्लिम उपासना स्थलों के बाहर नंगी गालियों भरे कर्णकटु कु-गीत गाने को पूरी तरह जायज़ ठहराने लगे हैं। वे इन अपकर्मों से असहमति को कतई बरदाश्त नहीं करते हैं और असहमतों के हिंदूपन पर सवाल खड़े करते हैं।

हमारे धर्मोत्सव हमारी सनातन परंपराओं का हिस्सा हैं। वे धार्मिक-सांस्कृतिक उत्सव हैं। इन उत्सवों का बाज़ारीकरण होता देख हम कुनमुनाते तो रहे, मगर अंततः स्वयं को इस बाज़ार के हवाले कर दिया। अब अपने तीज-त्यौहारों को राजनीतिक और सांप्रदायिक पोखर में डुबकी लगाते देख कर भी हम सिर्फ़ पिनपिनाते ही रहेंगे और आख़िरकार ख़ुद को लट्ठमारों के आगे समर्पित कर देंगे या अपने अंतर्मन को थोड़ा हिलाएंगे-डुलाएंगे भी? अपने धर्मोत्सवों की लगातार आक्रामक होती जा रही शक़्ल हमें चिंतित क्यों नहीं कर रही है? उन का वीभत्स होता जा रहा चेहरा हमें परेशान क्यों नहीं कर रहा है? जीवन में आने वाले उत्सव हमारी सौम्यता, सरलता और विरलता में इजा़फ़ा करने के बजाय अगर हमारे भीतर की बर्बरता को नुकीला बनाने का ज़रिया बन रहे हैं तो इस के मूल कारणों को खोजना क्या ज़रूरी नहीं है? और, इस में खोजना है ही क्या? क्या है, जो हमारे सामने नहीं है? क्या है, जो हम जानते नहीं हैं? मालूम तो हमें सब है। लेकिन सच्चाई का सामना करने लायक बिसात हमारी अब रह ही नहीं गई है।

सच स्वीकार करना इसलिए मुश्क़िल होता है कि फिर परिस्थितियों को बदलने की जवाबदेही सिर पर आ जाती है। कौन यह झंझट मोल ले? सरकारों के लिए सब से सुखद स्थिति होती है दूसरी तरफ़ मुंह किए बैठे रहना। लेकिन जब समाज को भी मुंह चुराने में सुख मिलने लगे तो समझ लीजिए कि वह सर्वनाश की तरफ़ बढ़ रहा है। मसला दीवाली और ईद का नहीं है। मसला होली और मुहर्रम का नहीं है। मसला दुर्गा पूजा, गणेशोत्सव और रमज़ान का नहीं है। मसला यह है कि क्रिसमस, गुडफ्राइडे, ईस्टर, प्रकाश उत्सव, बैसाखी, बुद्ध पूर्णिमा, महावीर जयंती, पर्यूषण, नवरोज़, ओणम, पोंगल, उगादी, बिहू, मोआत्सुमोंग, आदि-इत्यादि हमारे सामाजिक रसरंग को विस्तार देने के लिए हैं या उसे संकीर्ण बनाने के लिए?

समाज विज्ञानियों के लिए इस सवाल का जवाब खोजना भी ख़ासा दिलचस्प हो सकता है कि क्या भारत के हिंदू-बहुल प्रदेशों में मुस्लिम आबादी के प्रतिशत का वहां की सांप्रदायिक तुर्शी से कोई लेना-देना है? उत्तर प्रदेश की आबादी में साढ़े 18 प्रतिशत मुसलमान हैं। बिहार में 17 प्रतिशत, मध्यप्रदेश में साढ़े 6 प्रतिशत, राजस्थान में 9 प्रतिशत, गुजरात में 10 प्रतिशत, दिल्ली में 13 प्रतिशत और हरियाणा में 7 प्रतिशत मुसलमान हैं। आंध्र प्रदेश में साढ़े 9 प्रतिशत, तेलंगाना में पौने 13 प्रतिशत, कर्नाटक में 13 प्रतिशत, केरल में साढ़े 26 प्रतिशत और तमिलनाडु में 6 प्रतिशत मुस्लिम हैं। पश्चिम बंगाल में 29 प्रतिशत, असम में 40 प्रतिशत और त्रिपुरा में 9 प्रतिशत आबादी मुस्लिम है। क्या राज्यवार होने वाली हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक घटनाओं की संख्या और आबादी में दोनों समुदायों की इस हिस्सेदारी के बीच कोई तालमेल आप को हर राज्य में दिखता है? या यह सिर्फ़ उत्तर-भारत के हिंदी प्रदेशों का परिदृश्य है?

2024 के आंकड़े भी तीन-चार महीने बाद आ जाएंगे, मगर पिछले साल के आंकड़े बताते हैं कि मुसलमानों के सीधा निशाना बनाते हुए उन के खि़लाफ़ नफ़रत फैलाने वाले 668 बेहद तीखे बयान और भाषण देश भर से सामने आए। इन में 255 वर्ष-2023 के शुरुआती छह महीनों में दिए गए और 413 दूसरी छमाही में। यानी 2023 के अंतिम छह महीनों में नफ़रती बयानों में 43 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हो गई। ऐसे कुल बयानों में से 498, यानी 75 प्रतिशत, उन प्रदेशों से उपजे, जहां भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं। सब से ज़्यादा उकसाऊ भाषण जिन तीन प्रदेशों में दिए गए, वे क्रमवार हैं – महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश। देश भर में दिए गए नफ़रती भाषणों में से 216 विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के खाते में हैं। 77 बयान अंतरराष्ट्रीय हिंदू परिषद और राष्ट्रीय बजरंग दल ने दिए। 50 ऐसे भाषणों का श्रेय भारतीय जनता पार्टी को है। 40 ऐसे बयान हिंदू जनजागृति समिति के लोगों ने दिए और 38 सकल हिंदू समाज ने। हिंदू राष्ट्र सेना और गौरक्षा दल ने 13-13 बयान दिए। हिंदू जागरण मंच ने 9 और हिंदू महासभा तथा श्रीराम सेना ने 6-6 नफ़रती बयान दिए। इसे आप क्या कहेंगे?

तो आइए, आप भी मेरी तरह इन प्रश्नों के साथ अगली दीवाली आने का इंतज़ार करें।

By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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