भारत का शहरी मध्य वर्ग मुसीबत में है। आम घरों का बजट बिगड़ गया है। गुजरी आधी सदी में इतनी खराब हालत पहले कभी नहीं हुई। पिछले चार साल में रोजमर्रा के उपयोग वाली लगभग हर जरूरी चीज की कीमत कम-से-कम एक चौथाई बढ़ चुकी है।।।। यह परिघटना पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था को चपेट में ले रही है। और इसी कारण है कि अभी कॉरपोरेट्स के दायरे में हाय-तौबा मची हुई है।
भारत में मध्य वर्ग सिकुड़ रहा है, ये तथ्य अब देश की मार्केट एजेंसियां और कॉरपोरेट सेक्टर भी बताने लगा है। सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उनकी सरकार और उनकी पार्टी ही अब ऐसा खेमा बचे हैं, जो इसे स्वीकार करना तो दूर, वे इसके विपरीत दावे कर रहे हैँ। तीसरे कार्यकाल का 100 दिन पूरा होने पर मोदी सरकार ने दावा किया कि पिछले दस साल में इस सरकार की प्रमुख उपलब्धि यह है कि अब देश में मध्य वर्ग बढ़ रहा है और आर्थिक विकास चक्र को गति देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
(https://pib।gov।in/PressNoteDetails।aspx?NoteId=152152&ModuleId=3®=3&lang=1)
लेकिन उपभोक्ता वस्तुओं की निर्माता कंपनियां कुछ अलग सूरत बयान कर रही हैं। एक प्रमुख कंपनी नेस्ले के भारत स्थित प्रमुख ने जो कहा, जो अब मेनस्ट्रीम नैरेटिव बन चुका है। कंपनी के चेयरमैन और महाप्रबंधक सुरेश नारायणन ने कहा- ‘उच्च वर्ग के उपभोग वाली वस्तुओं की बिक्री तो अब भी मजबूत है, लेकिन ऐसा लगता है कि मध्य हिस्सा, वह हिस्सा जिसमें ज्यादातर एफएमसीजी (फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स) का उपभोग होता था, सिकुड़ रहा है।’
(https://www।newindianexpress।com/business/2024/Oct/23/shrinking-middle-class-dragging-volumes-growth-nestle-chairman)
हालांकि देश में घटता आम उपभोग और बाजार में घटती मांग खासकर कोरोना काल के बाद से ही भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रमुख समस्या बने रहे हैं, मगर अब तक ये बात अर्थशास्त्रियों और गंभीर पत्र-पत्रिकाओं की चर्चा के दायरे में सिमटी हुई थी। हालांकि कंपनियों का बाजार इससे प्रभावित हो रहा था, फिर भी कॉरपोरेट सेक्टर के अधिकारी यह कहने से हिचकते रहे। संभवतः इसकी एक वजह देश का माहौल है, जिसमें सरकार को असहज करने वाली कोई बात कहना जोखिम भरा हो गया है। सोशल मीडिया पर बैकलेश (तीखी प्रतिक्रिया) के भय से वे लोग कुछ बोलने से हिचकते रहे। इस रुझान का स्वाद एशियन पेंट्स के सीईओ अमित साइंगल को इस वर्ष मई में चखना पड़ा था।
जब 2023-24 की चौथी तिमाही में एशियन पेंट्स की बिक्री में बड़ी गिरावट दर्ज हुई, तो एक चर्चा के दौरान साइंगल से पूछा गया कि जीडीपी की वृद्धि के साथ एशियन पेंट्स की बिक्री का संबंध क्यों टूट गया है? इस पर साइंगल ने जवाब दिया- आप सही कह रहे हैं इस वर्ष जीडीपी से (उत्पाद बिक्री का) संबंध गड़बड़ा गया है। मुझे भी यह महसूस होता है। मैं निश्चित रूप से नहीं बता सकता कि जीडीपी के आंकड़े कहां से आ रहे हैं।
(https://theprint।in/economy/not-sure-how-gdp-numbers-coming-asian-paints-ceo-points-to-disconnect-with-sectoral-performance/2086445/)
इस टिप्पणी पर साइंगल की इतनी ट्रोलिंग हुई कि उन्हें अपनी बात वापस लेकर स्पष्टीकरण जारी करना पड़ा। मगर जब बिक्री के गिरने और कंपनियों का राजस्व घटने का रुझान बढ़ता ही जा रहा है, तो उनके अधिकारी कब तक चुप रहेंगे? ट्रोलिंग नेश्ले प्रमुख की भी हुई, लेकिन उन्होंने कोई सफाई नहीं दी। उन्होंने जो कहा उसकी पुष्टि अन्य एफएमसीजी कंपनियों की बिक्री रिपोर्ट से भी लगातार हुई है। इनमें हिंदुस्तान लीवर, टाटा कंज्यूमर प्रोडक्ट्स, आईटीसी और रिलायंस जैसी बड़ी कंपनियां शामिल हैं। जाहिर है, अब हालत वहां पहुंच गए हैं, जब मेनस्ट्रीम मीडिया भी इस ट्रेंड से आंख नहीं चुरा सकता। तो अखबारों, खासकर वित्तीय अखबारों में मध्य वर्ग की मुश्किलों और उसके ह्रास पर लंबी-लंबी रिपोर्टें देखने को मिल रही हैं।
(https://www।reuters।com/world/india/indias-middle-class-tightens-its-belt-squeezed-by-food-inflation-2024-11-13/)
इस बीच मार्केट एजेंसी मार्सेलस इन्वेस्टमेंट मैनेजर्स की आई एक विस्तृत रिपोर्ट (https://marcellus।in/blogs/why-is-the-indian-middle-class-suffering/) ने इस चर्चा को और ठोस एवं तथ्यात्मक आधार प्रदान कर दिया है। इस रिपोर्ट में मध्य वर्ग के ह्रास की परिघटना के कारण और परिणामों की चर्चा की गई है। इस रिपोर्ट का सार हैः
उपभोग की स्थिति से स्पष्ट है कि भारत का शहरी मध्य वर्ग मुसीबत में है।
आम घरों का बजट बिगड़ गया है। गुजरी आधी सदी में इतनी खराब हालत पहले कभी नहीं हुई।
भारतीय अर्थव्यवस्था चक्रीय गिरावट के आरंभिक चरण में है। यानी आने वाले दिनों में इस गिरावट का और गंभीर रूप देखने को मिलेगा।
दफ्तरों और कारखानों में टेक्नलॉजी इनसान की जगह ले रही है। उससे रूटीन कार्य इनसान से छिनने लगे हैं। नतीजतन, रोजगार के अवसर घट रहे हैं।
रिपोर्ट में भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़ों के हवाले से बताया गया है कि घरेलू बजट की स्थिति 50 साल के सबसे बुरे दौर में है।
जीडीपी की तुलना में सकल घरेलू बचत इस समय 1976 के बाद के सबसे निचले स्तर पर है।
घरेलू बचत घटने का प्रमुख कारण अनसिक्योर्ड ऋण का बोझ बढ़ना है। खासकर ऐसा पिछले दो साल में हुआ है। अनसिक्योर्ड ऋण से मतलब बाजार में खुदरा ऋण के बढ़े चलन से है, जिसका कारोबार तेजी से बढ़ा है। ऐसे कर्ज सामान्य से बहुत ऊंची ब्याज दर पर दिए जाते हैं।
नियमित रोजगार के घटते अवसर परिवारों की हालत बिगड़ने का एक प्रमुख दीर्घकालिक पहलू है। मगर फौरी वजह पिछले चार साल में बढ़ी महंगाई है। मुद्रास्फीति के सामान्य आंकड़ों को ध्यान में रखें, तो पिछले चार साल में रोजमर्रा के उपयोग वाली लगभग हर जरूरी चीज की कीमत कम-से-कम एक चौथाई बढ़ चुकी है। लेकिन इस दौर में खाद्य मुद्रास्फीति की दर दस प्रतिशत के आसपास रही है। यानी हर महीने खाने-पीने की चीजें दस फीसदी की दर से महंगी हुई हैं। इसकी सीधी मार परिवारों के बजट पर पड़ी है।
भारत में शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, परिवहन जैसी आम उपभोग की सेवाओं के वास्तविक आंकड़े मुद्रास्फीति की सरकारी रिपोर्ट में प्रतिबिंबित नहीं होते। जबकि आम परिवारों को इन सभी मदों में खर्च में करना पड़ता है। इस खर्च में भारी इजाफा हुआ है।
आमदनी अगर बढ़ते खर्च (यानी महंगाई) के अनुपात में ना बढ़े, तो उसका सीधा परिणाम होता है उपभोग में कटौती। हर परिवार जरूरत की प्राथमिकता तय करते हुए इस सूची में नीचे वाली वस्तुओं या सेवाओं पर खर्च घटाने लगता है। एक समय के बाद उसका असर बाजार अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। भारत में अब यही स्थिति आ चुकी है।
एक रिपोर्ट के मुताबिक संगठित क्षेत्र में भी वेतन वृद्धि गिर गई है। एक रिपोर्ट में कहा गया है- ‘उपभोक्ता मांग में हर तिमाही में आती गई गिरावट की जड़ कॉरपोरेट सेक्टर में वेतन वृद्धि में आई गिरावट में ढूंढी जा सकती है। लिस्टेट कंपनियों में अब वेतन वृद्धि एक अंक में आ चुकी है, जबकि पिछले वित्त वर्ष तक दो अंकों में वृद्धि हो रही थी। ऐतिहासिक रूप से उपभोक्ता वस्तु निर्माता कंपनियों की बिक्री में वृद्धि का निकट संबंध लिस्टेड कंपनियों के वेतन मद में वृद्धि से रहा है।’
(https://www।business-standard।com/industry/news/pay-cheque-pinch-squeezes-consumer-demand-124112700964_1।html)
स्पष्ट है कि भारत में उपभोग, मांग, निवेश और वितरण का चक्र उलटी दिशा में चल रहा है। जब मध्य वर्ग के ह्रास की बात होती है, तो असल में वह उस कथा में इस पूरे दुश्चक्र की सच्चाई व्यक्त होती है। गौरतलब है कि मध्य वर्ग की धारणा सीधे तौर पर उपभोग से जुड़ी हुई है। मध्य वर्ग में कौन लोग आते हैं, यह किसी अर्थव्यवस्था (यानी देश) में परिभाषित नहीं है। इस बारे में अनेक परिभाषाएं मौजूद हैं। बहुत से जिन लोगों को किसी एक परिभाषा के तहत मध्य वर्ग कहा जाता है, तो दूसरी परिभाषा में उन्हें गरीब माना जाता है। (https://www।bbc।com/news/world-asia-india-41264072)
कुछ समय पहले YouGov (एक सर्वे एजेंसी)-मिंट-सीपीआर के नौजवानों के बीच किए गए सर्वे में जिन लोगों ने खुद को मध्य वर्ग का हिस्सा बताया, उनकी आय में भारी फर्क था। 50 हजार रुपये से कम आमदनी वाले 90 फीसदी नौजवानों ने खुद को मध्य वर्गीय बताया, जबकि चार लाख रुपये प्रति महीने से अधिक आय वाले 57 फीसदी लोगों ने भी खुद को मध्य वर्ग का हिस्सा माना। बहरहाल, चूंकि इस लेख में हम कंपनियों के नजरिए से चीजों को समझने की कोशिश कर रहे हैं, तो स्टेज वेंचर फर्म (एक खास स्तर पर मौजूद स्टार्ट अप्स में निवेश करने वाली कंपनियां) Blume Ventures ने जो परिभाषा प्रचारित की है, उस पर ध्यान देते हैं। इस परिभाषा का हवाला आज बड़े पैमाने पर दिया जाता है।
इसके हिसाब से भारत में मध्य वर्ग के भीतर प्रमुख रूप से दो तबके हैं। पहला तबका उन लोगों का है, जिनकी प्रति व्यक्ति सालाना आमदनी 12 लाख रुपये तक है। कंपनी के मुताबिक इस हिस्से में भारत के तकरीबन तीन करोड़ परिवार (या 12 करोड़ लोग) आते हैं। उसके नीचे आकांक्षी मध्य वर्ग है, जिसमें सालाना आमदनी प्रति व्यक्ति तकरीबन ढाई लाख रुपये है। इस वर्ग में 30 करोड़ लोग हैं। बाकी आबादी उन व्यक्तियों की है, जिनके पास रोजमर्रा की जरूरतें पूरी करने के बाद बाकी उपभोग के लिए कोई रकम नहीं बचती।
इन आंकड़ों को नेश्ले के सीईओ सुरेश नारायणन के आकलन से जोड़ें, तो उसका संकेत मिलेगा कि देश की उपरोक्त 12 करोड़ लोगों की आबादी खुशहाल है। यह भी कहा जा सकता है कि उसकी खुशहाली बढ़ रही है। लेकिन उसके बाद के जो 30 करोड़ लोग संकटग्रस्त हो गए हैं, जो Blume Ventures के मुताबिक आकांक्षी मध्य वर्ग में आते है।
बाकी 100 करोड़ लोग ऐसे हैं, जो आम तौर पर कॉरपोरेट सेक्टर के रडार पर नहीं होते। इस गणना में वे लगभग 20 लाख लोग शामिल नहीं हैं, जिन्हें भारत में धनी वर्ग में रखा जाता है- यानी वो जिनकी सालाना आमदनी एक मिलियन डॉलर (लगभग साढ़े आठ करोड़ रुपए) या उससे ऊपर है। वे देश के शासक वर्ग का हिस्सा हैं।
चूंकि मध्य वर्ग ही बाजार की रीढ़ होता है, इसलिए उसके एक बड़े हिस्से का संकटग्रस्त होना कॉरपोरेट सेक्टर की चिंता बना हुआ है। जब ऐसा हुआ है, तो यह मुद्दा मीडिया में झलकने लगा है। यहां यह ध्यान में रखना चाहिए कि मध्य वर्ग की धारणा ही उपभोग से जुड़ी हुई है। इसी वर्ग के पास disposable आमदनी होती है- यानी रोजमर्रा की जरूरतें पूरी करने के बाद उसके पास आमदनी का इतना हिस्सा बचता है, जिससे वह छोटी और मध्यम आकर की कारें, इलेक्ट्रॉनिक सामग्रियां, आदि जैसी अन्य durable एवं रोजमर्रा के उपभोग की चीजें खरीद पाता है। इस वर्ग के संकटग्रस्त होने का मतलब है, इन तमाम वस्तुओं के बाजार का सिकुड़ना।
कंपनियों के विमर्श में universe का मतलब सिर्फ उन्हीं लोगों से होता है, जिनके पास उनके उत्पाद को खरीदने की क्रय शक्ति हो। बाकी लोग उनकी निगाह में अप्रासंगिक होते हैं। 20वीं सदी में जब पूंजीवाद के सामने कम्युनिस्ट व्यवस्थाओं की चुनौती आई, तो पूंजीवाद के कर्ताधर्ताओं ने अपनी व्यवस्था का औचित्य साबित करने मध्य वर्ग की धारणा प्रचारित की। मकसद यह दिखाना था कि पूंजीवाद के तहत धन निर्मित होने पर ट्रिकल डाउन सिद्धांत के अनुरूप वह धीरे-धीरे रिस कर आबादी के सबसे गरीब हिस्सों तक पहुंचता है। इससे उन हिस्सों की उपभोग क्षमता बढ़ती है और धीरे-धीरे वे मध्य वर्ग का हिस्सा बन जाते हैं।
(https://newleftreview।org/issues/ii124/articles/goran-therborn-dreams-and-nightmares-of-the-world-s-middle-classes)
अमेरिका में जब राज्य ने नियोजन की भूमिका अपनाई, तब पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के तहत यह प्रक्रिया हकीकत में बदलती दिखी। तब “ग्रेट अमेरिकन मिडल क्लास” के हुए उदय को दुनिया भर के लिए मिसाल के रूप में पेश किया गया। भारत में भी आजादी के बाद लगभग उसी पैटर्न पर अपनाई गई अर्थव्यवस्था से मध्य वर्ग का विस्तार हुआ, हालांकि इस तबके में आने वाले लोगों की संख्या हमेशा सीमित ही रही। आबादी में बढ़ोतरी से भी मध्य वर्ग का आकार बढ़ा। आबादी का यही हिस्सा देशी-विदेशी कंपनियों का लक्ष्य समूह रहा है। इसी के बूते “भारत उदय” की कहानी गढ़ी गई।
लेकिन नव-उदारवादी नीतियों पर बेलगाम अमल ने जिस तरह अर्थव्यवस्था पर कुछ मोनोपोली घरानों का शिकंजा कस जाने दिया है, उससे संसाधनों का एकतरफा संग्रहण उन घरानों के पास हो रहा है। उनके कारोबार से जुड़े आबादी के हिस्सों को भी इस प्रक्रिया का लाभ मिला है। लेकिन इस दायरे से बाहर के तबकों की मुसीबतें बढ़ती चली गई हैं।
भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने अपने अध्ययन से यह दिखाया था कि किस तरह पांच सबसे बड़े मोनोपोली घराने भारत में महंगाई के लिए जिम्मेदार हैं। (https://thewire।in/economy/big-five-inflation-india-viral-acharya)
इस प्रक्रिया को सरकार ने कैसे प्रोत्साहित किया, उसके कुछ संकेत इन आंकड़ों से मिलते हैं, जिन्हें नरेंद्र मोदी सरकार ने संसद के शीतकालीन सत्र में रखा है।
संसद में बताया गया कि 2019-20 से 2023-24 तक केंद्र सरकार ने पेट्रोलियम पर टैक्स, सेस या शुल्क लगाकर 36,58,354 करोड़ रुपये वसूले।
सरकार ने पेट्रोलियम की कीमतों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने की भावना पर सचमुच अमल किया होता, तो इतनी रकम आम लोगों की जेब में पहुंचती। उससे लोगों की क्रय शक्ति बढ़ती।
मगर उलटे जीएसटी जैसे परोक्ष कर के जरिए ज्यादा से ज्यादा राजस्व वसूलने की नीति अपनाई गई, जिसकी मार भी गरीब एवं मध्य वर्गों की जेब पर पड़ी है।
दूसरी तरफ 2023-24 सरकारी बैंकों ने एक लाख 70 हजार करोड़ रुपए के ऋण माफ कर दिए। पांच साल में ये रकम लगभग नौ लाख करोड़ रुपये बैठती है। यानी इतना पैसों का उपहार कॉरपोरेट घरानों को दिया गया।
मैनुफैक्चरिंग को बढ़ावा देने के नाम पर प्रोडक्शन लिंक्ड इन्सेंटिव योजना के जरिए भी बड़ी रकम कॉरपोरेट्स को दी गई है।
इसके अलावा 2019 में कॉरपोरेट टैक्स में दी गई छूट से सरकार ने लाखों करोड़ रुपये का ट्रांसफर कॉरपोरेट्स को किया।
ये सब यह कह कर किया गया कि हाथ में अतिरिक्त संसाधन आने से कॉरपोरेट अधिक निवेश करेंगे, जिससे उत्पादन और उपभोग की अर्थव्यवस्था को बल मिलेगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं, क्योंकि कॉरपोरेट्स के लिए धन आम जन की जेब से जुटाया गया। इससे मध्य वर्ग की क्रय शक्ति गिरती चली गई है। और जब मांग ही नहीं रहेगी, तो उत्पाद किसके बीच बिकेंगे और नया निवेश किसलिए होगा?
गुजरे साढ़े तीन दशक में जिस रास्ते पर भारत की सरकारें चली हैं और जिस पर मोदी सरकार तेज रफ्तार से दौड़ी है, उसने बड़ी-बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को खोखला कर दिया है। इसकी सर्वश्रेष्ठ मिसाल अमेरिका ही है। जब वहां “ग्रेट अमेरिकन मिडल क्लास” का जीवन स्तर गिरता चला जा रहा है, तो इसमें क्या आश्चर्य कि भारत का मध्य वर्ग भी सिकुड़ रहा है। अब यह परिघटना पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था को चपेट में ले रही है। और इसी कारण है कि अभी कॉरपोरेट्स के दायरे में हाय-तौबा मची हुई है।