राज्य-शहर ई पेपर व्यूज़- विचार

आर्थिकी में सभी और दिख रही संपन्नता

भारत अभावों से युक्त अर्थव्यवस्था से एक संपन्न आर्थिकी में परिवर्तित हो रहा है। यह बड़ा परिवर्तन इतनी सरलता से हो गया कि किसी को इसकी भनक तक नहीं लगी। नौ साल की अवधि में प्रति वर्ष साढ़े पांच लाख से 25 लाख रुपये के बीच कमाने वालों में 20 प्रतिशत की औसत वार्षिक वृद्धि हुई है। ‘पीपल रिसर्च ऑन इंडियाज कंज्यूमर इकोनॉमी’ नामक शोध संस्था ने मध्यमवर्ग को उन लोगों तक सीमित किया है, जिनकी वार्षिक आय पांच लाख से 30 लाख रुपये वार्षिक के बीच है।

देश में त्योहारों का माहौल है। शारदीय नवरात्र, दशहरा और करवाचौथ के बाद धनतेरस, दीपावली, गौवर्धन-पूजन और भाईदूज का पर्व आएगा। सभी पाठकों को इन सबकी अग्रिम बधाई। हमारे तीज-त्योहारों की सुंदरता इसी बात में है कि ये जीवन के सर्वांगों को स्पर्श करती है। दीपावली पर लोग लक्ष्मी-पूजन करते है। किसी भी सुखी समाज में लक्ष्मी अर्थात् ‘अर्थ’ का बहुत महत्व होता है। चूंकि हम सभी भारत के अंग है, इसलिए हम देश में घटित प्रत्येक घटनाओं से प्रभावित होते है। जब पूरी दुनिया विगत चार वर्षों से कई प्रकार की चुनौतियों जैसे कोविड-19 के दुष्प्रभाव, मंदी, महंगाई और युद्ध आदि से त्रस्त है, तब भारतीय आर्थिकी इन कठिनाइयों से सफलतापूर्वक लोहा लेते हुए गतिशील बनी हुई है।

जिन पाठकों का जन्म 1947 या उसके एक-डेढ़ दशक बाद हुआ है, वे उस भयावह दौर से परिचित होंगे, जिसमें चीनी, दूध, वनस्पति आदि जैसे दैनिक खाद्य-वस्तुओं को खरीदने के लिए लोगों की लंबी-लंबी पंक्तियां लगती थी, तो सीमेंट, टेलीफोन, वाहन, स्टील इत्यादि बुकिंग के कई वर्षों बाद प्राप्त होते थे। इन सबकी कालाबाजारी तब सामान्य बात थी। आज की युवा पीढ़ी इस कुव्यवस्था से शत-प्रतिशत अनभिज्ञ है। सोचिए, आज भारत अभावों से युक्त अर्थव्यवस्था से एक संपन्न आर्थिकी में परिवर्तित हो रहा है। यह बड़ा परिवर्तन इतनी सरलता से हो गया कि किसी को इसकी भनक तक नहीं लगी।

बीते एक दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था बहुत तेजी से दौड़ी है। पाठक इसका अनुमान इस बात से लगा सकते है कि स्वतंत्र भारत को एक लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने में 60 वर्ष (1947-2007) लगे थे। फिर उसमें दूसरा लाख करोड़ डॉलर जुड़ने में सात वर्ष (2007-14) का समय लगा और 2014 से वर्तमान वित्तवर्ष में हम चार लाख करोड़ डॉलर की आर्थिकी बनने के मुहाने पर खड़े है। अर्थात्— 16 वर्षों में चार गुना की वृद्धि। इसी कारण भारतीय आर्थिकी, जो 2014 में दसवें पायदान पर थी, वह आज ब्रिटेन को पछाड़कर पांचवे क्रमांक पर पहुंच गई है। आशा की जा रही है कि वर्ष 2030 तक भारत, अमेरिका और चीन के बाद विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा।

आगामी दिनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा ‘विजन इंडिया@1947’ नामक दृष्टिपत्र जारी किए जाने की संभावना है। नीति आयोग के अनुसार, भारत 2030 तक 6.69 लाख करोड़ डॉलर, 2040 तक 16.13 लाख करोड़ डॉलर और 2047 तक 29.02 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बन सकता है। यह लक्ष्य चुनौतीपूर्ण अवश्य है, परंतु असंभव नहीं। इसका कारण देश की आर्थिक प्रगति को परिलक्षित करते कई प्रतिष्ठित और प्रामाणिक वैश्विक संगठनों के अनुमान भी है। ‘एसएंडपी ग्लोबल मार्केट इंटेलिजेंस’ द्वारा जारी नवीनतम आंकड़े के अनुसार भी भारत वर्ष 2030 तक जापान को पछाड़कर दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकता है।

अप्रैल-जून तिमाही में भारत की विकास दर 7.8 प्रतिशत थी। इस वृद्धि का कारण बीते एक दशक में औपचारिक स्वरूप लेती अर्थव्यवस्था, मांग में आती मजबूती, बुनियादी ढांचे में भारी निवेश, सेवा निर्यात में सतत बढ़ोतरी, सेवा क्षेत्र की संपन्नता, सकारात्मक उपभोक्ता और व्यावसायिक विकास का समर्थन है। विश्व बैंक द्वारा 3 अक्टूबर को जारी रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक चुनौतियों के बाद भी भारत लगातार लचीलापन दिखा रहा है और उसकी विकास दर जी-20 देशों के बीच दूसरे स्थान पर है।

नीति आयोग के अनुसार, यदि भारत को 2047 तक विकसित देश बनना है, तो देश को 2030 से वार्षिक रूप से 9 प्रतिशत की गति से बढ़ना होगा। निसंदेह, देश में गरीबी तेजी से घट रही है। गत वर्ष आईएमएफ और विश्व बैंक अपनी-अपनी रिपोर्ट में यह स्पष्ट भी कर चुके है। बात यदि मध्यमवर्ग की करें, तो इसकी सीमा और आकार भी बढ़ा रहा है। आयकर विभाग द्वारा जारी हालिया आंकड़े के अनुसार, व्यक्तिगत करदाताओं द्वारा दाखिल आयकर में 2013-14 और 2021-22 के बीच 90 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।

चालू वित्त वर्ष के दौरान भी आकलन वर्ष 2023-24 के लिए अब तक 7.41 करोड़ रिटर्न दाखिल किए जा चुके हैं, जिनमें 53 लाख नए करदाता हैं। बात केवल यही तक सीमित नहीं। 100 करोड़ रुपये या उससे अधिक की कमाई करने वाले करदाताओ की संख्या भी दोगुनी हो गई है। आकलन वर्ष 2021-22 (वित्त वर्ष 2020-21) में 500 करोड़ रुपये से अधिक की सकल कुल आय के साथ 589 करदाताओं ने रिटर्न भरा है।

वेतन आय अर्जित करने वालों के आयकर के विश्लेषण से यह भी पता चलता है कि नौ साल की अवधि में प्रति वर्ष साढ़े पांच लाख से 25 लाख रुपये के बीच कमाने वालों में 20 प्रतिशत की औसत वार्षिक वृद्धि हुई है। ‘पीपल रिसर्च ऑन इंडियाज कंज्यूमर इकोनॉमी’ नामक शोध संस्था ने मध्यमवर्ग को उन लोगों तक सीमित किया है, जिनकी वार्षिक आय पांच लाख से 30 लाख रुपये वार्षिक के बीच है। इस आकलन में यदि वेतन, व्यवसाय और पेशे, गृह संपत्ति, पूंजीगत लाभ और अन्य आय को शामिल कर दिया जाए, तो इसका आकार और अधिक बढ़ जाएगा।

देश का एक विकृत वाम-उदारवादी वर्ग अक्सर असमानता का ढपली पीटता है। अर्थशास्त्र में विश्व बैंक द्वारा प्रदत्त ‘गिनी सूचकांक’ किसी भी देश में आय असमानता को मापने का एक माध्यम है। इसमें सामान्यत: 40 से नीचे की गिनी को असमानता का स्वीकार्य स्तर माना जाता है। भारत, जापान, चीन, अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी में गिनी का स्तर 30-40 के बीच है। स्पष्ट है कि भारत का वर्तमान विकास, सभी वर्गों को लाभांवित कर रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार, 2024 तक करोड़ों भारतीय अपनी विदेश यात्रा पर 42 बिलियन डॉलर से अधिक खर्च करने को तैयार हैं।

यह कोई संयोग नहीं कि जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत अपनी मूल सनातन सांस्कृतिक जड़ों से स्वयं को पुन: जोड़ रहा है, तब देश के समेकित विकास को गति मिल रही है। दशकों पहले एंगस-बैरॉच के प्रामाणिक अंतरराष्ट्रीय आर्थिक अध्ययन भी इसी अकाट्य सच को अन्य शब्दों में व्यक्त कर चुके है।

Tags :
Published
Categorized as Columnist

By बलबीर पुंज

वऱिष्ठ पत्रकार और भाजपा के पूर्व राज्यसभा सांसद। नया इंडिया के नियमित लेखक।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *