दुनिया भर के देशों में भारतवंशी समाज ने दशकों के परिश्रम से राजनीतिक, कारोबारी और सांस्कृतिक प्रभाव हासिल किया है। उसे सामुदायिक विभाजन की आंच से हर हाल में महफ़ूज़ रखना भारत की किसी भी सरकार की पहली ज़िम्मेदारी होनी चाहिए। इसलिए परदेसी सरकारों के आड़े-तिरछे ताज़ा जालबट्टों से जितनी जल्दी हम ख़ुद को बाहर निकाल लें, उतना अच्छा।
कनाडा-अमेरिका प्रसंगों के बहाने प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी पर हमलावर हो रहे स्वजन्मे अंतर्दृष्टियुक्त प्रतिपक्षी अक़्ल‘मंदों’ के लिए मेरे मन में करुणा उपज रही है। जिन पर कनाडा में गोलियां चल गईं या जिन पर अमेरिका में गोलियां चलने की आशंकाएं ज़ाहिर की जा रही हैं, वे कोई लुई रिएल या मार्टिन लूथर किंग नहीं थे/हैं। वे भारत की धरती पर अतिवादी गतिविधियों को बढ़ावा देने के गुनाहों में गले-गले तक लिप्त कुसूरवार थे/हैं। अगर उन में से किसी एक को कनाडा में कुछ लोगों ने चटका दिया तो यह उन के बीच का मसला है। अगर उन में से किसी और को कुछ लोग अमेरिका में निपटाने की जुगत भिड़ा रहे हैं तो यह भी उन के बीच का मसला है। इस गैंग-वॉर से भारत सरकार का क्या लेना-देना?
हां, मगर भारत सरकार का इस बात से ज़रूर लेना-देना है, और होना ही चाहिए, कि आख़िर कनाडा और अमेरिका की धरती ऐसे तत्वों को शरण देने का काम क्यों कर रही है, जो भारत-विरोधी करतूतों के सरगना हैं? जो अमेरिका दूसरे मुल्क़ों की सार्वभौमिकता को ठेंगे पर रख कर सद्दाम हुसैन और ओसामा बिना लादेन को संप्रभु देशों की भौगोलिक सीमाओं के भीतर घुस कर मार देता है, क्या हम उस से यह सवाल भी नहीं कर सकते हैं कि वह भारत के शत्रुओं को अपने यहां फलने-फूलने क्यों दे रहा है? जो कनाडा बोलने की आज़ादी के नाम पर भारत विरोधी स्वरों, जुलूसों और कारस्तानियों को अपनी धरती पर पलने दे रहा है, क्या हम उस से यह पूछने के हक़दार भी नहीं हैं कि भारतीय विमान ‘कनिष्क’ के बीच आसमान में फट जाने के लिए ज़िम्मेदार तत्वों की बढ़त रोकने के लिए उस ने 39 बरस में क्या किया है?
पहली बात तो यह है कि मुझे नहीं लगता कि दूसरे देशों में रह कर आतंकवादी कारनामों के सहारे भारत की तबाही के मंसूबों को पूरा करने में लगे तत्वों को हमारी गुप्तचर संस्थाएं उन की ड्योढ़ी पर जा कर चुपचाप ठोक देती होंगी। मगर अगर ऐसा हो भी रहा हो तो दुनिया भर में यह पराक्रम दिखाने का अधिकार सिर्फ़ अमेरिका की सीआईए और उस की पुछल्ला बनी घूम रही कनाडा की सीएसआईएस को ही क्यों हो? अगर वैश्विक संसार में यह अलिखित दस्तूर निभाना अमेरिका-कनाडा के लिए जायज़ है तो भारत की रॉ ने क्या बिगाड़ा है? यह क्या बात हुई कि जब देश के दुश्मनों से निपटने का मामला हो तो अमेरिका और उस के उपग्रह-देशों की दादागीरी तो दुनिया भर में चलेगी, मगर भारत को आदर्श आचार संहिता का पालन करना होगा?
सो, अव्वल तो मुझे पूरा यक़ीन है कि हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई ने वैश्विक आचरण संहिता का उल्लंघन दस बरस में कभी किया नहीं होगा, मगर अगर इशारों-इशारों में कभी कुछ कर-करा भी दिया हो तो मैं तो इस मामले में उन के साथ हूं। हमीं हमेशा अपना दूरा गाल आगे किए क्यों घूमते रहें? दुनिया को यह अहसास दिलाने में क्या बुराई है कि भारत के पास भी ढाई किलो का हाथ है और जब वह किसी पर पड़ता है तो आदमी उठता नहीं, उठ जाता है! तो कनाडा को भी समझने दीजिए और अमेरिका को भी कि यह नरेंद्र भाई का हाथ है, कात्या; लोहा पिघला कर उस का आकार बदल देता है। सो, नो हैंग्की-पैंग्की। समझे?
अब जिस हरदीप सिंह निज्जर को ले कर कनाडा के प्रधान मंत्री जस्टिन ट्रुडो अपने दीदे बहा-बहा कर समूचे संसार को यह दिखाने में लगे हैं कि अपने देश के नागरिक की हिफ़ाज़त करना उन का कर्तव्य है, मैं आप को बताता हूं कि वह निज्जर कैसा कनाडाई नागरिक था। पंजाब में अशांति के दौर में निज्जर का परिवार खालिस्तानी चरमपंथियों को मदद दिया करता था। घनघोर उथल-पुथल के उन दिनों में 10 फरवरी 1997 को रवि शर्मा नाम से बने एक फ़र्ज़ी पासपोर्ट को ले कर निज्जर कनाडा पहुंचा। शरणार्थी का दर्ज़ा पाने के उस के कई आवेदन ख़ारिज़ कर दिए गए। फिर उस ने भारतीय मूल की एक कनाडाई नागरिक से विवाह कर लिया और इस आधार पर 2007 में उसे वहां की नागरिकता मिल गई। निज्जर का नाम कनाडा सरकार की ‘नो फ़लाई लिस्ट’ में था। अगले एक दशक में निज्जर ने सिख समुदाय में अपनी गतिविधियों का तेज़ी से विस्तार किया और 2018 में वह गुरुनानक गुरुद्वारे का मुखिया बन गया। 2014 और 2016 में उस के खि़लाफ़ दो इंटरपोल नोटिस ज़ारी हुए। उस पर ब्रिटिश कोलंबिया में सिख आतंकवादियों को प्रशिक्षण देने के लिए शिविर चलाने के गंभीर आरोप थे। अमेरिका में रह रहे गुरपतवंत सिंह पन्नू की मदद से 2016 में निज्जर का नाम ‘नो फ़लाई लिस्ट’ से हट गया।
तो यह है संक्षिप्त गाथा ‘कनाडाई नागरिक’ निज्जर की, जिस के लिए ट्रुडो ने अपनी पूरी जान झौंक रखी है। निज्जर-प्रसंग के लिए उन्होंने कनाडा-भारत संबंधों की पूर्णाहुति देने तक का शायद मन बना रखा है। इस झमेले में उन्होंने ‘फाइव आईज़’ को भी उलझा लिया है। बेहतर तो यह होता कि ‘मान-न-मान, मैं तेरा मेहमान’ अदा में कनाडा का नागरिक बन गए निज्जर की नागरिकता आतंकवाद को दिए जा रहे समर्थन की वज़ह से बहुत पहले ही रद्द कर दी जाती। मगर ट्रुडो पूरी निर्लज्जता से यह सियासत इसलिए कर रहे हैं कि अगले बरस अक्टूबर में होने वाले आम चुनाव में उन की बुरी तरह होने वाली हार की इबारत अभी से आसमान पर लिखी दिखाई दे रही है। लिबरल पार्टी में उन के खि़लाफ़ भारी बग़ावत हो गई है और उन से प्रधानमंत्री पद छोड़ने की मांग हो रही है। ट्रुडो को लगता है कि निज्जर-प्रसंग अगले चुनाव में उन्हें कनाडा में रह रहे क़रीब सवा सात लाख सिखों का समर्थन दिला देगा। कनाडा के प्रवासी भारतीय समाज की समरसता पर इस से पड़ रहे बेहद प्रतिकूल असर की फ़िक्र करने का शऊर उन में शायद है ही नहीं। वे जानबूझ कर यह भूले बैठे हैं कि कनाडा के भारतवंशियों में तक़रीबन साढ़े आठ लाख हिंदू भी हैं।
अब एक और मूल प्रश्न। क्या कनाडा-अमेरिका प्रसंगों ने विश्व-पटल पर भारत की छवि पर बट्टा लगाया है? क्या भारत सकार के बारे में इस तरह के संजीदा संदेह पनपे हैं कि उस की परदेसी भूमि पर अनुचित और अपराध सरीखे कर्मों में संलिप्तता है? सच कहूं तो यह धारणा निश्चित ही बनी है कि भारत ने कुछ मामलों में अंतरराष्ट्रीय राजनय के आधारभूत सिद्धांतों के दायरे से बाहर जा कर शायद कुछ कदम उठाए हैं। इसलिए इस बुनियादी सवाल पर नरेंद्र भाई को आने वाले दिनों में काफी शिद्दत से ग़ौर करना पड़ सकता है कि यह महज़ कनाडा और अमेरिका तक सिमटा रहने वाला मुद्दा ही बना रहेगा या ब्रिटेन, ऑस्टेªलिया, इटली, न्यूजीलैंड और साइप्रस जैसे उन मुल्क़ों के भारतवंशीय कैनवस पर भी इस के छींटे दिखाई देने लगेंगे, जहां सिखों की ख़ासी घनी उपस्थिति है?
दुनिया भर के देशों में भारतवंशी समाज ने दशकों के परिश्रम से राजनीतिक, कारोबारी और सांस्कृतिक प्रभाव हासिल किया है। उसे सामुदायिक विभाजन की आंच से हर हाल में महफ़ूज़ रखना भारत की किसी भी सरकार की पहली ज़िम्मेदारी होनी चाहिए। इसलिए परदेसी सरकारों के आड़े-तिरछे ताज़ा जालबट्टों से जितनी जल्दी हम ख़ुद को बाहर निकाल लें, उतना अच्छा।