नरेंद्र भाई की टोपी में अगर ईवीएम-फीवीएम तिकडमों का कोई खरगोश है भी तो इस हक़ीक़त से कैसे इनकार करें कि सामुदायिक, सामाजिक और जातिगत समीकरणों पर लगातार केंद्रित रहने का काम करने वाली एक बेहद प्रतिबद्ध पलटन भाजपा के पास है। क्षेत्रीय दलों के पास भले ही अन्यान्य कारणों से ऐसी टोलियां हैं, मगर कांग्रेस तो समर्पित हमजोलियों के नाम पर एक छिछली और सतही गुदड़ी ओढ़ कर पड़ी हुई है। इसलिए जब तक कांग्रेस अपने घिसेपिटेपन से मुक्ति की अंगड़ाई नहीं लेती, तब तक भाजपा को ढोते रहिए।
महाराष्ट्र और झारखंड के विधानसभा चुनावों और उन के साथ उत्तर प्रदेश समेत 15 राज्यों में हो रहे 2 लोकसभा क्षेत्रों और 48 विधानसभा क्षेत्रों में हो रहे उपचुनावों से झांक रहा प्रतिपक्षी एकजुटता का दृश्य देख कर जिन की जी नहीं मचला रहा है, मैं उन के धैर्य और आस की दाद देता हूं। हरियाणा का झन्नाटेदार थप्पड़ खाने के बाद भी जिस इंडिया-समूह को वे तारे नज़र नहीं आए हैं, जिन में निश्च्छल आपसी तालमेल की अनिवार्यता का पैगाम छिपा है तो 2029 की आकाशवाणी की धुन हम-आप अभी से समझ लें तो क्या बेहतर नहीं होगा?
उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव नहीं माने तो कांग्रेस संन्यास-भाव ओढ़ कर दधीचि बन गई। मगर फिर भी मध्यप्रदेश में अखिलेश को इतनी लाज नहीं आई कि अब शिवराज सिंह चौहान के बेटे की हो गई बुधनी में कांग्रेस का मान रखने के लिए अपना प्रत्याशी न उतारते। महाराष्ट्र में कांग्रेस को जितनी सीटें मिलनी चाहिए थीं, उद्धव ठाकरे और शरद पवार ने उस से दो दर्जन कम दीं। झारखंड में तेजस्वी यादव ने बाद में भले ही थोड़ी परिपक्वता दिखाई, मगर शुरुआत तो हेमंत सोरेन और कांग्रेस पर बेज़ा दबाव बना कर ही की।
तो अगर कोई सोच रहा हो कि उत्तर प्रदेश की 9 सीटों पर कांग्रेस आह्लादित हो कर समाजवादी पार्टी के साथ नाचेगी; कि महाराष्ट्र में कम सीटें मिलने से उम्मीदवारी के आकांक्षी जिन दिग्गज कांग्रेसी नेताओं के पंख झर गए हैं, वे उद्धव की शिवसेना और पवार की एनसीपी के साथ आनंदित हो कर ठुमके लगाएंगे; कि झारखंड में आरजेडी अब जेएमएम के साथ ‘तुम चंदन, हम पानी’ हो जाएगी; तो ऐसी मासूमियत पर कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा!
पश्चिम बंगाल से ले कर असम, मेघालय और सिक्किम तक; बिहार, छत्तीसगढ़, राजस्थान और गुजरात से ले कर उत्तराखंड तक; और पंजाब से ले कर कर्नाटक और केरल तक विपक्षी एकजुटता की गठरी का जर्जरपन नंग-धडंग हमारे सामने खड़ा है। इस सत्य पर, इस तथ्य पर, जिन्हें लीपापोती करनी हो, करें। जिन्हें मुंह बाए सामने खड़ी इस तीलीलीली-सच्चाई से आंखें चुरानी हों, चुराएं। लेकिन एक बात आज ही गांठ बांध लें कि महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावों के बाद, अगले आम चुनाव तक, 17 प्रदेशों की विधानसभाओं के चुनाव होंगे और अगर उन में प्रतिपक्षी एकजुटता का यही हश्र होता हुआ लोगों ने देखा तो 2029 में भी भारतीय जनता पार्टी का कोई राष्ट्रीय विकल्प तैयार हो पाने का सवाल तक भी नहीं उठेगा।
विपक्ष की एकता को जैसे-तैसे बचाए रखने की आज ज़हमत उठा रहे पुरोधाओं की प्रभावशीलता पांच बरस बाद की गर्मियों में कितनी रह जाएगी? शरद पवार तब 88 साल के होंगे। लालू प्रसाद यादव 81 के हो जाएंगे। सोनिया गांधी 82 की होंगी। उद्धव ठाकरे 69 के हो जाएंगे। एक राहुल गांधी को छोड़ दें तो क्या तब सुप्रिया सुले, तेजस्वी यादव और आदित्य ठाकरे को विपक्षी एकता का फलक अपने लिए चुंबकीय-तत्व की कारगर भूमिका में स्वीकार कर लेगा? क्या पांच साल बाद अखिलेश यादव, ममता बनर्जी और वाम-दलों का कोई प्रकाश करात, माणिक सरकार, पिनरई विजयन या डी. राजा प्रतिपक्षी बरामदे में सियासी-अप्सरा सरीखा आकर्षण केंद्र बने रह पाएंगे? विजयन तब 84 के हो रहे होंगे और करात 81 के।
अपरिवर्तनीय यथार्थ यह भी है कि नरेंद्र भाई मोदी भी पांच साल बाद 79 के हो रहे होंगे और भाजपा के भीतरी झंझावातों के बावजूद वे तब तक प्रधानमंत्री बने रह भी गए तो भी 2029 का चेहरा तो वे नहीं होंगे। यह भी असलियत है कि अमित शाह भले ही उम्र के लिहाज़ से तब 65 के ही होंगे, मगर संघ-कुनबे का अंतःपुर उन्हें भाजपा-सरकार की अगुआई करने वाला चेहरा नहीं बनाएगा। मगर 2029 के दृश्य से नरेंद्र भाई और अमित भाई की ग़ैरमौजूदगी के बावजूद 2029 में भाजपा की सेहत पर कोई ज़्यादा फ़र्क़ इसलिए नहीं पड़ेगा कि उस की हुकूमती संरचना ने इन दस वर्षों में ऐसी संस्थागत शक़्ल अख़्तियार कर ली है कि अगले पांच साल में यह मायने ही नहीं रखेगा कि शिखर-सूरत किस की है।
2024 के चुनाव नतीजों के बाद भाजपा से वह वक़्त तेज़ी से विदाई ले रहा है, जब पड़ने वाला हर वोट प्रत्याशी के बजाय सीधे नरेंद्र भाई को जाता था। एकल व्यक्ति-उपासना के दिन भाजपा से दफ़ा हो गए हैं। अब भाजपा के भीतर और उस के समर्थकों के बीच यह डर नहीं है कि नरेंद्र भाई नहीं होंगे तो क्या होगा? उन के न होने से भाजपा कहीं पूरी तरह डूब तो नहीं जाएगी? वे सब यह बात अच्छी तरह समझ गए हैं कि नरेंद्र भाई के होने के बावजूद भाजपा को जितना डूबना था, डूब चुकी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस अंतिम निष्कर्ष पर पहुंच गया है कि अब तो भाजपा को उबारने के लिए उसे मोदी-मुक्त किए बिना कोई रास्ता ही नहीं है। इसलिए मोहन भागवत भाजपा को व्यक्तिपरक दौर से बाहर खींच कर संगठनपरक राह पर ले जाने की कवायद में भिड़े हुए हैं।
ऐसा भी नहीं है कि अगर ज़रूरी हुआ तो हिंदू-मतदाताओं की आधारशिला को खिसकने से बचाए रखने वाला कोई चेहरा भाजपा के पास 2029 में होगा ही नहीं। क्या आप को लगता है कि योगी आदित्यनाथ जब महज़ 57 बरस के हो रहे होंगे, तब तक उन का ‘बटेंगे तो कटेंगे’ मंत्र का दम निकल चुका होगा? कड़वा घूंट निगल कर ही सही, इस वास्तविकता को स्वीकार कर लीजिए कि 2024 के चुनाव में वोट डालने गए साढ़े 51 करोड़ मतदाताओं में से साढ़े 23 करोड़ ने भाजपा का समर्थन किया है और साढ़े 36 प्रतिशत के इस आधार-अनुपात पर किसी के होने-न-होने से एकाध अंक नीचे-ऊपर से ज़्यादा का असर कुछ बरस तो पड़ता नहीं दिख रहा।
भाजपा से आमने-सामने की ताल ठोकने के लिए कांग्रेस को अपना मताधार कम-से-कम 15 प्रतिशत बढ़ाना होगा। अगर 3 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से यह बढ़ोतरी संभव नहीं है तो कांग्रेस के पास इस के अलावा क्या विकल्प है कि वह क्षेत्रीय दलों के साथ मिल-बांट कर आगे की राजनीति करे? और, अगर कांग्रेस जैसी अखिल भारतीय उपस्थिति वाले राजनीतिक दल के लिए अकेले मंज़िल हासिल करना अभी मुमकिन नहीं है तो फिर लोकसभा चुनाव में महज़ साढ़े चार प्रतिशत वोट हासिल करने वाली समाजवादी पार्टी, सवा चार प्रतिशत वोट लेने वाली तृणमूल कांग्रेस, दो प्रतिशत वोट झोली में डाले घूम रही बहुजन समाज पार्टी, डेढ़ प्रतिशत वाले राष्ट्रीय जनता दल, दो प्रतिशत वोट वाले वाम दलों, पौने दो प्रतिशत मताधार वाले द्रमुक और एक-एक प्रतिशत वाली आम आदमी पार्टी और राष्ट्रवादी कांग्रेस तो हैं किस खेत की मूलियां? सो, बिना छीनाझपटी किए एक मेज़पोश पर बैठे रहने की समझदारी अगर प्रतिपक्षी क्षत्रप नहीं दिखाएंगे तो उन का भाग्य मुझे तो इतना प्रबल दिखाई दे नहीं रहा कि अपने आप कोई छींका टूट कर उन की गोद में आ गिरे।
नरेंद्र भाई की टोपी में अगर ईवीएम-फीवीएम तिकडमों का कोई खरगोश है भी तो इस हक़ीक़त से कैसे इनकार करें कि सामुदायिक, सामाजिक और जातिगत समीकरणों पर लगातार केंद्रित रहने का काम करने वाली एक बेहद प्रतिबद्ध पलटन भाजपा के पास है। क्षेत्रीय दलों के पास भले ही अन्यान्य कारणों से ऐसी टोलियां हैं, मगर कांग्रेस तो समर्पित हमजोलियों के नाम पर एक छिछली और सतही गुदड़ी ओढ़ कर पड़ी हुई है। इसलिए जब तक कांग्रेस अपने घिसेपिटेपन से मुक्ति की अंगड़ाई नहीं लेती, तब तक भाजपा को ढोते रहिए।