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इंडिया-समूह के अंकगणित का बीजगणित

गठबंधन

28 दलों के राजनीतिक गठजोड़ ‘इंडिया-समूह’ का बदन ऊपर से देखने में तो इतना गठीला दिखाई देता है कि परसों से शुरू हो रहे साल की गर्मियां आरंभ होते-होते नरेंद्र भाई मोदी का पसीना छुड़ा दे। लेकिन इस तन के भीतर मन ज़रा जर्जर लग रहे हैं। सो, अभी तो सब-कुछ राम भरोसे नज़र आ रहा है। ज़रा सोचिए तो कि इंडिया-समूह के 28 राजनीतिक दलों में से 12 का लोकसभा में एक भी सदस्य नहीं है, मगर फिर भी निचले सदन में उसके पास 142 सांसद हैं। 98 सदस्य राज्यसभा में अलग हैं। देश भर में 1637 विधायक उस के पास हैं और विधान परिषदों में 120 सदस्य हैं। 10 प्रदेशों में इंडिया-समूह की सरकारें हैं। दस बरस के तक़रीबन निरंकुश मोशा-राज के बाद क्या यह इतनी मामूली उपस्थिति है कि कोई इस की आसानी से अनदेख कर सके?

इसलिए अगर इंडिया-समूह पूरे ईमानदार तालमेल और आपसी भलमनसाहत के साथ अपनी बिसात बिछाए तो क्या आप को नहीं लगता कि वह केंद्र में सरकार बनाने के लिए ज़रूरी 130 अतिरिक्त सीटें जीत सकता है? लालू प्रसाद-तेजस्वी यादव के राष्ट्रीय जनता दल का लोकसभा में अभी एक भी सदस्य नहीं है। बिहार की 40 सीटों में से इस बार वह कम-से-कम 15 जीतने की स्थिति में तो है ही। नीतीश के जनता दल यूनाइटेड की सीटें भी 16 से बढ़ कर 20 तक होने के आसार हैं। अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के अभी सिर्फ़ 3 लोकसभा सदस्य हैं। इस बार उत्तर प्रदेश में उसे 80 में से क़रीब 15 सीटें मिलने की उम्मीद करना तो कोई अतिरेक नहीं होगा। शरद पवार की नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी के पास महज़ 4 लोकसभा सदस्य हैं। महाराष्ट्र की 48 में से ज़्यादा नहीं तो 10 सीटें तो वह जीत ही सकती है। 6 सांसदों वाली उद्धव ठाकरे की शिवसेना को भी इस बार 15 के आसपास सीटें मिलने की उम्मीद है।

तमिलनाडु में एम.के.स्तालिन के द्रमुक की सीटें 24 से बढ़ कर कम-से-कम 30 तक पहुचेंगी। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस भी 23 से बढ़ कर 30 पर पहुंचने की स्थिति में है। वाम दलों, मुस्लिम लीग, नेशनल कांफ्रेंस और केरल कांग्रेस (मणि) वग़ैरह की हालत अगर जस-की-तस भी रही तो आम आदमी पार्टी अभी अपने एकमात्र लोकसभा सदस्य की संख्या को बढ़ा कर आधा दर्जन तक ले जाने का माद्दा तो रखती ही है। हेमंत सोरेन का झारखंड मुक्ति मोर्चा भी इस बार एक लोकसभा सदस्य की संख्या पर तो पड़ा नहीं रहेगा। अब बची कांग्रेस तो उस की मौजूदा 47 लोकसभा सदस्यों की तादाद कम-से-कम 95 का आंकड़ा तो आसानी से छू सकती है। अगर इंडिया-समूह के राजनीतिक दल 543 सीटों पर सचमुच एक सर्वसम्मत प्रत्याशी उतार ले गए तो कांग्रेस की सीटें 110 तक भी पहुंच सकती हैं।

यह अंकगणित केंद्र की मौजूदा सरकार को हलका-सा धक्का मार कर रायसीना की पहाड़ी से नीचे ठेलने में सक्षम है। मगर जितना यह अंकगणित आसान दिखाई दे रहा है, उतना ही असहज इस का बीजगणित नज़र आता है। ममता कह रही हैं कि वे सीटों की जो भी हिस्सेदारी करेंगी, पश्चिम बंगाल के बाहर करेंगी। अखिलेश उत्तर प्रदेश से बाहर तो अठखेलियों के लिए तैयार हैं, मगर अपने आंगन को दूसरों के नाच के लिए टेढ़ा ही रखना चाहते हैं। अरविंद केजरीवाल दिल्ली और पंजाब को तो अपनी सल्तनत मान ही रहे हैं, मौक़ा लगने पर गोआ इत्यादि में भी ठुमका लगाने की ललक पाले हुए हैं। यह दृश्यावली अगर जल्दी ही मनोरम नहीं हुई तो पिचका-दचका इंडिया-समूह क्या ख़ाक नरेंद्र भाई के लहीमशहीमपन का मुकाबला कर पाएगा?

ज़रूरत तो इस बात की है कि बंगाल में तृणमूल, वाम दल और कांग्रेस चंदन-पानी की तरह घुलमिल जाएं। उत्तर प्रदेश में अखिलेश, मायावती, जयंत चौधरी और कांग्रेस हिलमिल जाएं। दिल्ली और पंजाब में केजरीवाल और कांग्रेस की निष्कपट जुगलबंदी आकार ले। महाराष्ट्र में शरद पवार पूरी पारदर्शिता के साथ उद्धव और कांग्रेस की ताल से ताल मिलाएं। जम्मू-कश्मीर-लद्दाख में फारूक अब्दुल्ला, महबूबा मुफ़्ती, गुलाम नबी आज़ाद और कांग्रेस सब भूल-भाल जाएं और सिर्फ़ सियासी चिड़िया की आंख पर आंख रखें। लेकिन यह सब तो ऐसा है, गोया, सब-कुछ ख़ुदा से मांग लिया, इत्ता मांग के। इस के बाद तो मेरे हाथ और किसी दुआ के लिए कभी उठेंगे भी कैसे?

पर प्रभु श्रीराम भी क्या करें? जो इंडिया-समूह अपने पैरों के भरोसे, दौड़ने को तो छोड़िए, चलने में भी इतनी देर लगा रहा है, उसे सियाराम अपनी गोद में उठा कर कैसे रायसीना के सिंहासन पर धर दें? कोई इंडिया-समूह से पूछे कि 23 जून को जब पटना में 16 विपक्षी दलों ने बैठक कर तय कर लिया था कि वे इकट्ठे चुनाव लड़ने की तैयारी में लगेंगे तो फिर छह महीने से वे सब कहां ऊंघ रहे थे? 18 जुलाई को तो बंगलूर में इंडिया-समूह के गठन का बाक़ायदा ऐलान भी हो गया था। तो ये पांच महीने चिलम फूंकते रहने में किस ने निकाले? 31 अगस्त को मुंबई में हुई इंडिया-समूह की बैठक में तो गठबंधन की ख़ासी शक़्ल तैयार हो गई थी। फिर दिल्ली की बैठक साढ़े तीन महीने बाद अभी 19 दिसंबर को क्यों हो पाई? समय की परवाह न करने वालों की समय भी क्यों परवाह करे? सो, इंडिया-समूह की मुट्ठी से समय की काफी रेत तो वैसे ही फिसल चुकी है। उस के नेता अगर अब भी देर करेंगे तो अगली गर्मियों में खाली हथेली पसारे भटकते मिलेंगे।

कांग्रेस ने एक काम थोड़ा अक़्ल का किया कि गठबंधन के दलों से सीटों की हिस्सेदारी की बातचीत का ज़िम्मा अनुभवी और वरिष्ठ नेताओं की पांच सदस्यीय समिति को सौंपा। प्रयोगधर्मी उत्साहीलालों की तिकड़मों के चलते अगर यह काम चौआ-टोली के पास चला जाता तो सिर मुंडाते ही तमाम संभावनाओं पर ओले पड़ जाते। अच्छा हुआ कि यह भूमिका सांगठनिक समझबूझ रखने वाले अशोक गहलोत, भूपेश बघेल, मुकुल वासनिक, सलमान खुर्शीद और मोहन प्रकाश को मिली है। उन सब की अपनी-अपनी दक्षता और उपयोगिता है। मुझे लगता है कि सीट बंटवारे की आरंभिक प्रक्रिया पूरी होने के बाद घटक दलों से अंतिम हिस्सेदारी तय करने का काम सोनिया गांधी अगर अंततः स्वयं करेंगी तो बहुत-सी अलाएं-बलाएं ख़ुद-ब-ख़ुद टल जाएंगी।

मेरी समझ में अब तक यह भी नहीं आया है कि इंडिया-समूह के लिए बनी समन्वय समिति, चुनाव रणनीति समिति, अभियान समिति, मीडिया कार्य प्रकोष्ठ, सोशल मीडिया कार्य प्रकोष्ठ और शोध कार्य प्रकोष्ठ ने इस बीच आसमान के कौन-से तारे तोड़ लाने का संयुक्त प्रयास कर दिखाया है? मगर फिर भी मैं यह मान कर चल रहा हूं कि उन की कोशिशों का कोई सकल स्वरूप शायद जल्दी ही हमें देखने को मिले। मकर संक्रांति के दिन अपनी ‘भारत न्याय यात्रा’ आरंभ करने से पहले राहुल गांधी को इंडिया-समूह के कालीन पर सारे ज़रूरी पैबंद इतनी ख़ूबसूरती से चस्पा कर देने होंगे कि वे दूर तो दूर, पास से भी दिखाई न दें। वे ऐसा कर पाए तो मणिपुर से इंसाफ़ की डगर पर निकलने वाला उन का कारवां मार्च के तीसरे बुधवार को मुंबई पहुंचने तक आम चुनाव में विपक्षी विजय की इबारत लिख चुका होगा। मुश्क़िलें कम नहीं हैं, मगर अर्थवान देशवासियों की मनोकामना तो यही लगती है। सो, सकल-विपक्ष अगर आज लमहों की ख़ताएं करने से नहीं बचा तो सदियों तक उस का यह पाप कोई माफ़ नहीं करेगा।

By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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