आज पंथ-जमात की भीड़ को अहिंसा का पाठ कौन पढ़ाएगा? गांधीजी ने जनता को अहिंसक रहते हुए भारत छोड़ो आंदोलन के प्रति जागरूक किया था। जगह जगह हिंसा रोकने के लिए क्या आज कोई नेता हाथ उठा नेतृत्व देने में समर्थ है? आज तो जैसे को तैसा जताने का राष्ट्रवाद पनप रहा है। इसीलिए आज के समय में ही विदेश जा बसने वाले भारतीयों की संख्या अब तक की सबसे ज्यादा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फिर महात्मा गांधी का नाम ले कर आव्हान किया। उन्होने अगस्त सन् 1942 के मुंबई अधिवेशन में महात्मा गांधी द्वारा ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ नारे से शुरू किए गए आंदोलन की देश को याद डिजिटली दिलाई। विपक्ष पर खरी-खोटी फब्ती कसी। प्रधानमंत्री ने विपक्ष को आड़े हाथ लिया और जनता को भ्रष्टाचार, वंशवाद और तुष्टिकरण भारत छोड़ो का पाठ पढ़ाया। यह भी कहा कि आज पूरा देश हर बुराई के लिए कह रहा है – क्विट इंडिया।
उन्होने महात्मा गांधी के भावों को अपने ही विचारों में प्रकट किया। यह सब ऐसे लग रहा था जैसे देश की जनता अपनी राजनीति को और अपने गांधी विचारों को जानती ही न हो। देश में सत्ता के खातिर जो माहौल बनाया जा रहा है उसमें जनता के भी कुछ नारे हैं। पर इनकी किसी को सुध नहीं है। आखिर क्यों यह नहीं कहा जाना चाहिए कि देश में फैलती नफ़रत, गहराता अलगाववाद और छलीय राष्ट्रवाद छोड़े भारत!
प्रधानमंत्री को याद रखना होगा। अगर विपक्ष ढीला और कमजोर नहीं होता तो क्या देश की जनता उनको अपना प्रधानमंत्री चुनती? जिसने जनता से ही सत्ता पायी, क्या उसी जनता को पक्ष-विपक्ष का पाठ पढ़ाना सही है? अंग्रेज सरकार के लिए गांधीजी ने भारत छोड़ो नारे का इस्तेमाल इसलिए किया था ताकि जनता स्वतंत्रता के लिए भाईचारे में एकजुट हो सके। ऐसा नहीं था कि देश में भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध करने वाले नहीं थे। गांधीजी का आंदोलन अंग्रेज सरकार से स्वराज पाने के लिए था। उनका विरोध न अंग्रेज लोगों से था, न सन् बयालीस के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन का विरोध करने वालों से था।
तब अपने ही देश में भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध कौन कर रहे थे? सत्ता से बेदखल किए जा रहे राजा-महाराजा और पंथ-जमात की सत्ताकांक्षा में लगे मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा। इन्हीं नेताओं ने भारत छोड़ो आंदोलन से कैसे निपटा जाए, इसके लिए अंग्रेज सरकार को पत्र लिखे थे। बेशक इतिहास सत्ता गढ़ती है लेकिन भारत छोड़ो आंदोलन का यह भी इतिहास रहा है। आज देश में नफ़रत, अलगाववाद और छल-राष्ट्रवाद के भीड़तंत्र का जो माहौल है या बनाया जा रहा है वह न हिंदुस्तान, न ही भारत हो सकता है।
देश भर में नफ़रत के जो बीज बोए जा रहे है उस बबूल से कोई बचा नहीं रह सकेगा।जहां राज्यों में झगडालू, आत्मघाती अलगाववादी भीड़ जगह-जगह जुट रही हो उसकी आग से आगे कुछ भी अपना, या कोई भी अपना जले बिना नहीं रह पाएगा। छली-राष्ट्रवाद में जैसी नफ़रत और अलगाव का तिरंगा फैहराया जा रहा है उसमें न रंग बचेगा न उत्सव।
उस मौके पर प्रधानमंत्री ने विपक्ष पर निशाना साधने के अलावा खुद की सरकार द्वारा किए गए कुछ महत्वपूर्ण काम भी गिनाए। सही है कि भविष्य की जरूरतों की चिंता के लिए संसद की आधुनिक इमारत बने। लोकत्रंत के विकास के लिए भी जरूरी है। लेकिन सुचारू संसद चलाने के लिए सीमेंटी संकल्प से ज्यादा जरूरी संसदीय गरिमा, परस्परम मान-सम्मान, आदर भी पनपना चाहिए। जो सरदार पटेल खुद एकता के प्रतिमूर्ति थे उनकी प्रतिमा की उंचाई से ज्यादा उनके व्यवहार की गहरायी और सहृदयता के फैलाव पर भी देश का मजबूत होना संभव है। नए भारत का नया युद्ध स्मारक भी बनना चाहिए। नई पीढ़ी को भीड़ द्वारा नागरिकों को वस्त्रहीन या शहीद किए जाने पर भी शर्म आती है।
सही है कि लाखों युवाओं को रोज़गार मिले ताकि वे भीड़ का हिस्सा बनने से इनकार कर सकें। आखिकर युवाओं को बिना सार्थक दिशा दिखाए सड़कों के फैलाव को सही विकास कैसे माना जा सकता है? युवा ही अहिंसा के साध्य से विकास को नए पंख लगा सकते हैं बशर्ते उनको भीड़ का हिस्सा बनने से रोका जाए। गांधीजी ने तो बयालीस में अहिंसक ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन से ही स्वतंत्रता संग्राम की उर्जा पैदा की थी। आज पंथ-जमात की भीड़ को अहिंसा का पाठ कौन पढ़ाएगा? गांधीजी ने जनता को अहिंसक रहते हुए भारत छोड़ो आंदोलन के प्रति जागरूक किया था। जगह जगह हिंसा रोकने के लिए क्या आज कोई नेता हाथ उठा नेतृत्व देने में समर्थ है? आज तो जैसे को तैसा जताने का राष्ट्रवाद पनप रहा है। इसीलिए आज के समय में ही विदेश जा बसने वाले भारतीयों की संख्या अब तक की सबसे ज्यादा है।
कुल मिलाकर जिन नेताओं पर जनता ने विश्वास जताया उनमें दम नहीं है। इसलिए जनता को ही देश में नफ़रत, अलगाववाद और छली-राष्टवाद, भारत छोड़ो का नारा देना होगा।