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अंधों को भारतीयों की हथकड़ी-बेड़ी नहीं दिख रही!

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प्रधानमंत्री मोदी कहते थे कि 2014 से पहले भारत में जन्म लेना शर्म की बात थी। अर्थात दुनिया में जो सम्मान मिला है वह 2014 के बाद ही मिला है। और देख लीजिए क्या सम्मान मिला है?  रोजगार की तलाश में गए युवा भारतीय जघन्य अपराधियों की तरह हथकड़ी-बेडी में जकड़ कर लाए जा रहे हैं।…. सिखों के पाग और उतरवा दिए। और फिर गुरु दक्षिणा में वह वीडियो बनाकर पूरी दुनिया में और प्रसारित कर दिए कि देखो भारतीयों को कैसे जन्जीरों से जकड़ा जा रहा है।

अमेरिका केवल हथकड़ी-बेड़ी डालकर ही भारतीयों को वापस नहीं भेज रहा है बल्कि किस तरह उन्हें बांधा जा रहा है इसके वीडियो भी प्रसारित कर रहा है। और वह भी प्रधानमंत्री मोदी के अमेरिका जाने के बाद। और राष्ट्रपति ट्रंप से मिलकर उनके गदगद होने के बाद!

क्या फर्क पड़ता है? आज कुछ भी हो जाए न मोदी सरकार को फर्क पड़ता है और न शायद जनता को। एक से एक बड़ी घटनाएं हो गईं। मगर जनता उनसे विरक्त है। नफरत के नशे के बारे में बहुत सुना था मगर वह इतना जहरीला है कि पूरे देश की सोच समझ की ताकत को खत्म कर सकता है, देश को पूरा डुबोने की तैयारी कर सकता है, यह कभी नहीं सोचा था।

हिटलर के फैलाए यहूदियों के खिलाफ नफरत के बारे में यह लगता है कि उसे 75 – 80 साल हो गए। उसके दुष्परिणाम भी दुनिया ने देख लिए। जर्मनी के दो टुकड़े हो गए। हिटलर खुद सबसे बड़ा घृणा का पात्र हो गया। खुद को गोली मारना पड़ी इन सब के बाद लगता था कि इस नफरत की विचारधारा को कोई नहीं अपनाएगा। खुद अपने और अपने देश के विनाश के रास्ते पर कोई नहीं चलेगा मगर आप सोच सकते हैं, जो हो रहा है लिख सकते हैं लेकिन किसी को रोक नहीं सकते!

एक राहुल गांधी यह कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने सही तरीके से समय रहते इस नफरत को पहचाना। यह भी समझा कि यह कोई एक छोटा मोटा अलग थलग को मामला नहीं है। पूरा बाजार बना डाला है। इसीलिए उन्होंने नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान की बात कही। वे अकेले इस नफरत से लड़ रहे हैं। पढ़े लिखे हैं। दुनिया देखते हैं उन्हें मालूम है कि भारत इस नफरत से विश्व गुरु बनना तो दूर अपना सामान्य विकास भी नहीं कर पाएगा।

विश्व गुरु किसे चाहिए? क्या अन्तरराष्ट्रीय जगत में यह मांग कभी सुनी कि हम बिना गुरु के हैं। अन्धकार में है। कोई आकर ज्ञान दे। निकाले हमें अज्ञान से। सारा साइंस टेक्नोलाजी उनके पास। नेहरू के समय भारत में इस क्षेत्र में जो शुरूआत हुई थी वह अंधविश्वासों को बढ़ावा देकर खत्म कर दी। पैसा, उद्योग धंधे उनके पास। हमारे यहां यह सब भी खत्म कर दिया। निर्माण के बदले असेम्बलिंग ( जैसे अखबार के लिफाफे बनाने का काम होता था) का काम होने लगा। बेरोजगार ही बेरोजगार पैदा कर दिए। वही रोजगार की तलाश में अमेरिका गए थे। और अमेरिका क्या? रूस, युक्रेन, इजराइल में भाड़े के सैनिक तक बनकर गए।

तो अमेरिका कोई चोरी डकैती करने नहीं गए। रोजगार की तलाश में गए थे। और वहां से वापसी? तीन जहाज आ गए। जब पहला आया तो संसद चल रही थी। विदेश मंत्री ने कहा कि हम सुनिश्चित करेंगे कि हथकड़ी बेड़ी डालकर नहीं भेजा जाए। मिलिट्री जहाज से नहीं। उसके बाद प्रधानमंत्री की अमेरिका यात्रा भी हो गई। गोदी मीडिया बड़ा उत्साहित हो गया। ट्रंप ने यह कहा उनकी शान में वह किया। बन गए विश्व गुरु। जल गया विपक्ष। छा गए मोदी। पता नहीं क्या क्या टीवी में बोला और अखबारों में लिखा।

मगर हुआ क्या उसके बाद दो जहाज और आ गए। हथकड़ी बेड़ीं तो थी हीं। सिखों के पाग और उतरवा दिए। और फिर गुरु दक्षिणा में वह वीडियो बनाकर पूरी दुनिया में और प्रसारित कर दिए कि देखो भारतीयों को कैसे जन्जीरों से जकड़ा जा रहा है।

सत्तर साल में क्या हुआ? यह राग है जो प्रधानमंत्री मोदी से लेकर मीडिया तक हर वक्त बजता रहता है। सत्तर साल में कुछ नहीं हुआ! कांग्रेसी जवाब देने में कमजोर। केवल अपने निजी फायदे की बात में ही उनका दिमाग और जबान चलती है। अभी दस साल यूपीए की सरकार में मंत्री रहे। उससे पहले रहे।

संगठन में सभी उच्च पदों पर कब्जा जमा कर बैठे रहे। मगर कभी सामने नहीं आते। नहीं बताते कि सत्तर साल में भारत ने कितनी तरक्की की। उनके इस चुप रहने से ही प्रधानमंत्री मोदी की यह हिम्मत हुई कि उन्होंने कह दिया कि 2014 से पहले भारत में जन्म लेना शर्म की बात थी। दुनिया में जो सम्मान मिला है वह 2014 के बाद ही मिला है।

देख लीजिए कि कितना सम्मान मिला है। रोजगार की तलाश में गए युवा जघन्य अपराधियों की तरह हथकड़ी बेडी में जकड़कर लाए जा रहे हैं। कोई यह कहने को तैयार नहीं है कि सत्तर साल में कम से कम यह तो नहीं हुआ। भारत की विदेश सेवा के कुछ रिटायर अधिकारियों ने यह हिम्मत की। उन्होंने कहा कि न अपनी विदेश सेवा का नौकरी में देखा, न उससे पहले के बारे में कभी पढ़ा सुना और ने रिटायर होने के बाद देखा। यह पहला मौका है जब भारतियों को इस तरह बांध कर लाया गया हो।

सत्तर साल में पहली बार! मगर इससे क्या? सत्तर साल में पहली बार ऐसे ही कई कारनामे हो चुके हैं। चीन आकर हमारी धरती पर 20 सैनिकों को शहीद करके वहीं बैठ जाता है। और प्रधानमंत्री कहते हैं न कोई घुसा है न कोई है। हजारों किलोमीटर जमीन पर कब्जा कर लेता है। सेना कहती है। मगर सरकार कहती है नहीं। कितनी ही घटनाएं हैं। नोटबंदी मारे गए परेशान लोगों की। कोई जवाब है? क्यों बंद किया था हजार का नोट और दो हजार का चलाया। और फिर उसे क्यों बंद किया?

क्यों लाए गए काले किसान कानून? कितने किसान मरे। फिर वापस लिया। किसानों को खालिस्तानी, आतंकवादी, मवाली तक कहा। सत्तर साल में पहली बार। अचानक लाक डाउन करके हजारों किलोमीटर मजदूरों को पैदल दौड़ाया गया। सत्तर साल में पहली बार। पुलवामा में 50 से ज्यादा सुरक्षाकर्मी मरे। कैसे? आज तक

किसी को नहीं पता। यह सब सत्तर साल में पहली बार हुआ है।

मगर कोई कहने वाला नहीं। और ज्यादा सही यह है कि कोई कहे तो भी सुनने वाला कोई नहीं। गोदी मीडिया हर चीज का बचाव करती है। जनता को ही दोषी करार देती है। अभी दिल्ली रेल्वे स्टेशन पर हुई भगदड़ के बाद आरपीएफ ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि अचानक प्लेटफार्म बदलने के कारण भगदड़ मची। और ये मौतें हुईं। मगर रेल मंत्रालय ने तत्काल इस रिपोर्ट का खारिज कर दिया।

अपनी कोई गलती मानने का सवाल ही नहीं। जनता की गलती थी। ऐसे ही प्रयागराज कुंभ में हुई भगदड़ के लिए अभी तक कोई जिम्मेदारी तय नहीं हुई। उस पर भी विपक्ष पर निशाना साधा जा रहा है। जनता तो दोषी है ही। आज तक मरने वालों के सही आंकड़े नहीं बताए गए। बल्कि विधानसभा में मुख्यमंत्री योगी उर्दू और मौलवी का विषय ले आए। कठमुल्ला कह रहे हैं।

यही वह राजनीति है जिस पर भाजपा को पूरा विश्वास है। कोई मामला हो मुसलमान को बीच में ले आओ। कुंभ में भगदड़ के बाद मुसलमानों ने मदद की। श्रद्धालुओं के रुकने के लिए मस्जिदें खोल दीं। खाने पीने का इतंजाम किया। लेकिन फिर भी इल्जाम तो उनके सिर पर रखना था। उसी नफरत को फैलाने से ही तो भगदड़, मौतें, अव्यवस्था सब भूलकर लोग उर्दू और मुसलमान पर बात करने लगते हैं। भारतीयों का अपमान हथकड़ी बेड़ी सब भूल जाते हैं।

यही नफरत का नशा भाजपा की ताकत है। मगर यह नफरत किसी भी देश और समाज को बर्बाद भी कर सकती है। दुनिया में बहुत सारे उदाहरण हैं। ऊपर हिटलर का बताया। मुसोलोनी का इससे भी बुरा हाल हुआ था। यह दोनों उदाहरण हैं जनता को नफरत का नशा कराकर उसका ध्यान उसकी जिन्दगी के जरूरी मुद्दों से हटाने का। जनता नशे में जयजयकार करती है। मीडिया, देश की दूसरी संस्थाएं साथ देती हैं। मगर कब तक?

By शकील अख़्तर

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स के पूर्व राजनीतिक संपादक और ब्यूरो चीफ। कोई 45 वर्षों का पत्रकारिता अनुभव। सन् 1990 से 2000 के कश्मीर के मुश्किल भरे दस वर्षों में कश्मीर के रहते हुए घाटी को कवर किया।

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