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10 दिसम्बर को विश्व मानवाधिकार दिवस

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मानव की नैसर्गिक आवश्यकता मानवाधिकार

आदि सृष्टि काल में मानव सभ्यता के अस्तित्व में आने के साथ ही मनुष्य अपने अधिकारों के प्रति सचेत रहता आ रहा है। मानव के इन सनातन अधिकारों को ही वर्तमान में मानवाधिकार की संज्ञा दी गई है। मानव के ये अधिकार नैसर्गिक हैं। मानव होने के कारण उसे मिलने वाले मानव के सभी अधिकार ही मानवाधिकार कहलाते हैं। ये अधिकार मानव को जीवन जीने का अधिकार देते हैं। जीवन को सुखमय बनाने का अधिकार देते हैं। यह अधिकार प्रत्येक मानव के लिए होते हैं, किसी विशेष स्त्री या पुरुष अथवा किसी धर्म, संप्रदाय, जाति, वंश वर्ग, क्षेत्र, भाषा आदि के लिए नहीं। मानवाधिकार विश्वव्यापी है और यह सभी राष्ट्रों के सभी लोगों के लिए है। इन अधिकारों का आधार मानव स्वभाव में निहित होने के कारण ये प्रत्येक व्यक्ति को मानव होने के चलते जन्म होते ही प्राप्त हो जाते हैं।

मानवाधिकार एवं मूल स्वतंत्रता ऐसे व्यक्तिगत अधिकार हैं, जो मानवीय आवश्यकताओं और क्षमताओं पर आधारित होते हैं। ये वे अधिकार हैं, जिनके बिना व्यक्तित्व का हनन और प्रतिष्ठा का विनाश हो जाता है। इन मौलिक स्वतंत्रताओं के छिन जाने या इनमें विकृति आ जाने से मानव के दैवीय गुणों का हास हो जाता है। मनुष्य के गरिमामय जीवन जीने तथा उसकी स्वतंत्रता, समानता एवं प्रतिष्ठा की रक्षा को सुनिश्चित करने वाले अधिकारों को मानवाधिकार कहते हैं। मानवाधिकारों में जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता, शिक्षा और कानून के समक्ष समानता, आन्दोलन की स्वतंत्रता, धर्म, संगठन, सूचना तथा राष्ट्रीयता का अधिकार सम्मिलित है। दरअसल, मानव को जन्म के साथ ही आधारभूत, स्वाभाविक, अपरिवर्तनीय तथा अविच्छेद अर्थात अहस्तांतरणीय मानव अधिकार प्राप्त हो जाते है। इसीलिए इन अधिकारों को प्राकृतिक अधिकार और जन्म अधिकार भी कहा जाता है।

मानवाधिकार पर होने वाली वैश्विक चर्चाओं का सम्बन्ध केवल वर्तमान परिप्रेक्ष्य से नहीं है, बल्कि भारत में इसकी जड़ें सहस्त्राब्दियों पुरानी हैं। यद्यपि वेद में मानवाधिकार शब्द का उल्लेख नहीं हुआ है, तथापि भारत के वेदों, पुराणों एवं संहिताओं में मानवीय जीवन मूल्यों व मानव अधिकार को अनादि काल से ही स्पष्ट कर दिया गया है। वेद, पुराण एवं अन्य ग्रंथों  में शासन करने वालों को धर्म के आधार पर आचरण को ही आधार बनाने की उपदेश दी गई है। वसुधैव कुटुम्बकम, सर्वे भवन्ति सुखिन: एवं अहिंसा परमोधर्म जैसे आधारभूत सिद्धांत हमारे देश की ही देन है, जो वर्तमान मानवाधिकार के सिद्धांतों का मूल आधार है।

विश्वव्यापी मानवाधिकारों का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। प्राचीन भारत में धर्म में मानवाधिकार संरक्षण धर्म को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। राजा और प्रजा दोनों धर्म से बंधे हुए थे। राजा धर्म के विरुद्ध आचरण नहीं कर सकता था। धर्म के अंतर्गत ही सभी प्रजा जनों के अधिकार सुरक्षित थे। सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामाया, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुख भाग्यवेत्। -यह श्लोक भारतीय मानवतावादी चिंतन की धुरी रही है। प्राचीन भारत में लिंगभेद भी नहीं था। स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त थे। वे आदरणीय और शक्ति स्वरूपा मानी जाती थी। परिवार तथा समाज में नारी का स्थान सर्वोच्च और आदर्श माना जाता था। माता का स्थान गुरु और पिता से भी ऊंचा माना गया है। वेद, वेदांग, उपनिषद, पुराण आदि ग्रंथों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि स्त्रियों को सभी तरह के अधिकार प्राप्त थे। वे पुरुषों के समान ही शिक्षा प्राप्त करती थी। उन्हें संपत्ति का भी अधिकार प्राप्त था। याज्ञवल्क्य स्मृति 1/135-136 के अनुसार याज्ञवल्क्य संसार के प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने विधवा स्त्री को उसके पति की संपत्ति देने का समर्थन किया।

पौराणिक ग्रंथों में कई स्त्रियों के शस्त्र विद्या सीखने और उसमें पारंगत होने के उदाहरण मिलते हैं। अनेक विदुषी नारियों का वेद के सूक्तों का द्रष्टा होने का प्रमाण वेद में प्राप्य हैं। ऋग्वेद 10/ 39-40 वें सूक्तों की द्रष्टा ब्रह्मवादिनी घोषा, ऋग्वेद 1/27/7 की द्रष्टा ऋषि रोमशा, 1/5/29 की द्रष्टा विश्वारा, 1/10/45 की द्रष्टा इंद्राणी, 1/10/159 की द्रष्टा ऋषि अपाला थी। अगस्त्य ऋषि की भांति ही उनकी पत्नी लोपामुद्रा भी वेद सूक्तों की द्रष्टा थी। सूर्या नामक  एक अन्य ऋषिका का भी उल्लेख है। बृहदारण्यक उपनिषद के गार्गी-याज्ञवल्क्य संवाद भी प्राचीन भारत में स्त्रियों के ज्ञान प्राप्त करने में पुरुषों से पीछे नहीं होने का स्पष्ट प्रमाण प्रस्तुत करता है। रामायण में राजा दशरथ की पत्नी कैकेयी का देवसूर संग्राम में भाग लेने का उल्लेख है। प्राचीन भारत में प्रजा को भी अनेकानेक अधिकार प्राप्त थे। किसी के साथ भी ऊंच-नीच का व्यवहार नहीं किया जाता था। रामायण में स्वयं राम के द्वारा निषादराज को अपने पास आसन देकर उसका सम्मान करने और शबरी के जूठे बेर खाकर जात-पात के बंधन को नकारने का वर्णन है।

प्राचीन काल में नालंदा, विक्रमशिला और वल्लभी जैसे विश्वविद्यालय संसार के विभिन्न हिस्सों के छात्रों और विद्वानों के आकर्षण के केंद्र रहे हैं। विश्व के शीर्ष पर रहने का श्रेय भारत को शिक्षा के माध्यम से ही प्राप्त हुआ। विश्व गुरु भारत प्राचीन काल में ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में समूचे विश्व का नेतृत्व केवल इसलिए प्रदान कर पाया, क्योंकि उसकी शिक्षा तत्कालीन विश्व में सर्वोत्कृष्ट और मूल्यों पर आधारित थी। इस तरह स्पष्ट है कि भारत सहित सम्पूर्ण विश्व में मानवाधिकारों की जड़े अत्यंत गहरी है। आदि काल से ही भारत में मानव अधिकारों का विशेष ध्यान रखा जाता था, और धर्म में मानव अधिकार सुरक्षित रहते थे। भारत के बाहर भी विश्व के अनेक देशों में मानव अधिकारों के बारे में व्यापक जानकारी मिलती है।

वर्तमान समय में मानवाधिकारों के संरक्षण के लिए अनेक संस्थाएं प्रयासरत हैं। अनेक देशों में ऐसे सांविधानिक उपबंध किए गए हैं जिनसे मानव अधिकारों को सुरक्षित और सुरक्षित रखा जा सके, लेकिन इसके बाद भी अनेक लोग इनका उल्लंघन करने का प्रयास भी करते हैं। ऐसी स्थिति में मानव अधिकारों के संरक्षण के लिए वैश्विक स्तर पर अभी और प्रयास करने की आवश्यकता है। दरअसल अधिकार मानव जीवन की ऐसी परिस्थितियाँ हैं, जिसके बिना सामान्यतः कोई व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं कर सकता। इसीलिए संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार संबंधी  सार्वभौम घोषणा के अनुसार सभी मनुष्य समान अधिकार और स्वतंत्रता, जाति, रंग, भाषा, लिंग, धर्म, राजनीति या अन्य विचारधारा राष्ट्रीय या सामाजिक मूल सम्पत्ति जन्म या अन्य स्थितियों के किसी भेदभाव के बिना स्वतः मिल जाते है।

वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र महासभा के तत्वावधान में प्रतिवर्ष 10 दिसम्बर को विश्व मानवाधिकार दिवस मनाया जाता है। वर्ष 1948 में पहली बार संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 10 दिसम्बर को प्रतिवर्ष विश्व मानवाधिकार दिवस के रूप में मनाये जाने की घोषणा की गयी थी। इसे सार्वभौमिक मानव अधिकार घोषित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा के सम्मान में प्रतिवर्ष इस विशेष तिथि पर मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक में मानव अधिकार दिवस आधिकारिक तौर पर 4 दिसम्बर 1950 को स्थापित किया गया था। मनुष्य की ज़िंदगी, आज़ादी, बराबरी और सम्मान का अधिकार ही मानवाधिकार है।

भारतीय संविधान इस अधिकार की न सिर्फ़ गारंटी देता है, बल्कि इसे तोड़ने वाले को अदालत सजा देती है। भारत में 28 सितम्बर1993 से मानव अधिकार क़ानून अमल में आया। 12 अक्टूबर 1993 में सरकार ने राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का गठन किया। आयोग के कार्यक्षेत्र में नागरिक और राजनीतिक के साथ बाल मज़दूरी, एचआईवी-एड्स, स्वास्थ्य, भोजन, बाल विवाह, महिला अधिकार, हिरासत और मुठभेड़ में होने वाली मौत, अल्पसंख्यकों और अनुसूचित जाति और जनजाति के अधिकार आदि आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार भी आते हैं।

By अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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