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हिंदुत्व की म्यान और सजते धनुष-बाण

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पिछले दस साल में, और ख़ासकर पिछले पांच बरस में, मैं ने संघ-प्रमुख मोहन भागवत जी का जो आचार-विचार-व्यवहार देखा है, उस से यह अहसास होता है कि वे आरएसएस को उग्र और आक्रामक हिंदुत्व के नकारात्मक जंजाल से बाहर ला कर प्रगाढ़, पुष्ट और निर्भय हिंदूपन के सकारात्मक रास्ते पर ले जाना चाहते हैं।… मुझे लगता है कि वे संघ-प्रमुखों की श्रंखला में अंतिम ‘ओल्ड स्कूल’ अनुयायी हैं। उन के बाद शिक्षार्थियों की नई पीढ़ी से जन्मने वाला प्रमुख कैसा होगा, मालूम नहीं।

आरएसएस आतंकवादी संगठन है या नहीं, यह हुसैन दलवई जानते होंगे। मैं तो इतना जानता हूं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संध का इतिहास कई रहस्यों में लिपटा हुआ है। उस की अपनी एक तिलस्मी दुनिया है, एक मायावी संसार है। कोई नहीं जानता कि उसे मिलने वाले धन के स्त्रोत क्या हैं? 99 साल में आरएसएस ने कभी अपना हिसाब-किताब पेश नहीं किया है। वह कट्टर हिंदुत्व के विचार का पोषक है और समाज में इस विचार का विस्तार करने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाता है। वह छोटी उम्र से ही बच्चों को खेलने-कूदने के बहाने अपनी शाखाओं में षामिल कर उन्हें उग्र हिंदुत्व की विचारधारा का अनुगामी बनाने के लिए प्रशिक्षित करना षुरू कर देता है। वह मुस्लिम समुदाय के बारे में एक ऐसी अवधारणा प्रचारित करने में दिन-रात लगा रहता है, जिस से भारत के दो प्रमुख समुदायों में गहरे अलगाव की भावना बने, पनपे और बढ़ती रहे।

देश में हुए कई दंगों में आरएसएस का हाथ होने के मामले सामने आए हैं। कोई लाख मना करे, मगर यह जगज़ाहिर है कि महात्मा गांधी की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे के संबंध आरएसएस से थे। यह भी सच है कि आज़ादी के बाद देश के कई हिस्सों में संघ के बहुत-से स्वयंसेवकों के हिंसा, उकसावे, लूट, डकैती, हत्या और अवैध हथियार जमा करने के सबूत हैं। कुल चार बार आरएसएस पर सरकार की तरफ से पाबंदी भी लग चुकी है। बजरंग दल, अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद, विश्व हिंदू परिषद, गौ रक्षा दल, अभिनव भारत, हिंदू सेना, श्रीराम सेना जैसे अतिवादी संगठनों से आरएसएस का परोक्ष संबंध सब जानते हैं।

इसलिए भले ही आरएसएस के ये तमाम गुण-धर्म किसी भी उग्रवादी संगठन के लक्षणों से मिलते-जुलते तो निश्चित ही दिखाई देते हैं, मैं दलवई की तरह आरएसएस को सीधे-सीधे ‘आतंकवादी संगठन’ कहने की हद तक जाने को तैयार नहीं हूं। मगर यह तो कोई भी मानेगा कि उस की गतिविधियों का बहेलिया-जाल ऐसा रहा है कि आरएसएस को साफ-सुथरा सांस्कृतिक संगठन मानना भी किसी समझदार के लिए मुश्क़िल ही है। अगर वह शुद्ध सांस्कृतिक संगठन ही होता तो उस पर देश को आज़ादी मिलने के बाद चार बार सरकार पाबंदी क्यों लगाती? आरएसएस पर पहली बार पाबंदी 1947 में लगी थी। फिर 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के वक़्त। बाद में आपातकाल के दौरान और फिर 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के फ़ौरन बाद। जिन सरदार वल्लभ भाई पटेल 597 फुट ऊंची प्रतिमा का निर्माण नरेंद्र भाई मोदी ने 30 अरब रुपए से ज़्यादा खर्च कर के कराया है, उन्हीं सरदार पटेल ने देश का गृह मंत्री रहते 4 फरवरी 1948 को आरएसएस पर बैन लगाया था। तो कैसे कह दें कि संघ का दामन बेदाग है?

मगर अब थोड़ी राहत की बात यह लगती है कि पिछले दस साल में, और ख़ासकर पिछले पांच बरस में, मैं ने संघ-प्रमुख मोहन भागवत जी का जो आचार-विचार-व्यवहार देखा है, उस से यह अहसास होता है कि वे आरएसएस को उग्र और आक्रामक हिंदुत्व के नकारात्मक जंजाल से बाहर ला कर प्रगाढ़, पुष्ट और निर्भय हिंदूपन के सकारात्मक रास्ते पर ले जाना चाहते हैं। वे हिंदू धर्म की सर्वोच्चता तो चाहते हैं, मगर समाज में गै़रज़रूरी बंटवारे की धार तेज़ करने के पक्ष में शायद उस तरह नहीं हैं, जिस तरह पहले के संघ-प्रमुख हुआ करते थे या हमारे प्रधानमंत्री जी, गृहमंत्री जी और उन से भी ज़्यादा उत्साही उन के चेले-चपाटे आजकल दिखाई देते हैं। अगर जो मुझे लग रहा है, वह सही है तो अच्छा है। अगर ऐसा नहीं है तो भागवत जी के बाद आरएसएस की अराजकता, उग्रता, उद्दंडता, विकटता, प्रचंडता उसे किस आतंकी मुहाने तक ले जाएगी, मालूम नहीं।

आरएसएस के अंतर्मन में काफी विचलन आ चुका है। उस के स्वयंसेवक अब पर-उपकारी स्वयंसेवक नहीं रहे। उन में से ज़्यादातर अब स्वयं की सेवा में जुट गए हैं। वे पांच सितारा संस्कृति में रमते जा रहे हैं। वे बैंकाक और हांगकांग की तफ़रीह करने लगे हैं। वे देश-विदेश में अलग-अलग कारोबारों में पिछले दरवाज़े से प्रवेश कर चुके हैं। पहले वे संस्कारबली थे, अब वे झंकारबली हैं। उन के लिए देष की राजधानी के झंडेवालान में बारह-बारह मंज़िल के तीन टॉवर वाला दिव्य-भव्य मुख्यालय बन गया है। भाजपा की ही तरह आरएसएस भी कॉरपोरेटीकरण के युग में प्रवेश कर गई है।

स्वयंसेवकों की ऐसी पौध को संभालना मोहन भागवत जी के लिए असली चुनौती है। मुझे लगता है कि वे संघ-प्रमुखों की श्रंखला में अंतिम ‘ओल्ड स्कूल’ अनुयायी हैं। उन के बाद शिक्षार्थियों की नई पीढ़ी से जन्मने वाला प्रमुख कैसा होगा, मालूम नहीं। अब तक हम संघ द्वारा भाजपा को नियंत्रित करने के किस्से सुना करते थे। अब भाजपा द्वारा संघ को नियंत्रित करने की तिकड़मी कथाएं हमारे सामने आने लगी हैं। यह खतरा मामूली नहीं है। राजनीतिक फ़ायदे के लिए सामाजिक बंटवारे को उफ़ान के निर्लज्ज बिंदु तक ले जाते हम ने भाजपा के नेतृत्व को इस बीच देखा है। अगर उस पर भागवत के संघ का अंकुश न होता तो हालात और भी खराब होते। जिस दिन संघ और भाजपा के बीच का यह संतुलन गड़बड़ाएगा, उस दिन पता नहीं क्या होगा?

इसलिए हिंदुत्व की राजनीति इस वक़्त अपने घनघोर संक्रमण काल से गुज़र रही है। इस सियासत का अगला पहरुआ बनने की होड़ में भारतीय जनता पार्टी के भीतर मार-काट मची हुई है। योगी आदित्यनाथ के ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ के जवाब में प्रधानमंत्री मोदी को ‘एक रहेंगे, सेफ़ रहेंगे’ नारा इसीलिए देना पड़ा है। योगी अपने को और भी कट्टर हिंदुत्ववादी साबित करना चाहते हैं। नरेंद्र भाई का आंतरिक आचरण भी वही है, मगर दिखावे के लिए वे ख़ुद को ज़रा नरमपंथी बता रहे हैं। महाराष्ट्र में योगी के नारे को भाजपा के ही कुछ लोग ऐसे ही ग़ैरज़रूरी नहीं बता रहे हैं। चुनावी मजबूरियों के साथ-साथ इस के पीछे नरेंद्र भाई-योगी बाबा की गुटीय रस्साकशी भी है। दोनों के समर्थक जानते हैं कि अगले साल के मध्य में भाजपा की सांगठनिक संरचना नया आकार लेगी। इसलिए अभी से वर्ज़िश शुरू हो गई है।

एक बार झारखंड और महाराष्ट्र के और फिर उस के तुरंत बाद दिल्ली के विधानसभा चुनाव निपट जाने दीजिए। फिर हम-आप भाजपा के भीतर ताताथैया का असली नज़ारा देखेंगे। तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख का पद हथियाने के लिए भी तरह-तरह के बघनखे निकलते आप को दिखेंगे। मैं पूरी तरह इस निष्कर्ष पर पहुंच चुका हूं कि 2025 का अंत आते-आते दोनों में से कोई एक ही अपना सिंहासन सुरक्षित रख पाएगा। या तो नरेंद्र भाई रहेंगे या भागवत जी। हिंदुत्व की म्यान में अब नरेंद्र भाई और योगी एक साथ रह ही नहीं सकते। सो, यह अंतिम युद्ध तो अब टाले नहीं टलेगा। तरकश सजते तो हम देख ही रहे हैं। बाणों की बौछारें भी जल्दी देखेंगे।

By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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