वेदों की रक्षा के लिए जिस विधि का विधान किया गया, वह अष्टविकृतियुक्त वेदपाठविधि कहलाती है। इस प्रयास के कारण ही वेद वर्तमान में अविकल रूप में उपलब्ध हैं और उसमें एक अक्षर की भी मिलावट करना संभव नहीं हो सका। इस अष्टविकृतियुक्त वेदपाठविधि में वेद के प्रत्येक पद का उच्चारण अनुलोम तथा विलोम विधि से किया जाता है, जिससे उसके रूपज्ञान में किसी प्रकार की त्रुटि की संभावना नहीं रहती है।
सभी विद्याओं का मूल वेद है। इसमें संसार के आदिकाल में ईश्वर ने मनुष्यों को जीवन जीने की कला की उपदेश दी है। hindu dharm ved भारत देश की चेतना है। हमारे प्राणों की ऊर्जा है। वेद हमारा सर्वस्व है। भारतीय संस्कृति एवं परंपरा में वेदों को वही स्थान प्राप्त है, जो शरीर में आत्मा का है। जिस प्रकार आत्मारहित शरीर शव होती है, उसी प्रकार भारतीय संस्कृति से वेद को अलग कर देने पर यह संस्कृति प्राणविहीन होकर निर्जीव हो जाती है। जब कभी मनुष्य भयंकर विपत्ति में होता है, और उसे ऐसा प्रतीत होता है कि अब शायद कुछ भी न बचे, उस समय वह जिसको सबसे अधिक चाहता है, उसकी रक्षा करने का भरसक यत्न भी करता है। ऐसा ही हमारे देश के इतिहास में हुआ।
भारतीय संस्कृति पर विदेशी आक्रांताओं का संकट
महाभारतयुद्ध के पश्चात एक ऐसा समय आया, जब लगता था कि मानो हमारे देश से वीरता रूठ गई हो। इस काल में देश को रौंदते हुए अनेक विदेशी आततायी आक्रांता आए, और हम भारतीय असहाय होकर उनके दमन चक्र को सहते रहे। देश में आए आक्रांता ऐसे क्रूर और निर्दयी स्वभाव के थे कि अपने मार्ग में आने वाले सभी वस्तुओं को आग के हवाले कर दिया। इस हमले में न जाने कितने भारतीय साहित्य आग की भेंट चढ़ गए, जो आज प्राप्य नहीं हैं।
वैदिक विद्वानों के अनुसार ऋग्वेद की 21, यजुर्वेद की 101, सामवेद की 1000और अथर्ववेद की 9 शाखाएँ हुआ करती थीं। इनमें से बहुत थोड़ी-सी शाखाएं आज प्राप्य हैं, शेष उन दुष्टों के क्रोध का शिकार होकर विलुप्त हो गई हैं। यह सब सिर्फ संपति को लूटने की हवश नहीं थी, बल्कि यह भारतीय सभ्यता- संस्कृति को समाप्त करने का एक कुटिल और भयानक षड्यन्त्र था। जिस प्रकार अरब और यूनान की सभ्यताएं समाप्त हो गयीं, उनका नाम लेने वाला भी आज कोई नहीं है, उसी प्रकार इस देश की अस्मिता और अस्तित्व को कुचलने का नहीं, जड़ से उन्मूलन करने का प्रयास विदेशियों द्वारा किया जा रहा था। hindu dharm ved
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उस समय इस देश के मनस्वी विद्वानों अर्थात ब्राह्मणों ने अपना जीवन नहीं वरन पीढ़ियों के जीवन को इस वेदज्ञान राशि की रक्षा में अर्पित कर दिया। यह एक ऐसा अभिनव प्रयास था, जिसकी समता विश्वसाहित्य की रक्षा में किसी अन्य प्रयास से नहीं की जा सकती। यह उत्सर्ग सीमा पर कठोर यन्त्रणाएं सहकर प्राण विसर्जन करने वाले वीरों की बलिदान गाथा से कहीं बढ़कर है। hindu dharm ved
वेदपाठ की अष्टविकृतियुक्त विधि और उसका महत्व
वेदों की रक्षा के लिए जिस विधि का विधान किया गया, वह अष्टविकृतियुक्त वेदपाठविधि कहलाती है। इस प्रयास के कारण ही hindu dharm ved वर्तमान में अविकल रूप में उपलब्ध हैं और उसमें एक अक्षर की भी मिलावट करना संभव नहीं हो सका। इस अष्टविकृतियुक्त वेदपाठविधि में वेद के प्रत्येक पद का उच्चारण अनुलोम तथा विलोम विधि से किया जाता है, जिससे उसके रूपज्ञान में किसी प्रकार की त्रुटि की संभावना नहीं रहती है। शैशिरीय समाम्नाय में महर्षि व्याडि ने जटा आदि आठ विकृतियों के लक्षण बतलाये हैं-
शैशिरीये समाम्नाये व्याडिनैव महर्षिणा।
जटाद्या विकृतीरष्टौ लक्ष्यन्ते नातिविस्तरम्।।
जटा माला शिखा रेखा ध्वजो दण्डो रथो घनः।
अष्टौ विकृतयः प्रोक्ताः त्रमपूर्वा महर्षिभिः।।- शैशिरीय समाम्नाय 1, 2।।
क्रम पाठपूर्वक महर्षियों ने आठ जटा आदि विकृतियाँ के लक्षण प्रतिपादित किए हैं- जटा, माला, शिखा, रेखा, ध्वज, दण्ड, रथ, घन। मंत्रों का प्रकृत उपलब्ध पाठ संहितापाठ कहलाता है। पाणिनीय सूत्र 1/4/109 में संहिता का लक्षण करते हुए पाणिनी कहते हैं- परः सन्निकर्षः संहिता। वर्णों की अत्यन्त समीपता का नाम संहिता है। ऋग्वेद 10/97/22 के अनुसार संहिता पाठ के प्रत्येक पद विच्छेद पूर्वक पाठ करना पदपाठ कहलाता है। पदपाठ में पद तो वे ही रहते हैं, परन्तु पदपाठ में स्वर में बहुत अन्तर आ जाता है। संहितापाठ में जहाँ स्वर संहितापाठ की दृष्टि से लगे होते हैं, वहीं पदपाठ में स्वरों का आधार पद होता है। क्रम से दो पदों का पाठ क्रमपाठ कहलाता है। ऋषि कात्यायन के अनुसार भी क्रम पूर्वक दो पदों का पाठ क्रमपाठ है।
वेदपाठ की विभिन्न विधियाँ: जटा, शिखा और माला पाठ
इस क्रमपाठ का प्रयोजन स्मृति माना गया है। अनुलोम तथा विलोम प्रकार से जहाँ क्रम तीन बार पढ़ा जाता है, उसे जटा पाठ कहते हैं। अनुलोम तथा विलोम प्रकार से मन्त्र में क्रम से आये दो पदों का तीन बार पाठ करना चाहिए। विलोम में पद के समान संधि होती है, जबकि अनुलोम में क्रम के समान। जटा पाठ में प्रथम सीधा क्रम, तदन्तर विपरीत क्रम, पुनः उसी सीधे क्रम का पाठ किया जाता है। गणितीय भाषा में इसको1, 2, 1कहा जा सकता है। जब जटापाठ में अगला पद जोड़ दिया जाता है, तब वह शिखापाठ कहलता है। शिखापाठ प्रथमपद, तदनन्तर द्वितीय पद, पुनः वही प्रथम पद और उसके पश्चात तृतीय पद का ग्रहण किया जाता है। अगली पंक्ति में तृतीय एव चतुर्थ पद का अनुलोम, विलोम, पुनः अनुलोम करने के पश्चात पंचम पद का पाठ किया जाता है।
इसी प्रकार यह क्रम चलता रहता है। माला पाठ दो प्रकार का होता है- पुष्पमाला और क्रम माला। क्रममालापाठ के आधी ऋचा के प्रारम्भ के दो पद तथा अन्त का एक पद, तदनन्तर प्रारम्भ से द्वितीय एवं तृतीय पद तथा अन्त की ओर से षष्ठ एवं पञ्चम पद, पुनः प्रारम्भ से तृतीय एवं चतुर्थ पद और अन्त की ओर से पंचम एवं चतुर्थ पद। इसी प्रकार आधी ऋचा के मध्य से आदि और अन्त की ओर बढ़ते हुए चले जाते हैं और पुनः जहाँ से चले थे वहाँ पहुँच जाते हैं। रेखा पाठ में दो, तीन, चार या पाँच पदों का क्रमशः पाठ किया जाता है। इस पाठ में प्रथम अनुलोम पाठ किया जाता है, तदनन्तर विलोम, पुनः अनुलोम पाठ किया जाता है।
वेदपाठ की विशेष विधियाँ: ध्वज, दण्ड, रथ और घनपाठ
ध्वजपाठ में क्रम से प्राप्त होने वाले दो पदों का पाठ करते हुए आदिक्रम में अनुलोम से प्रारम्भ होकर अन्त तक तथा अन्तक्रम में विलोम से प्रारम्भ होकर आदि तक पहुँचा जाता है। दण्डपाठ में प्रथम अनुलोम पुनः विलोम पाठ करते हुए मन्त्र के सभी पदों का पाठ किया जाता है।
यह पाठ इस प्रकार का होता है कि प्रथम दो पदों का अनुलोम-विलोम करते हुए त्रमशः उसमें एक-एक पद की वृद्धि की जाती है। रथ पाठ तीन प्रकार का होता है- द्विचक्ररथ, त्रिचक्ररथ, चतुश्चक्ररथ। घनपाठ में क्रम को अन्त से प्रारम्भ करके आदि पर्यन्त और आदि से प्रारम्भ करके अन्त तक ले जाया जाता है। इस घनपाठ के अनेक भेद हैं। घनपाठ अन्य वेदपाठों की तुलना में अधिक कठिन माना जाता है। वैदिक विद्वानों के अनुसार यह मेधाशक्ति की पराकाष्ठा तथा उत्कर्ष है कि ऐसे विषम पाठ को हमारे वेदपाठी शुद्ध स्वर से अनायास ही पाठ करते हैं।
सामवेद की रक्षा करने के लिए ऋषियों ने उपर्युक्त से भिन्न प्रक्रिया अपनायी है। सामवेद की रक्षा की दृष्टि से स्वरगणना का माध्यम अपनाया गया है। यह स्वरगणना अत्यन्त समीचीन है और ऐसी गणना अन्य वेदों के मंत्रों में नहीं पायी जाती है। सामवेद के ऋचाओं पर उदात्तादि तीनों स्वरों के विशिष्ट चिह्न अंकित किये गये हैं। सामवेद में उदात्त के ऊपर1 का अंक, स्वरित पर 2 का तथा अनुदात्त पर 3 का अंक लगाया जाता है। स्वरों की विशेष गणना की व्यवस्था सामवेद में की गयी है।
वेदों की रक्षा: वेदपाठविधि और इसके अभेद्य सुरक्षा उपाय
वैदिक विद्वानों के अनुसार इस वेदपाठविधि के विधान के कारण ही वाममार्गी और जैनियों ने जो इस देश के साहित्य को प्रदूषित करने का कुचत्र चला रखा था, वह प्रदूषण वेदों को संत्रमित नहीं कर पाया। महाभारत युद्ध के पश्चात जहाँ एक ओर भारत देश वीरों और विद्वानों से शून्य हो गया था, वहीं दूसरी ओर स्वार्थी तत्त्वों ने अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए समग्र भारतीय साहित्य को नाना प्रकार से संदूषित करने की प्रक्रिया चला रखी थी।
उनका यह प्रयास बहुत अधिक सफल भी रहा, परंतु वे वेद में एक भी अक्षर की मिलावट करने में सफल नहीं हो सके। जिसके कारण hindu dharm ved का उच्चारण जिस प्रकार प्राचीन काल में हुआ करता था, आज भी इस वेदपाठविधि के कारण उसी रूप में सुना जा सकता है। यह व्यवस्था वेद की रक्षा के लिए एक अभेद्य दुर्ग का निर्माण करती है। यही कारण है कि वर्तमान में वेद उसी शुद्ध और प्रामाणिक रूप में उपलब्ध हो रहा है।