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ईवीएम पर ही नहीं खुद पर भी सोचे कांग्रेस!

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कांग्रेस के मठाधीशों की यह कहानी लंबी है। लेकिन इसका तोड़ बहुत छोटा है। हाईकमान की सख्ती। क्षत्रपों को हमेशा बताते रहना कि कांग्रेस से तुम हो। तुम से कांग्रेस नहीं। कितने उदाहरण हैं। मध्यप्रदेश में तो कमलनाथ पागल ही हो गए थे। खुद को भावी मुख्यमंत्री लिखवाने लगे थे। बुरी तरह हरवाया मध्य प्रदेश। फिर बेटे को लेकर बीजेपी में जा रहे थे। लेकिन कांग्रेस अभी भी उन पर कोई एक्शन लेने की हिम्मत नहीं कर रही। हरियाणा में क्या हुआ? 

हरियाणा में क्या हुआ? कोई नहीं समझ पा रहा। कांग्रेस ईवीएम को दोष दे रही है। हो सकता है। ईवीएम हमेशा शक के दायरे में रही। और कांग्रेस ही नहीं खुद भाजपा ने इस पर कई बार ऊंगलियां उठाईं। भाजपा नेता जीवीएल नरसिम्हा राव ने ‘ डेमोक्रेसी एट रिस्क! कैन वी ट्रस्ट अवर इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन?  ‘ पूरी किताब लिख दी थी। भाजपा नेता लालकृष्ण आडवानी ने इसकी भूमिका लिखी थी। किताब में ईवीएम को पूरी तरह बेईमानी का जरिया बताया गया था। आडवानी और दूसरे भाजपा नेताओं ने पूरे देश में घूम घूम कर ईवीएम का विरोध किया था। यह 2009 के लोकसभा चुनाव के भाजपा की हार के बाद की बात है।

कांग्रेस ने 2018 में इसके खिलाफ अपने राष्ट्रीय अधिवेशन ( प्लेनरी ) में प्रस्ताव पारित किया। अभी लोकसभा चुनाव के पहले भी सवाल उठाए। मगर इसे एक सबसे बड़ा मुद्दा बनाने का ज्यादा प्रयास कभी नहीं किया। मुद्दा उठाया। छोड़ दिया। अब हरियाणा की अविश्वसनीय हार के बाद फिर सवाल उठाया है।

सही है। उठाना चाहिए। लेकिन कुछ सवाल खुद से भी करना चाहिए। एक, हरियाणा एक ऐसा राज्य था जहां कांग्रेसी बहुत दबंग थे। दस साल के भाजपा शासन में भी उनके कोई काम रुकते नहीं थे। कोई गिरफ्तार नहीं हुआ। किसी के यहां ईडी, इनकम टैक्स, सीबीआई के बड़े छापे कभी नहीं पड़े। जैसे उत्तरप्रदेश ,मध्यप्रदेश में कांग्रेस के कार्यकर्ता परेशान रहे वैसे हरियाणा में नहीं हुए। तो ऐसे राज्य में अफसर ईवीएम मशीनों से छेड़छाड़ की कितनी हिम्मत कर सकते हैं? और उस स्थिति में जहां खुद बीजेपी को जीत का यकीन नहीं हो। कांग्रेस जोश में बीजेपी पस्त फिर अफसरों की हिम्मत कैसे पड़ी?

यह हम पहले भी लिख चुके हैं कि करने वाला तो आदमी होता है। और अगर उसे डर हो कि यह सब चीज नोटिस की जा रही है और कल गड़बड़ करने वाले को छोड़ा नहीं जाएगा तो वह गलत काम करने से डरेगा। हरियाणा में यह कैसे हुआ इसे कांग्रेस को अपनी भी एक उच्च स्तरीय कमेटी बनाकर समझाना पड़ेगा। चुनाव आयोग में तो जाएं। मगर खुद भी वन्स एंड फारएवर इस मुद्दे को हल करना होगा।

जब 2018 में दिल्ली के कांग्रेस अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया था। ईवीएम के खिलाफ तब राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष थे। हमने तब भी लिखा। 2019 कांग्रेस के लोकसभा हारने के बाद भी लिखा कि एक उच्चस्तरीय कमेटी जिसमें तकनीकी विशेषज्ञ हों, चुनाव आयोग के पूर्व आयुक्त हों, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज हों, वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी हों इन सबको लेकर बनाना चाहिए। कांग्रेस की अभी इतनी खराब स्थिति नहीं आई है कि उसे लोग नहीं मिलें। ऐसी कमेटी पूरी स्टडी करके रिपोर्ट लेकर आती है तो उसका असर होगा। सुप्रीम कोर्ट जाने का भी एक मजबूत आधार होगा। अभी भी बना सकती है। हरियाणा एक बड़ा आधार है। इससे माहौल भी बनेगा और एक बड़ा इश्यू सैटल होने में मदद भी मिलेगी।

लेकिन सिर्फ इस एक मुद्दे पर अड़े रहने से कांग्रेस का कुछ फायदा होने वाला नहीं है। यह वही मसल होगी कि … दिल तो बढ़ता है तबीयत तो बहल जाती है! बीमारी का इलाज नहीं होगा। जब तक बीजेपी सरकार में है ईवीएम हटाने का कोई सवाल ही नहीं। वह हटाने ही नहीं देगी। इसके लिए कांग्रेस को विपक्ष को सरकार में आना होगा। इसी ईवीएम के असर को रोककर कम करके। अधिकारियों पर दबाव बनाकर कि खबरदार कोई गड़बड़ी करने की कोशिश की तो! लेकिन अब बस यही है कि कांग्रेस करती नहीं है। हरियाणा जहां उसके नेता, कार्यकर्ता इतने दबंग थे वहां नहीं कर पाए तो दूसरे राज्यों जैसे मान लो गुजरात ही है जहां कांग्रेसी सबसे ज्यादा कमजोर है वहां क्या कर पाएगी। राहुल ने हरियाणा में भी कहा और हार के बाद बुधवार को अपनी पहली प्रतिक्रिया में भी कहा मेरे बब्बर शेर!  तो यह शेर जब हरियाणा में धांधली नहीं रोक पाए तो दूसरी जगह जहां इनका शेरपन कम होगा वहां कैसे रोकेंगे?

राहुल को कांग्रेस को पाइंट पर आना चाहिए। राहुल ने हरियाणा में कुमारी सैलजा और भूपेन्द्र हुड्डा के स्टेज पर हाथ मिलवाते हुए कहा कि मेरे शेर कभी कभी लड़ जाते हैं। फिर इन्हें एक करवाना मेरा काम होता है। सुनने में यह डायलग अच्छा है। मगर बेमतलब। राहुल ने यह कोई पहली बार हाथ मिलवाए।

राजस्थान जो ठीक इसी वजह से कांग्रेस हारी वहां भी ऐसे ही गहलोत और सचिन पायलट के हाथ मिलवाए थे। मध्य प्रदेश में भी कमलनाथ और ज्यतिरादित्य सिधिंया के। छत्तीसगढ़ में आखिरी समय में टीएस सिंहदेव को उप मुख्यमंत्री बनाया।

उत्तराखंड में चुनाव से पहले हरीश रावत ने कैसे कैसे नाटक किए। जल समुद्र मगरमच्छ! पता नहीं कौन कौन से बिम्ब बनाकर खुद को पीड़ित बताया। पूरी जिन्दगी वे ऐसी ही राजनीति करते रहे। और जब रो रोकर मुख्यमंत्री बन गए तो कांग्रेस के नेताओं के ही फोन उठाना बंद कर दिए। 2016 में जब स्टिंग विवाद में हरीश रावत सुप्रीम कोर्ट से जीत गए तो हाई कमान ने हरीश रावत से विधानसभा भंग करके चुनाव करवाने को कहा। उनके पक्ष में सहानुभूति लहर थी। जीते जाते। मगर उस समय तक वे कांग्रेस के मठाधीश बन गए थे। क्यों

मानते? नहीं माने। और फिर 2017 में जो चुनाव हुए उसके बाद से कांग्रेस उत्तराखंड में आई ही नहीं।

कांग्रेस के मठाधीशों की यह कहानी लंबी है। लेकिन इसका तोड़ बहुत छोटा है। हाईकमान की सख्ती। क्षत्रपों को हमेशा बताते रहना कि कांग्रेस से तुम हो। तुम से कांग्रेस नहीं। कितने उदाहरण हैं। मध्यप्रदेश में तो कमलनाथ

पागल ही हो गए थे। खुद को भावी मुख्यमंत्री लिखवाने लगे थे। बुरी तरह हरवाया मध्य प्रदेश। फिर बेटे को लेकर बीजेपी में जा रहे थे। लेकिन कांग्रेस अभी भी उन पर कोई एक्शन लेने की हिम्मत नहीं कर रही।

हरियाणा में क्या हुआ?  कई दिनों तक कुमारी सैलजा कोप भवन में बैठी रहीं। भाजपा और बीएसपी प्रचार करते रहे कि दलित का अपमान हुआ है। मगर सैलजा ने कांग्रेस के पक्ष में कुछ नहीं बोला। उल्टे चैनल चैनल जाकर रोती रहीं कि मुझे टिकट नहीं दिया। इन्चार्ज मुझसे बात नहीं करते हैं। हुड्डा के समर्थक अपने चुनाव प्रचार में बुलाते नहीं।

दूसरे महासचिव रणदीप सुरजेवाला ने भी इसी राग को आगे बढ़ाया। मुख्यमंत्री बनना है। सैलजा को भी बनना। सुरजेवाला को भी भूपेन्द्र हुड्डा अटल बिहारी वाजपेयी का डायलग ले आए… न टायर्ड हूं न रिटायर। डायलग भी अपने नहीं ला पाते। वह भी बीजेपी के।

और सब मुख्यमंत्री बनने के लिए चैनल दर चैनल इंटरव्यू देने लगे। गोदी मीडिया की चांदी हो गई। तीनों के खूब इंटरव्यू लिए और गुटबाजी को खूब हवा दी।

अब बीजेपी जीत गई। जिसकी उम्मीद खुद मोदी और अमितशाह को नहीं थी। सारे एक्जिट पोल, ग्राउन्ड रियलटी सब चीख चीख कर कह रहे थे कि बीजेपी गई। वह आ गई।

क्या मतलब? विश्लेषण अभी बहुत होंगे। कांग्रेस भाजपा दोनों को करीब करीब बराबर वोट मिले हैं। 39- 39 प्रतिशत। भाजपा के केवल 0.8 (पाइंट आठ) प्रतिशत ज्यादा हैं। मगर भाजपा से नाराज लोगों का वोट बंटा। करीब 20 प्रतिशत वोट बाकी दलों जो सब भाजपा के खिलाफ लड़ रहे थे मिला। और वह अगर यह मान लें कि कांग्रेस के मैनेजमेंट के बाहर की चीज थी। जो वास्तव में थी नहीं, कुछ किया जा सकता था। अगर समय रहते समझते तो। लेकिन चलिए वह छोडिए जो यह मुख्यमंत्री बनने पर बयानबाजी और कांग्रेस को दलित विरोधी साबित करने का खेल हुआ यह हार का निर्णायक कारण रहा।

ईवीएम मुद्दा है मगर अपनी गुटबाजी उस पर काबू न पा पाने की कमजोरी को अगर कांग्रेस ने नहीं समझा, दूर नहीं किया तो आगे भी उसे बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा।

By शकील अख़्तर

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स के पूर्व राजनीतिक संपादक और ब्यूरो चीफ। कोई 45 वर्षों का पत्रकारिता अनुभव। सन् 1990 से 2000 के कश्मीर के मुश्किल भरे दस वर्षों में कश्मीर के रहते हुए घाटी को कवर किया।

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