हरियाणा का चुनावी दृश्य कांग्रेस के भीतर अपनी-अपनी जागीरदारी कब्जाए बैठे मतलबपरस्तों के थू-थू कर्मों ने भी रचा है। कृत्रिम इंडिया-समूह के राजनीतिक दलों के सिरमौरों की क्षुद्र निजी सियासी वासनाओं ने भी सियासत के भावी आसमान पर कालिख पोतने का पाप किया है। …. राहुल की अश्व-सेना में अरबी घोड़े कम, चौसा की सब से सस्ती मंडी के खच्चर ज़्यादा हैं। अपनी सेना का आधुनिकीकरण किए बिना और उसे चुस्त-दुरुस्त बनाए बिना राहुल क्या खा कर मोदी का मुक़ाबला कर लेंगे?
क्या हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजे तकनालॉजी के अनैतिक और अमान्य इस्तेमाल की मिसाल हैं? क्या ये नतीजे कांग्रेस, और एक मायने में सकल विपक्ष, की अपनी-अपनी ऐंठ का दुष्परिणाम हैं? क्या लोकसभा चुनाव परिणामों से उपजी परिस्थितियों के चलते बेतरह हांफ रहे नरेंद्र भाई मोदी को इन नतीजों ने नई प्राणवायु दे दी है? क्या इन नतीजों ने राहुल गांधी के परिश्रम पर पूरी तरह पानी फेर दिया है? क्या इन नतीजों ने नरेंद्र भाई के कांग्रेस-मुक्त भारत के सपने में नए रंग भर दिए हैं?
क्या अब यह अंतिम तौर पर तय हो गया है कि राहुल आज के दौर की राजनीति के लायक नहीं हैं और उन्हें संन्यास ले लेना चाहिए? क्या अब प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी को चलता करने की तैयारियों में लगे आरएसएस-प्रमुख मोहन भागवत कहीं ख़ुद ही तो चलते नहीं हो जाएंगे? क्या अब 2029 में होने वाले लोकसभा चुनाव तक 19 प्रदेशों में होने वाले सारे विधानसभा चुनावों के नतीजे भारतीय जनता पार्टी की झोली में इसी तरह एकतरफ़ा जाते रहेंगे? क्या एक तरफ़ से भाजपा और दूसरी तरफ से प्रतिपक्ष के अपने कथित सहयोगी दलों के चक्रव्यूह में फंसी कांग्रेस अंतिम हिचकियां ले रही है?
आइए, एक-एक कर इन सवालों पर ज़रा गौ़र करें।
हरियाणा के चुनाव नतीजों के पीछे से तकनालॉजी के बदशक़्ल जिन्न का चेहरा झांकता कइयों को दिखाई दे रहा है। इस दशक में ईवीएम की भूमिका पर संशय कोई पहली बार खड़ा नहीं हुआ है। हरियाणा में हुई मतगणना के दौरान ऐसी बहुत-सी वज़हें सामने आई हैं, जो ईवीएम-तिकड़म के शक़ को और पुख़्ता करती हैं। मगर हरियाणा का चुनावी दृश्य कांग्रेस के भीतर अपनी-अपनी जागीरदारी कब्जाए बैठे मतलबपरस्तों के थू-थू कर्मों ने भी रचा है। कृत्रिम इंडिया-समूह के राजनीतिक दलों के सिरमौरों की क्षुद्र निजी सियासी वासनाओं ने भी सियासत के भावी आसमान पर कालिख पोतने का पाप किया है।
पांच महीने पहले हुए लोकसभा के चुनाव में अपना सब-कुछ झोंक देने और हर तरह की कुचालें चलने के बावजूद अपने लिए 161+79=240 सांसद ही जिता कर ला सकने वाले नरेंद्र भाई और चौबीसों घंटे पतित कर्मकांड में रमी रहने वाली उन की टोली को हरियाणा के नतीजों से निश्चित ही नए प्राण मिले हैं। इस प्राणवायु का गुब्बारा ज़्यादा-से-ज़्यादा फुला कर उसे आकाशमार्गी करना मोशा-भाजपा से बेहतर कौन जानता है? सो, बहुत दूरगामी न सही, इस का अच्छा तात्कालिक लाभ नरेंद्र भाई को मिल रहा है। आगे-का-आगे, मगर हरियाणा के गच्चे ने राहुल की मेहनत पर फ़िलवक़्त तो सचमुच पूरी तरह कोलतार का पोंछा लगा दिया है। ज़ाहिर है कि इस से नरेंद्र भाई को अपने ख़्वाब और रंगीन बनाने का अवसर मिल गया है।
जो भी हो, अभी राहुल के जोगी बन जाने का समय नहीं आया है। अपने चंद ना-लायक हमजोलियों पर उन के अति-विश्वास का नतीजा है हरियाणा और इस के लिए हम राहुल की सहयोगी-चयन बुद्धि पर प्रश्नचिह्न लगा सकते हैं। मगर उन के व्यक्तित्व की इस एक ख़ामी के चलते यह भूलना ठीक नहीं होगा कि दस बरस के एक ऐसे दौर में, जब विपक्ष के बड़े-बड़े सूरमाओं को हम ने बीच-बीच में लिजलिजी छुपाछुपाई खेलते देखा, तमाम नियमों-परंपराओं की धज्जियां उड़ाती दमनकारी हुकूमत के ख़िलाफ़ राहुल असहमति में अपना हाथ उठाए अविचल और अनवरत खड़े रहे। बुरी तरह सहमे हुए देश के दिलो-दिमाग से डर को निकाल बाहर करने में उन की भूमिका का यह एक पुण्य सारी कोताहियों पर भारी है। किसी ख़ामख़्याली में मत रहिए, सत्ता के दनदनाते बुलडोज़र और जनतंत्र के बीच राहुल की अनुपस्थिति का दिन अगर आएगा तो आप से देश का दृश्य देखा तक नहीं जाएगा। इसलिए यह राहुल की अनिवार्यता को और शिद्दत से समझने का समय है।
बहुत-से लोग पूछ रहे हैं कि अब मोदी-भागवत समीकरणों का आड़ा-तिरछापन किधर जाएगा? यह सच है कि अगर हरियाणा न हुआ होता तो प्रधानमंत्री के सिंहासन से नरेंद्र भाई की विदाई तय थी। हरियाणा में भाजपा की हार भी एकदम तय थी। ख़ुद भाजपाई ही इसे मान रहे थे। हरियाणा इसीलिए नरेंद्र भाई के लिए सियासी जीवन-मरण का प्रश्न बन गया। सो, हरियाणा हर हाल में, हर कीमत पर, जीतना उन के लिए ज़रूरी हो गया था। और, वे जीत अपनी अंटी में खोंस ले गए। नरेंद्र भाई को बचपन से जानने वाले कई लोग उन के समूचे व्यक्तित्व की एक ही मारक-ख़ासियत बताते हैं कि उन में पलटवार करने की विलक्षण क्षमता और जुनून है। इसलिए मान कर चलिए कि वे मोहन भागवत को भूलेंगे नहीं। ऐसे में नरेंद्र भाई की जगह अगर कहीं भागवत जी अपना झोला उठा कर कूच कर दें तो ताज्जुब मत कीजिएगा।
अगर ऐसा हुआ तो मैदान पूरी तरह खाली हो जाएगा और तब नरेंद्र भाई सारे बचे-खुचे राज्यों से विपक्ष को खदेड़ने के अश्रोत-अश्वमेध पर निकल पड़ेंगे। 2029 के लोकसभा का चुनाव होने से पहले 19 प्रदेशों में विधानसभा चुनाव होंगे। यह सिलसिला अगले महीने ही महाराष्ट्र और झारखंड से शुरू हो जाएगा। अगले साल का आरंभ जनवरी में दिल्ली के चुनाव से और अंत नवंबर में बिहार के चुनाव से होगा। हर जगह हरियाणा की पुनरावृत्ति नरेंद्र भाई का लक्ष्य रहना स्वाभाविक है। तब तक ‘एक देश-एक चुनाव’ का बिगुल और तेज़ी से बजने लगेगा। देखने की बात होगी कि एक ही सपाटे में सब-कुछ अपनी गठरी में बांध लेने की ललक पूरी करने की मंज़िल नरेंद्र भाई हासिल कर लेंगे या उस से कितने हाथ दूर रह जाएंगे?
नरेंद्र भाई का दूरगामी भविष्य इस पर निर्भर करेगा कि दो पाटन के बीच फंसी राहुल की कांग्रेस आने वाले दिनों में अपनी आंतरिक और बाह्य संरचना के लिहाज़ से कोई ठोस अंगड़ाई लेती है या यथास्थितिवाद की गुदगुदी शैया पर ही पड़ी रहती है! मोशा-भाजपा से तो कांग्रेस को निपटना ही है, अपने बगलगीर सहयोगी दलों के बघनखों से भी बचने की जुगत उसे खोजते रहनी है। मुझे लगता है कि समझते ही होंगे, मगर अगर नहीं समझते हैं तो एक बात राहुल अच्छी तरह समझ लें कि सहयोगी दलों में से तो कोई बिरला ही मन से उन के साथ है, उन की अपनी पार्टी में भी वे आमतौर पर ख़ुदगर्ज़ों से ही घिरे हुए हैं। इसलिए इस चलती चक्की में से साबुत निकलने के लिए उन्हें अपना कार्यशैली-कल्प करना होगा। यह परदेसी विपश्यना से नहीं, तालठोकू देसी दंगल से होगा।
कांग्रेस पर पूर्ण-विराम अभी भले नहीं लगा है, मगर उस की डोली जिन बे-ईमान कहारों के कंधों के हवाले राहुल ने कर रखी है, वे इस यात्रा पर अल्पविराम तो लगवा ही चुके हैं। राहुल की अश्व-सेना में अरबी घोड़े कम, चौसा की सब से सस्ती मंडी के खच्चर ज़्यादा हैं। अपनी सेना का आधुनिकीकरण किए बिना और उसे चुस्त-दुरुस्त बनाए बिना राहुल क्या खा कर मोदी का मुक़ाबला कर लेंगे? उन्हें यह समझना होगा कि बैठा हाथी भी खड़े खच्चर से ऊंचा होता है। अंदरूनी हालात को दुरुस्त करने के लिए कांग्रेस ने राहुल को बार-बार अवसर दिए हैं। उन के प्रयोगों और फ़ैसलों को हर बार सिर-माथे भी रखा है। देशवासियों ने भी इन गर्मियों में राहुल को अपने विश्वास-मत से नवाज़ा है। सो, कांग्रेसी जूतों के तस्मे कसने का राहुल के लिए यह अंतिम अवसर है। वरना खाई इंतज़ार कर रही है।