यूक्रेन में रूस और अफगानिस्तान में अमेरिका की ताक़त को दुनिया देख ही चुकी है.! अब इज़राइल के जरिये फिर अमेरिका की साख एक बार दांव पर लगी है। रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण के समय दंभपूर्वक कहा था की यह कुछ ही दिनो की बात है, जब यूक्रेन पर हमारी सेनाएं काबिज होंगी। पर आज साल भर होने को आया हालत क्यू की त्यु है। अफगानिस्तान को भी सभ्य बनाने चले अमेरिका को जिस हड़बड़ी में मुल्क को छोडना पड़ा वह दुनिया के सामने है। हवाई जहाज और अनेक फौजी सामान छोड़ कर सैनिको को लेकर उड़ गए थे।
मिश्र और सीरिया के संयुक्त आक्रमण को पराजित करने वाले इज़राइल पर जिस औचक रूप से हमास ऐसे संगठन ने राकेटो और मिसाइल से हमला किया वह उनकी खुफिया तंत्र और सैन्य ताकत को हेच तो बताता ही है। अब इज़राइल के साथ बाइडेन और ब्रिटिश प्रधानमंत्री सुनक के सहयोग का मतलब सिर्फ गाजा के फिलिस्तीनी शरणार्थियों को मदद पहुंचने भर की हैं। इज़राइल को अगर अमेरिका और ब्रिटेन तथा फ्रांस का समर्थन प्राप्त है तो रूस और चीन इज़राइल को युद्ध बंद करने की सलाह दे रहे हंै। संयुक्त राष्ट्र संघ की गाजा को राहत सामग्री भेजे जाने की अपील बेअसर हो रही है। मिश्र की सीमा पर कई दिनों से राहत सामग्री (भोजन – मेडिकल समान और पानी) लेकर खड़े बीसियों ट्रक इज़राइल की जिद के आगे बेकार है। सुरक्षा परिषद में बंद कमरे में अमेरिका ने रूस के युद्ध विराम के प्रस्ताव को वीटो कर दिया, जिस प्रकार रूस ने यूक्रेन में युद्ध विराम के अमेरिका के प्रस्ताव को वीटो किया था !
यानि कुल हालात इस बात को रेंखांकित करते हैं कि जिस प्रकार हिटलर की जिद और अहंकार ने लीग ऑफ नेशन को रद्द कर दिया था और अंतराष्ट्रीय स्टार पर शांति और व्यवस्था बनाने का प्रथम प्रयास असफल हुआ था। आज यूक्रेन और गाज़ा के मसले पर संयुक्त राष्ट्र संघ जिस बेबसी का शिकार है वह उसके अस्तित्व को ही चुनौती दे रहा है। आज यूरोपियन राष्ट्रों और अमेरिका तथा चीन समेत रूस को इस हालत के बारे में सोचना होगा, वरना जैसा कि लिखा जा रहा है कि बिना नख का राष्ट्रों का हैड मास्टर है यूएनओ.!
हमास को आतंकवादी कहे या राष्ट्रवादी संगठन यह भी एक बहस चल पड़ी है। बरतनिया हुकूमत के अंतर्गत दूसरे विश्व युद्ध के पहल जीतने भी उनके उपनिवेश थे उनमंे आज़ादी के लिए हुए संघर्षों में अधिकतर हिंसक ही थे। दक्षिण अफ्रीका जो आज चार विभजित राष्ट्रों में है। उसमें जनरल स्मट्स की सरकार के विरुद्ध अफ्रीकन नौजवानों के संगठन ने माउ माउ आंदोलन चलाया था। जिसमंे नेल्सन मंडेला भी थे और जोमो केन्याटा भी थे। इन्डोनेशिया मे डच आधिपत्य के विरुद्ध सुकर्णों ने हथियारबंद संघर्ष किया था। भारत में महात्मा गांधी के नेत्रत्व मे विश्व में पहली बार अहिंसक आंदोलन के जरिये अपनी आज़ादी की लड़ाई लड़ी और स्वतंत्रता हासिल की। परंतु इस संघर्ष में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिन्द सेना की लड़ाई का एक स्वर्णिम पन्ना भी है। बाम्बे में नौसेना द्वारा विद्रोह का बिगुल और चंद्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह, बटुक दत्त की शहादत भी इसी संघर्ष का ही एक हिस्सा थे। परंतु कमोबेश आज़ादी का आंदोलन अहिंसक ही था, जिसने ब्रिटिश शासन को भारत छोड़ने को मजबूर किया। परंतु यह कहना ही होगा कि ब्रिटिश शासन में जलियाँवाला बाग ऐसे कुछ अतिरेक घटनाओ के अलावा उन्होंने विधि का शासन बनाए रखा। शोषण किसानों का कारीगरों का हुआ, ब्रिटिश साम्राज्यवाद को मजबूत करने के लिए, मरीशस और गयाना को भेजे गए गिरमिटिया हिंदुस्तानी भी उनके लालच के शिकार हुए। अब इस परिप्रेक्ष्य में अपनी जमीन और आबादी के लिए लड़ाई लड़ रहे फिलिस्तीनीयों को आप क्या कहेंगे, यह आप पर निर्भर करता है ।
1. इज़राइल का अमानवीय चेहरा : शायद ही किसी ने ऐसा कहा होगा जैसा कि इज़राइल के सेना के अधिकारी और प्रधानमंत्री नेत्न्यहु कह रहे हैं की हम हमास को नेस्तनाबूद कर देंगे ! जबकि हिटलर ने भी यहूदी नस्ल को नेस्तनाबूद करने की बात नहीं कही थी। अनेक यहूदी वैज्ञानिक और धनिक लोग उसके साथ थे। यह सही है कि उसने प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी की पराजय के लिए यहूदी लोगों को जिम्मेदार मानता था। उसके अनुसार सेना को आपूर्ति में रद्दी सामान दे कर उन्होंने जर्मनी की विजय छिन ली थी। एक ऐसा कारण था जो काल्पनिक ही कहा जाएगा। क्यूंकि सेना की आपूर्ति कुछ लोगों ने ही की होगी समस्त यहूदी नस्ल तो नहीं किया होगा।
शायद उसी तर्ज़ पर इज़राइल भी हमास के कांड के लिए समस्त फिलिस्तीनीयों को जिम्मेदार समझ कर उनसे बदला निकाल रहा हो। अस्पताल पर राकेट से हमले की ज़िम्मेदारी भी अब वह कह रहा है कि हमास के सहयोगी संगठन ने की है । परंतु समस्त अरब लीग के सदस्य राष्ट्र इस हमले के लिए इज़राइल को ही जिम्मेदार मानते हैं।
2. क्या अरब राष्ट्रों की नाराजगी को अमेरिका सहन करेगा ?
जिस प्रकार मिश्र और जॉर्डन ने अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन से मिलने से इंकार कर दिया और सऊदी शहजादे ने अमेरिकी विदेश मंत्री को कई घंटे इंतज़ार कराया, उससे अमेरिका की साख तो मिट्टी मे मिल गयी है। जिससे मिलने के लिए अनेक राष्ट्रों के नेता महीनों इंतज़ार करते हैं, उस राष्ट्रपति से मुलाक़ात से इंकार और उसके विदेश मंत्री को मिलने के लिए, साधारण आदमी की तरह इंतज़ार कराना एक प्रकार से नाराजगी का सख्त इज़हार ही है। इतेफाक से सऊदी आमेरिकी हथियारों का सबसे बड़ा खरीददार भी है। जॉर्डन हमेशा से अमेरिका और यूरोपियन राष्ट्रों का चहेता रहा है। उसे अमेरिका सैन्य सामाग्री के अलावा अन्य प्रकार की भी मदद देता है। उसके बाद ऐसी कूटनीतिक नाराजगी पहले नहीं देखी गयी है। इससे लगता है कि फिलिस्तीनी लोगों को कुछ न्याय मिलने की संभावना है भले ही दूर हो।