भोपाल। फिलिस्तीन और इज़राइल के मध्य हो रहे सघर्ष को महाभारत के उस प्रकरण से समझा जा सकता है जिसमें कौरवों के चक्रव्यूह को भेदने के लिए अभिमन्यु ने सात – सात महारथियों से युद्ध किया, था। उसी प्रकार आज फिलिस्तीनियों के साथ अरब राष्ट्रों की चुप्पी और विश्व की महा शक्तियों का इज़राइल को अनैतिक समर्थन ही हैं।
इज़राइल और फिलिस्तीनियों का संघर्ष की नीव अंग्रेज़ों द्वारा वालफोर संधि से 1948 में ही हो गया था, जब तीन मित्र राष्ट्रों (ब्रिटेन – फ्रांस और अमेरिका) ने अरब बहुल क्षेत्र में हिटलर के शिकार यहूदियों को उनका राष्ट्र बना कर दे दिया। दुबारा तीन अरब राष्ट्रों (मिश्र – सिरिया और लेबनान) के साथ 57 वर्ष पूर्व हुए युद्ध में पराजित राष्ट्रों ने इज़राइल के गाज़ा पट्टी और गोलन हाइट पर इज़राइल के अवैध कब्जे को मान्यता दे दी। गौर तलब है तीनों धरम जिन्हंे अब्रहानिक भी कहा जाता है – उनके सम्मिलित धरम स्थल यरूशलम को भी इज़राइल को सौंप दिया था। यूं तो इस स्थल की निगरानी के लिए जोर्डन को अधिकार दिया गया था, तीनों मित्र राष्ट्रों द्वारा।
उस समय हुई संधि में गाज़ा पट्टी पर बसे फिलिस्तीन के अरब लोगों को अपनी भूमि पर खेती और व्यापार करने का अधिकार दिया गया था। बदले में इज़राइल को यह जिम्मेदारी भी दी गयी थी कि वह इस इलाके के बाशिंदों को पेय जल – भोजन और बिजली सुलभ कराएगा। बदले में फिलिस्तीनी इज़राइल के विरुद्ध किसी भी हिंसक कार्रवाई में भाग नहीं लेंगे।
सब कुछ ठीक – ठाक चल रहा था, परंतु इज़राइल को अपनी आबादी के लिए बसाहट के लिए जमीन की सख्त ज़रूरत थी। इसलिए उसने गोलन हाइट में अरब आबादी को बहाने बना कर उनकी जमीन पर कब्जा करना शुरू कर दिया। बस यहीं से फिलिस्तीन और इज़राइल का झगड़ा शुरू हुआ। साथ ही इज़राइल ने अल अक्सा मस्जिद पर अरब लोगों के प्रार्थना करने पर रुकावट डालनी शुरू कर दी। वे सभी फिलिस्तीनी स्त्री – पुरुषों की तलाशी के बहाने परेशान करने लगे। अंतरराष्ट्रीय प्रेस में भी फिलिस्तनियों की परेशानियों और इज़राइल के सैनिकों के दुर्व्यवहार की खबरें छपती रही। फिर एकदम से मीडिया के यहूदी मालिकों के दबाव में उनको आतंकवाद की संभावना का रंग दिया जाने लगा। ब्रिटेन के बीबीसी ने तो एकतरफा कवरेज करना शुरू कर दिया। खबर में संतुलन के लिए वे एक फिलिस्टीनी विद्वान या जानकार को भी बुलाते थे, परंतु इज़राइल की हरकतों के बारे में उनके वर्णन पर वे काफी टोका टॉकी भी करते पाये गए।
अब वर्तमान लड़ाई , क्यूंकि युद्ध तो दो राष्ट्रों में ही होता है, यहां एक ओर इज़राइल है तो दूसरी ओर कुछ संगठन है जो फिलिस्तीनियों पर हुई ज्यादतियों के खिलाफ अंतरराष्ट्रिय जगत द्वारा मौन साधने से पीडि़त थे। उन्होंने जब बातचीत से मसले का हल नहीं निकलते दिखायी दिया, तब उन्होंने हथियारों का इस्तेमाल करना शुरू किया। मित्र राष्ट्रों की सरकारों द्वारा फिलिस्तीनियों की समस्या का हल नहीं किए जाने से निराश होकर ही यह लड़ाई शुरू हुई। बात इतनी ही नहीं थी, इज़राइल वक्त बे वक्त गाज़ा पट्टी पर राकेट या गोले दाग कर हमास के अड्डों को बर्बाद करने का बहाना बनाता था। इस गोलाबारी से या कहे कि हमले से आबादी के एरिया मे बाशिंदे ही मारे जाते थे। इसमें बच्चे और बुढ़े दोनों ही होते थे। आज पश्चिमी मीडिया हमास के हमले में बेगुनाह बच्चों के मारे जाने का रोना रोता है, पर क्या विगत दस वर्षो में गाज़ा पट्टी इज़राइल के हमलों में मारे गए लाखों बच्चों की हत्या का गुनाहगार यह यहूदी राष्ट्र नहीं है ? एक और बेचारगी बताई जाती है कि महिलाओं और व्रद्धों को हमास द्वारा किडनैप करना मानव अधिकारों का उल्ल्ङ्घन है। सही है, परंतु इज़राइल द्वारा अल – अक्सा मस्जिद पर प्रार्थना के लिए जाने वाली अरब महिलाओं को जबरन बंदी बनाने की भी घटनाएं हुई हंै, उनके बारे में अमेरिका और उसके यूरोपीय राष्ट्र सहयोगियों द्वारा जबान बंद हैे, क्यूं।
इस संघर्ष को इज़राइल द्वारा युद्ध करार देना अंतर्राष्ट्रीय नियमों के प्रतिकूल है क्यूंकि युद्ध दो राष्ट्रों के मध्य होता है। अथवा यह कहें कि यह लड़ाई भी वियतनाम और अफगानिस्तान की भांति स्थानीय आबादी और उनकी भूमि और अधिकारों पर कब्जा किए हुई शक्ति से है? वियतनाम और अफगानिस्तान में हम देख चुके है कि किस प्रकार दुनिया की महाशक्ति समझे जाने वाले अमेरिका को भी स्थानीय निवासियों का गुस्सा झेलना पड़ा था और दसियों साल बाद भी उसे मैदान छोड़ना ही पड़ा था। फिलहाल मिल रही खबरों के अनुसार हमास के लड़ाकों की मौत की संख्या भी लगभग उतनी ही बताई जा रही है जितनी इज़राइल के फौजियों और यहूदियों की हो रही है।
इज़राइल ने तो पूरे गाज़ा पट्टी के बाशिंदों को ही हमास के लड़ाके मान लिया है –इसीलिए उसने अब आबादी का पानी, बिजली और भोजन की नाकाबंदी कर दी है। जिससे कि वहां पर मौजूद गैर फिलिस्तीनी भी प्रभावित हो रहे हैं। इज़राइल अपने सैनिकों द्वारा की गयी कार्रवाई की कभी भी निष्पक्ष जांच नहीं कराता है। उदाहरण के तौर पर अल जज़ीरा की महिला संवाददाता की गोली मारकर हत्या की गयी। इज़राइल सरकार को घटना के समय के फुटेज’ भी दिखाये गए, परंतु न ही उसने गलती मानी और न ही वहां की सरकार अंतरराष्ट्रिय एजेंसी से जांच कराने पर राज़ी हुई। आज भी वह मसला जिंदा है। वैसे अरब लीग ने संयुक्त राष्ट्र संघ में मसले को उठाने का प्रयास किया है। जिससे की मुद्दे का समाधान वार्ता के जरिये सुलझाया जा सके। परंतु इतिहास गवाह है कि बलशाली राष्ट्रों का लालच सदैव हक़ीक़त और सच पर भारी पड़ता रहा है। हिटलर की जिद ने दुनिया को विश्व युद्ध में झोंक दिया था। ब्रिटिश प्रधानमंत्री चेमबेरलेन के शांति समझौते को रद्दी के टुकड़े की भांति उसने फेंक दिया था। हिटलर की नस्लवादी सोच के शिकार यहूदी आज वही गाज़ा पट्टी में कर रहे हैं, जो हिटलर ने उनके साथ किया था। यानि की पूरी कौम को शत्रु समझना।
नस्ल, जाति या कबीला की सोच आज भी दुनिया में कायम है। अमेरिका ब्रिटेन में आज भी ऐसी घटनाएं हुई है जिसका आधार सिर्फ चमड़ी का रंग रहा है। सूडान का विभाजन भी इसी आधार पर हुआ कि वहां के दो प्रमुख कबीले शांति से एक साथ नहीं रह सके। बदनाम बोकोहरम भी कबीले के आधार पर स्त्रियों का अपहरण और आगजनी कर रहा है। परंतु विश्व शक्तियाँ निरुपाय है। कुछ ऐसा ही सोवियत रूस के विघटन के बाद भी हुआ। युगोस्लाविया जिसने विश्व युद्ध के दौरान हिटलर का मुक़ाबला अपने क्रोट और स्लाव जातियों के साथ मिलकर लड़ा था। परंतु सोवियत रूस के विघटन के बाद वहां भी नस्ल और धरम आधारित शक्तियाँ अपने – अपने अलग राज्य की कामना करने लगी। फलस्वरूप लंबे और खूनी संघर्ष के बाद विश्व के पाँच बड़े राष्ट्रों को उनकी मांग को पूरा करना पड़ा। क्यूंकि यह साफ हो गया था कि अब वहां पर जाति और धरम भेद को अनदेखा नहीं किया जा सकता। फलस्वरूप तीन नए राष्ट्रों का जन्म हुआ। गाज़ा पट्टी और गोलन हाइट के अरब निवासियों के साथ यहूदी राज्य इज़राइल की ज़ोर ज़बरदस्ती का एक मात्र इलाज़ है उनके लिए एक नए राज्य का गठन परंतु पूर्व राष्ट्रपति ट्रम्प की अब्राहम करार जिसके अंतर्गत येरूशलम को इज़राइल की राजधानी घोषित करना, अमेरिका की पक्षपात पूर्ण रुख का ही प्रमाण है। क्यूंकि येरूशलम यौमे कुप्पर के पहले अरब इलाके मंे था। जिस पर युद्ध के बाद इज़राइल ने कब्जा कर लिया। इतना ही नहीं अमेरिका की शह पर उस पर वैधानिकता की मुहर भी लगवा ली।
आज पश्चिमी मीडिया जिस प्रकार एक तरफा प्रचार कर रहा है, और फिलिस्तीनीयों को मानवता का खलनायक दिखा रहा है वह भारत के गोदी मीडिया की याद दिलाता है। क्या अपनी खोयी हुई जमीन और सम्मान की मांग करना गलत हैss? अगर ऐसा है तब वे अभिमन्यु ही है, जो लड़ेगा भले ही परिणाम कुछ भी हो।