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हबीब तनवीर की याद में

भोपाल। विश्व के महान रंग निर्देशक, अभिनेता, नाटककार हबीब तनवीर साहब की जन्म शताब्दी के अवसर पर इंदिरा कला संगीत विश्व विद्यालय के रंगमंच विभाग द्वारा व्याख्यान का आयोजन किया गया। रंगमंच विभाग के प्रमुख एवं अनुभवी रंग निदेशक डाॅ. योगेन्द्र चैबे की अगुवाई में हबीब साहब के निधन 2009 के बाद से अब तक लगातार उनकी जन्म तिथि पर ऐसा आयोजन होता रहा है जिसमें देश के नाम गिरानी रंगकर्मियों व विशेषज्ञों की भागीदारी रही है।

इंदिरा कला एवं संगीत विश्वविद्यालय एशिया का सबसे पुराना और सबसे बड़ा विश्वविद्यालय है जिसका परिसर अपनी अलग पहचान रखता है। विश्वविद्यालय के रंगमंच विभाग की शुरूआत 2006 में डिप्लोमा कोर्स के चार विथार्थियों के साथ हुई। आज इस विभाग में रंगमंच पर डिग्री, पोस्ट ग्रेजुएट तथा पीएचडी का शिक्षण हो रहा है जिसमें सौ से अधिक विद्यार्थी प्रशिक्षण ले रहे हैं। प्रो. योगेन्द्र चैबे विभाग के संस्थापक प्रोफेसर हैं जो वर्तमान में विभाग प्रमुख हैं। बीच में कुछ समय के लिये वे ग्वालियर के राजा मानसिंह संगीत विश्वविद्यालय में चले गये थे लेकिन थोड़े अंतराल में वापस आ गये।

ममता चंद्राकर छत्तीसगढ़ की विख्यात लोक गायिका हैं तथा इन्हें लोक रंगमंच विरासत में मिला है। इनके द्वारा विश्वविद्यालय का कुलपति पद ग्रहण करने के साथ रंगमंच विभाग में गत वर्ष रंगमंडल की शुरूआत हुई और प्रो. योगेन्द्र के निदेशन में लगभग एक दर्जन नाटक इस अल्प अवधि में तैयार हुए और उनका मंचन देश के अनेक रंग महोत्सव में हुआ। इनमें छत्तीसगढ़ी भाषा के नाटक भी शामिल है।

आते हैं हबीब साहब जन्मशती आयोजन पर। इस वर्ष व्याख्यान के लिये मुझे आमंत्रित किया गया। व्याख्यान देना मेरी तासीर में नहीं है। रंगकर्म में सक्रिय नहीं होने के बाद भी हबीब साहब का काफी सानिध्य रहा और उनके अधिकांश नाटक देखने को मिले। उनके पहले छत्तीसगढ़ी नाटक ”गांव के नाव ससुरार, मोर नाव दामाद“ की तैयारी का मैं साक्षी रहा। इन से उपजी अपनी समझ और हबीब साहब के कुछ इंटरव्यू से गुजरते हुए मैं भी कुछ समृद्ध हुआ और अपनी समझ को मैंने कार्यक्रम में साझा किया। हबीब साहब के रंगमंच को सही मायने में भारतीय रंगमंच कहा जा सकता है। हालांकि उन्हें अभिजात्य रंगजगत ने उस तरह से स्वीकार नहीं किया जिसके वे हकदार थे। हबीब जी का रंगमंच इंप्रोवाइजेशन का रंगमंच रहा है जिसमें एक्टर्स को अपनी प्रतिभा और कल्पनाशीलता को अभिव्यक्त करने का भरपूर मौका मिलता है। उन्होंने लोक रंगमंच की ताकत से पूरी दुनिया को रुबरु कराया। अपनी नाट्य संस्था में कलाकारों को मासिक वेतन देकर रेपटरी की शुरुआत उन्होंने 1959 में की जिसे मूर्त रूप देना आज भी संभव नहीं हो सका है।

डाॅ. योगेन्द्र के आयोजन के समानांतर उन्हीं दिनों में रजा फाऊंडेशन द्वारा छत्तीसगढ़ शासन के संस्कृति अकादमी के सहयोग से रायपुर में हबीब साहब की स्मृति में दो दिवसीय आयोजन किया गया। इस आयोजन में अलग-अलग सत्रों में व्याख्यान हुए लेकिन इसमें भाग लेने वाले अधिकांश वक्ता न तो हबीब साहब से जुड़े रहे और न वे रंगमंच या छत्तीसगढ़ की लोक परंपरा से आते थे। इस आयोजन की शुरूआत हबीब साहब के साथ काम कर चुकी गायिका अभिनेत्री पूनम तिवारी के हबीब जी के नाटकों के गीतों की प्रस्तुति से हुआ। हबीब साहब के नया थियेटर में उनके साथ काम कर चुके अधिकांश कलाकार अब इस दुनिया में नहीं है। पूनम एकमात्र कलाकार है जिन्हें हबीब साहब के नाटकों के सारे गीत याद हैं। पूनम के गीत ’चोला माटी’ ने अनेक श्रोताओं के आंखों में आंसू ला दिया। उनके सारे गीतों को डाकुमंेट करने का आग्रह मैं राज्य सरकारों सहित अन्य संस्थाओं से करता रहा हूँ लेकिन इस दिशा में अब तक कोई विचार भी नहीं हो पाया।

अपना कार्यक्रम समाप्त होने के बाद हाल ही में अपना जवान बेटा और अपना पति खो देने वाली रंग गायिका पूनम ने मंच से अपना मोबाइल नम्बर बताते हुए उसे कार्यक्रम देने का आग्रह करती है ताकि उसका जीवन यापन हो सके। यह हमारी समूची व्यवस्था पर करारा तमाचा है कि ऐसी बेशकीमती कलाकार का जीवन यापन लायक संरक्षण करने के प्रति वह गंभीर नहीं है। पूनम की छोटी बच्ची बेला अब इतनी बड़ी हो गई है कि वह भी मंच पर अपनी माँ के साथ गीत गाने लगी है। मुझे नहीं लगता कि कार्यक्रम दिलाने के पूनम के आग्रह पर कोई गौर करेगा।

इस आयोजन की एक और प्रस्तुति जिसने श्रोताओं को बेहद प्रभावित किया, वह था युवा रंगकर्मी राणा प्रताप सेंगर द्वारा प्रस्तुत हबीब साहब के रंगमंचीय जीवन के कुछ प्रसंगों के साथ उनके नाटकों के गीतों का गायन। इस प्रस्तुति में राणा ने हबीब साहब की भूमिका निभाते हुये उन्हें मंच पर जीवंत कर दिया था। राणा अपनी इस कल्पनाशील प्रस्तुति को हबीब जी से जुड़े कुछ और दिलचस्प रंगमंचीय प्रसंगों को जोड़कर तथा प्रस्तुति में एक्षन लाकर और बेहतर बना सकते थे।़ पूरी प्रस्तुति में सारे कलाकारों का एक ही पोजीशन में रहने के बजाय यदि उनमें एक्षन होता तो मोनोटोनी के खतरे से बचा जा सकता था। बहरहाल यह राणा का बेहतरीन प्रयोग है हबीब साहब को रिक्रियेट करने का।

हबीब तनवीर की रंगदृष्टि, उनके रंगमंच तथा उनके जीवनवृत्त पर दो दिनों तक दर्जन भर से अधिक वक्ताओं के व्याख्यान हुए। उनमें से जितना मैं सुन सका, उससे लगा कि यह सारी बातें पहले भी होती रही है और यह उनका दुहराव ही लग रहा था। हो सकता है कुछ नई बातें उन व्याख्यानों में रही हो जिनको मैं सुन नहीं सका। राज्य शासन के संस्कृति परिषद के सहयोग आयोजित इस कार्यक्रम में सरकार का कोई नुमाइंदा नजर नहीं आया। सबसे अच्छी बात यह थी कि ऐसे आयोजनों में प्रायः सुनने वालों की संख्या बोलने वालों से कम होती है लेकिन इस आयोजन में दो दिन पूरा हाल श्रोताओं से भरा रहा।

मुझे लगता है कि हबीब तनवीर पर इन चर्चाओं को आगे ले जाने की जरूरत है जिसमें हबीब साहब की रंग परंपरा की निरंतरता बनाये रखने की कोई राह बने। इस सवाल पर भी विचार किया जाना चाहिए कि आखिर वे क्या कारण है कि हबीब साहब की रंग परंपरा ठहर गई है। रजा फाउंडेशन के पास साधनों, संपर्कों और प्रतिष्ठा का पूंजी है। फाउंडेशन के मुखिया अशोक वाजपेयी ही थे जिन्होंने हबीब तनवीर को भारत भवन रंगमंडल लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

हबीब साहब पर केन्द्रित कोई ’आर्काइव’ स्थापित करने की दिशा में रजा फाउंडेशन किसी तरह की पहल कर सके तो यह अत्यंत सार्थक रहेगा। इसके माध्यम से हबीब साहब की रंग परंपरा और उनकी स्मृति को जीवित रखने के साथ ही उन पर शोध कार्य को बढ़ावा मिल सकेगा। साथ ही नई पीढ़ी के रंगकर्मी भी उनके कामों से रुबरु होते रहेंगे। इस बहाने छत्तीसगढ़ी नाचा परंपरा को हबीब साहब की शैली में पुर्नस्थापित करने की दिशा में काम हो सकता है। यह काम तो कायदे से छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश की राज्य सरकारों को अब तक कर लेना था क्योंकि यही राज्य हबीब साहब की जन्म स्थली व कर्मस्थली रही है लेकिन ऐसा कुछ हो नहीं सका और न इसकी कोई संभावना है। अशोक बाजपेयी जैसे व्यक्तित्व और उनकी संस्था रजा फाउंडेशन से इसीलिये यह अपेक्षा की जा रही है।

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