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दुष्टों को दंड देने वाले वैदिक देवता रूद्र

सावन

आर्यों को अत्याचारी बताना मात्र कोरी कल्पना है। वेदों में दुष्ट और हिंसक प्राणी को दण्डित करने का उपदेश देते और दुष्टों को दंड देकर रूलाने वाले देवता के रूप में रुद्र की प्रार्थना के अनेक मंत्र भी प्राप्य हैं। रूद्र के सम्बन्ध में ऋग्वेद 1/114/7 में अंकित एक मंत्र में प्रार्थना करते हुए कहा गया है कि हे रुद्र! हमारे बड़ों को, छोटों को तथा वीर्य सिंचित में समर्थ युवा को मत मार, हमारे माता पिता को मत मार और प्रिय शरीरों व शिशुओं की हिंसा मतकर। इस मंत्र में अंकित रुद्र को देख ये लोग एक मूलनिवासी राजा की काल्पनिक छवि बना लेते है ओर आर्यों को विदेशी बना देते है,जबकि यहाँ वास्तविक अर्थ कुछ अन्य ही है।

 एकेश्वरवादी वैदिक परंपरा में एकमात्र ईश्वर की उपासना करने का उपदेश देते हुए कहा गया है कि सबको शिक्षा देने वाले, सूक्ष्म से सूक्ष्म, स्वप्रकाश-स्वरूप, समाधिस्थ बुद्धि से जानने योग्य को ही परम पुरुष जानना चाहिए। अनेक दिव्य गुण युक्त होने के कारण उस एकमात्र परम पुरुष अर्थात ईश्वर के अनन्त नाम हैं। वैदिक ग्रंथों में परमेश्वर का प्रधान और निज नाम ओ३म् को कहा है, और अन्य सब नामों को गौणिक नाम कहा गया है। क्योंकि सब वेद, सब धर्मानुष्ठानरूप तपश्चरण, जिसका कथन और मान्य करते और जिसकी प्राप्ति की इच्छा करके ब्रह्मचर्याश्रम करते हैं, उसका नाम ओ३म् है। स्वप्रकाश होने से अग्नि, विज्ञानस्वरूप होने से मनु और सबका पालन करने से प्रजापति, परमैश्वर्यवाला होने से इन्द्र, सबका जीवनमूल होने से प्राण और निरन्तर व्यापक होने से परमेश्वर का नाम ब्रह्म है। कैवल्य उपनिषद खंड 1 मंत्र 8 में इसकी व्याख्या करते हुए कहा गया है-

स ब्रह्मा स विष्णुः स रुद्रस्स शिवस्सोऽक्षरस्स परमः स्वराट्।

स इन्द्रस्स कालाग्निस्स चन्द्रमाः।।

-कैवल्य उपनिषद 1/8

अर्थात- सब जगत के बनाने से ब्रह्मा, सर्वत्र व्यापक होने से विष्णु, दुष्टों को दण्ड देके रुलाने से रुद्र, मंगलमय और सबका कल्याणकर्त्ता होने से शिव, सर्वत्र व्याप्त अविनाशी होने से अक्षर, स्वयं प्रकाशस्वरूप स्वराट और प्रलय में सबका काल और काल का भी काल होने से परमेश्वर का नाम कालाग्नि है।

इस मंत्र के अनुसार दुष्टों को दण्ड देके रुलाने से उस एकमात्र निराकार परमात्मा का नाम रुद्र है, फिर भी कुछ अज्ञानी वैदिक मत विरोधी रुद्र को शरीरधारी बताकर रुद्र को मूलनिवासी राजा तथा आर्यों को सताने वाला सिद्ध करने में लगे हैं। इसका कारण यह है कि अनेक वेद मंत्रों में रूद्र से अहिंसा की प्रार्थना की गई है। रुद्र से अहिंसा के लिए की गई इन प्रार्थनाओं से इन्हें रुद्र नामधारी वैदिक देवता को मूल निवासियों का शरीरधारी राजा बतला स्वयं को आदिवासी- मूलवासी स्थानीय साबित करने और आर्यों के रूप में ब्राह्मणों को विदेशी आक्रमण कारी कहने का मौका मिल गया है। जबकि आर्यों के विदेशी होने की बात तो स्वयं बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर भी नकारते है, लेकिन फिर भी राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए ऐसे लोग हड़प्पा की तीन अथवा चार सिर वाली योगी जैसी दिखने वाली लिंगनुमा एक सील को स्थानीय रूद्र का प्रतीक और आर्यों को मूल निवासियों पर अत्याचार करने वाले विदेशी बतलाते हैं, तो कभी अन्य तरीकों से आर्यों को विदेशी आक्रमणकारी सिद्ध कर आर्य और अनार्य, द्रविड़ के नाम पर समाज में विभेदकारी राजनीति करने लगते हैं। जबकि वेदों में अंकित मंत्रों से रुद्र का निराकार परब्रह्म और आर्यों का अहिंसक होना सिद्ध होता है। ऋग्वेद 10/134/7 में अंकित मंत्र में आर्यों के अहिंसक होने की घोषणा करते हुए ईश्वर स्वयं कहते हैं

नकिर्देवा मिनीमसि नकिरा योपयामसि मंत्रश्रुत्य चरामसि ।

पक्षेभिरपि कक्षभि सरभामहे।।

– ऋग्वेद 10/134/7

अर्थात- न तो हम हिंसा करते हैं, न ही घात -पात करते हैं, और न ही फूट डालते हैं, बल्कि मंत्र के श्रवण अनुसार आचरण करते हैं, तिनकों के समान तुच्छ साथियों से भी एक होकर एक मत होकर, मिलजुल कर प्रेम पूर्वक कार्य करते हैं।

इस मंत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि हम अहिंसक है, किसी पर अत्याचार नही करते। ऐसे में आर्यों को अत्याचारी बताना मात्र कोरी कल्पना है। वेदों में दुष्ट और हिंसक प्राणी को दण्डित करने का उपदेश देते और दुष्टों को दंड देकर रूलाने वाले देवता के रूप में रुद्र की प्रार्थना के अनेक मंत्र भी प्राप्य हैं। रूद्र के सम्बन्ध में ऋग्वेद 1/114/7 में अंकित एक मंत्र में प्रार्थना करते हुए कहा गया है कि हे रुद्र! हमारे बड़ों को, छोटों को तथा वीर्य सिंचित में समर्थ युवा को मत मार, हमारे माता पिता को मत मार और प्रिय शरीरों व शिशुओं की हिंसा मतकर। इस मंत्र में अंकित रुद्र को देख ये लोग एक मूलनिवासी राजा की काल्पनिक छवि बना लेते है ओर आर्यों को विदेशी बना देते है,जबकि यहाँ वास्तविक अर्थ कुछ अन्य ही है।

वेदों में उल्लिखित चिकित्सा विज्ञान संबंधी मंत्रों में विभिन्न तरह के रोगाणुओं व कृमियों का भी वर्णन है। अथर्ववेद 2/31/4 में रोगाणुओं, कृमियों के संबंध में कहा गया है-

अन्वान्त्र्यं शीर्षण्यमथो पाष्ठेयं क्रिमीन ।

अव्यस्कवं व्यध्वरं क्रिमीन वचसा जेभयमसि ।।- अथर्ववेद 2/31/4

अर्थात- आंतों में, मस्तक में, पसलियों में पाए जाने वाले व्यधर तथा अवयस्क कृमियों का हम नाश करते हैं।

अथर्ववेद 2/3/21 में भी कृमियों का वर्णन आया है-

दृष्टमद्दष्टमतृहमथो कुरुरुमतृहम् ।

अल्गण्डूकन्त्सर्वान् छलुनान् कृमीन वचसा जैभयामसि ।। -अथर्ववेद 2/3/21

इस मंत्र में दृश्य तथा अदृश्य कुरुक, अल्गणुक तथा शलुन नाम के रोग जन्तुओं का नाम आया है। यजुर्वेद में एक कृमि का नाम आया है, जिसे रुद्र कहा गया है-

ये अश्रेषु विविध्यंति पात्रेषु पिक्तो जनान् ।। -यजुर्वेद

यह रूद्र संज्ञक जंतु अन्न, पानी के द्वारा शरीर में पहुँच कर विभिन्न रोग उत्पन्न करते हैं।

इन जीवों को रूद्र नाम दिया गया है। निरुक्त 10/5 में कहा गया है-

यदरोदीत्तद्रुद्रस्य। -निरुक्त 10/5

अर्थात – रुलाता है, इसलिए रूद्र है।

रोग फैला कर ये रोगी ओर उसके परिजनों को कष्ट पंहुचा कर दुखी करते हैं, रुलाते हैं। इसी कारण इन्हें रूद्र कहा है ।

यजुर्वेद में इनका निवास भी बताया गया है-

नमो रुद्रेभ्यो ये पृथिव्यां ये अन्तरिक्षे मे दिवि ।

येषामन्नं वातो वर्षमिषवः ।।- यजुर्वेद

अर्थात- रुद्रों के लिए नमन, जो पृथ्वी, अन्तरिक्ष, आकाश में रहते हैं तथा वायु जिनका अन्न है तथा वृष्टि जिनका घर है।

इस मंत्र में इन रोग जंतुओं  का सर्वत्र होने का भी प्रमाण मिलता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि उपरोक्त मंत्र में रूद्र से किया गया प्रार्थना वास्तव में रोगाणुओं के लिए है, न कि किसी राजा या किसी व्यक्ति के लिए। कारण है कि रोग जंतु ही पशुओं, बालकों, स्त्री- पुरुष सबमें रोग फैलाकर हिंसा करते हैं। इसलिए मंत्र में रोगाणु से बचने ओर स्वस्थ जीवन की प्रार्थना है। इसलिए वेदों मे आये इस रूद्र के वर्णन से राजा अथवा मनुष्य समझना मूर्खता और कोरी कल्पना है।

शिव के पौराणिक वर्णनों में उन्हें शत्रुओं को, दुष्टों को, तारकासुर,जलंधर, अन्धक आदि राक्षसों को मारते हुए, रुलाते हुए दिखाया गया है। शिव दुष्टों को रुलाते थे। इसलिए इन्हें भी रूद्र नाम दिया गया। दक्ष के द्वारा इन्हें अपमान किए जाने कारण इनका दक्ष से वैर था, लेकिन दक्ष को छोड़ किसी अन्य से कोई बैर नहीं था। इससे यह भी स्पष्ट है कि रूद्र न तो आर्य विरोधी थे न वे स्वयं अनार्य थे। आर्य कोई जाति नहीं, बल्कि आर्य का अर्थ है श्रेष्ट कर्म करने वाला।

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By अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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