भोपाल। जी-20 के राष्ट्रों के शासनाध्यक्षों और राष्ट्राध्यक्षों के सम्मेलन की तैयारी और प्रचार ना केवल सरकार वरन सत्ता दल द्वारा भी पूरे ज़ोर –शोर से किया जा रहा है। परंतु प्रश्न यही है कि क्या, इन सब तैयारियों से क्या सीमा पर चीन की चुनौती और मणिपुर में जातीय संघर्ष तथा उत्तर पूर्व राज्यों में और हिमालय के प्रदेशों में बाढ़ की मार सह रहे लाखों – लाखों नागरिकों को कोई राहत मिलेगी ! शायद नहीं, परंतु एक राष्ट्र के रूप में यह एक कूटनीतिक दायित्व है, जिसे निभाना होता है। परंतु एक कहावत है कि यह एक गलत प्राथमिकता है। इसी सम्मेलन के मध्य अचानक मोदी सरकार द्वारा संसद का विशेष अधिवेशन आहूत करना भी मीडिया में मोदी जी का मास्टर स्ट्रोक बताया जा रहा हैं। प्राकृतिक आपदा और नूह – मणिपुर में सांप्रदायिक नफरत का ज्वार देश को बेचैन किए हुए है, वहीं सत्ता के अंग –उपांग जैसे आरएसएस और बीजेपी कोरोना काल के समय की अपनी आदत को दुहराते हुए चार राज्यों में विधान सभा चुनावो में, सरकार के खर्चे पर वोट पाने के लिए अनेक कल्याणकारी घोषणाओं का डंका पीट रहे हैं, पैसा सरकार का और वोट मांगे जा रहे हैं राजनीतिक दल के लिए। भले ही राज्य पर ओवर ड्राफ्ट का बोझ अनियंत्रित रूप से बढ़ता जाये। इसे कहते है सरकारी खर्चे से चुनाव लड़ना।
ऐसा ही एक समारोह दिल्ली ने 1911 में देखा था जब ब्रिटेन के सम्राट और साम्राज्ञी भारत आए थे। तब भी देश के 500 से अधिक रियासतों के अधिपति उन्हें सर झुकाने आए थे। जिस तरह दिल्ली की सड़कों और पार्कों को सजाया जा रहा है, वैसी तैयारी देश के स्वतंत्रता दिवस अथवा गणतंत्र दिवस पर भी तैयारी नहीं होती। लोग कहते है कि मोदी जी का स्टाइल है कि वे जो भी करते है बड़े धूम – धड़कें से करते हैं चाहे वह नोटबंदी हो या देश में कोरोना काल में आवागमन पर प्रतिबंध हो ! नागरिकों को कष्ट होता है तो होने दो पर सत्ताधीश को मजा आना चाहिए! फोटो उनके अकेले के खिचने चाहिये। प्रचार केवल उनका ही होना हैं !
इतना स्व केंद्रित नेता शायद भारत के लोकतंत्र में पहली बार हुआ है, जिसे जनता से ज्यादा अपनी कुर्सी को बचाने की कसरत करनी पढ़ रही है। याद करे नौ साल पहले नागरिकों को स्विट्जरलैंड में जमा कथित धन, वह भी काँग्रेस और गांधी परिवार के खातों में जो दस साल सत्ता में रहने के बाद भी एक रुपया नहीं निकाल पाये उल्टे अदानी से अपने नजदीकी संबंधों के कारण सरकारी कंपनियों को उनको बेचने और हवाला से काला धन वापस अदानी की कंपनियों में वापस लगाए जाने की गूंज विदेशों तक में हो रही है। विदेशों में बसे गुजराती भाइयों में अपने इस स्वजन के प्रति स्नेह को जहां उनके चंदे और समर्थन के रूप में भीड़ बन के दिखाया जा रहा है- हकीकत में वैसा है नहीं। अपने मुल्क के आदमी को विदेश की धरती पर देख कर, जो आत्मीयता उमड़ती है, वह सहज भावना है। उसमें कहीं से भी यह भावना नहीं होती कि वे हिन्दू है या गुजराती हैं वे तो बस भारतीय है।
अब बात करते हंै मोदी के सिपहसालार जयशंकर प्रसाद की विदेश कूटनीति की। जिस चीन के राष्ट्रपति (आजीवन राष्ट्रपति) ज़ी सीन पिंग की अगवानी और संबंधों की बदौलत संयुक्त राष्ट्र संघ में यूक्रेन के मुद्दे पर रूस के साथ भारत खड़ा हुआ है, उसकी कीमत यह है कि ना तो रूसी राष्ट्रपति पुतिन ही इस सम्मेलन में भाग ले रहे हैं ना ही चीन के राष्ट्रपति। उधर लद्दाख की विवादित सीमा पर चीन के क़ब्ज़े को लेकर अभी भी – मोदी जी और जयशंकर प्रसाद का अड़ियल रुख है कि हमारी भूमि पर ना तो कोई कब्जा है और नहीं था। जबकि गोदी मीडिया भी अब तो उपग्रह के फोटो के द्वारा चैनलों में दिखा रहा है कि चीन सीमा पर भूमिगत सुरंगों में युद्ध के हथियार छुपा रहा है। अब चीन द्वारा भारतीय भू-भाग को अपनी सीमा में दिखाने पर यह कहना कि उनकी इस हरकत से कोई फर्क नहीं पड़ता। हो सकता है नहीं प्रभाव पड़ता हो, परंतु देश की सार्वभौमिकता को चुनौती तो है। वैसे चीन की यह हरकत केवल भारत के साथ ही नहीं वरन वियतनाम, थायलैंड आदि अनेक पड़ोसी देशो के भू-भाग को भी चीन अपनी जमीन बताता है।
आखिर में मोदी जी से एक सवाल है कि हुजूर विरोधी दलों के एका से घबराहट तो पता चल रही है जिस सरकार ने अनेक आंदोलन और जनता की शिकायत के बाद भी घरेलू गैस के दाम नहीं घटाए उसी मोदी सरकार ने बंबई में इंडिया की बैठक के बाद –अपनी ओर से गैस की कीमतों में कटौती कर दी ? आखिर क्यूं और किस कारण से ? अब मंहगाई कम करते हंै तो देश के गुजराती उद्योगपतियों को नाराज तो नहीं कर सकते, क्यूंकि राहुल गांधी की सदस्यता खत्म करने का षड्यंत्र उनके द्वारा लोकसभा में यह कहे जाने पर किया गया कि प्रधानमंत्री बताए कि उनका और गौतम अदानी का क्या संबंध है।
देश आज भी यही सवाल कर रहा है कि आखिर क्या संबंध है प्रधानमंत्री और गौतम अदानी का आगे पीछे इस सवाल का खुलासा तो होगा, पर तब तक गुनहगार गुजर ना जाये।