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पार्टियों से लेने का अवसर!

delhi assembly election: जनता भी मान बैठी है की जो सत्तानीति आज चल रही है उसमें जिस भी दल से जो भी मिलता है, ले लेना चाहिए। क्योंकि पहले तो वह भी नहीं मिलता था। या तो वादे कागज पर ही रहे या फिर कुछ गिने-चुने को ही फायदा मिलता रहा। ऐसे सत्तातंत्र के लिए लोक की जिम्मेदारी व उत्तरदायित्व को भी नकारा जा रहा है। सभी स्वार्थहित को ही समाजहित मानने पर मजबूर हो गए हैं।

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आज जब बनावटी बुद्धिमता पर सारा जोर है तो साधारण सामाजिक समझ का क्या होगा? दिल्ली विधानसभा चुनाव में जो सत्ता के लिए त्रिकोणी संघर्ष व प्रचार चल रहा है उसको देखते हुए जनसेवकों की वैचारिक गिरावट से दिल्लीवासी हैरान हैं।

सत्ता पाने की ललक सेवा करने के भाव पर भारी पड़ रही है। और बेधड़क दिखाई भी जा रही है। जनसेवा के लिए मैदान में उतरे भाजपा, कांग्रेस या आप के पार्टी-सेवक सिर्फ सत्ता पाने की लालसा में, या फिर खोने के डर में ही दिख रहे हैं।(delhi assembly election)

बनावटी बुद्धिमता के प्रकोप में फंसे जनसेवक साधारण समझ का अकाल भी दिखा रहे हैं। अपने सामाजिक अज्ञान में सत्ता के ज्ञान को ही आधुनिक विज्ञान बता रहे हैं। ऐसी स्थिति में दिल्लीवासी सिर्फ मज़ा लेने के लिए मजबूर हैं।

उम्मीदवारों के चरित्र की गिरावट

आए दिन जो बयानबाजी हो रही है उसमें उम्मीदवारों के चरित्र की गिरावट भर ही नहीं झलक रही। उसमें मतदाता को मुफ्तखोर मानने की मन्नवल भी चल रही है।

जनसेवा के मुद्दों पर बहस होने के बजाए सत्ता पाने के हथकंडे ही चल रहे हैं। दो विधानसभा चुनाव में दिल्ली की जनता को आपदा चुनने के लिए लताड़ा जा रहा है।

जनता की सत्ता समझ को ललकारा भी जा रहा है। रेवड़ी बांटने और मुफ्तखोरी चलाने का आरोप सभी पर लग रहा है। जनता भी मान बैठी है की जो सत्तानीति आज चल रही है उसमें जिस भी दल से जो भी मिलता है, ले लेना चाहिए।

क्योंकि पहले तो वह भी नहीं मिलता था। या तो वादे कागज पर ही रहे या फिर कुछ गिने-चुने को ही फायदा मिलता रहा।(delhi assembly election)

ऐसे सत्तातंत्र के लिए लोक की जिम्मेदारी व उत्तरदायित्व को भी नकारा जा रहा है। सभी स्वार्थहित को ही समाजहित मानने पर मजबूर हो गए हैं।

यही सत्तानीति या राजनीति का बदलाव है(delhi assembly election)

क्या यही सत्तानीति या राजनीति का बदलाव है? क्या लोकतंत्र किसी एक ही दल या पार्टी को संपूर्ण सत्ता सौंपने से ही तय होता है? और क्या सभी दल, आपसी दलदल में पड़े नहीं दिख रहे हैं?

लोकतंत्र तो अपने समाज के बीच घुलमिल कर रहने, समभाव व सौहार्द का माहौल बनाने और सेवा का भाव रखने वाले जनसेवक चुनने से बनता है। राजधानी के कारण दिल्ली की परिस्थिति अन्य राज्यों से अलग रही है।

दिल्ली की जनता में यही विचार घर भी कर गया है कि अगर आम आदमी पार्टी को पिछले पांच साल में काम करने ही नहीं दिया गया है तो क्यों नहीं भाजपा को ही चुना जाए।

स्वार्थ के लिए सत्ता की गुलामी से लोकतंत्र न फलता है न विकसित होता है। लोकतंत्र तो सर्वानुमति से चलता है। सत्ता के प्रति समर्पण से नहीं। ऐसे और कई अन्य मायने में दिल्ली के चुनाव महत्वपूर्ण रहने वाले हैं।

दिल्ली में एक महा-मुद्दा

दिल्ली में एक महा-मुद्दा है। जो शराब घोटाला यहां हुआ या बताया, माना गया उसकी भी कई अनखुली, अनसुलझी परतें हैं। जनता के बीच में जिस पर बातें है। बहस है। और अफवाएं हैं।

जनता को सूचित करना, दल या पार्टी का सत्य सामने लाने का जो पत्रकारिता का उद्देश्य रहा वह आज की मीडिया के लिए व्यवसाय भर है।(delhi assembly election)

हर तरफ से आ रही अपार सूचना के बीच में सत्य-असत्य जानने की जिम्मेदारी जनता पर ही छोड़ दी गयी है। जनता को ही अपनी साधारण सामाजिक समझ से समझना होगा।

असल बात और अफवाह में अंतर करने के लिए जनता के साथ कोई खड़ा नहीं है। आज लोकतंत्र के माने गए चार स्तंभ लोकलाज से ज्यादा सत्तातंत्र के लिए कार्यरत हैं।

आशा यही है कि जब सब कुछ बदलता है तो यह भी जरूर बदलेगा। और लोकतंत्र का सुचारु चलना तो लोक का कदम मिलाकर चलने से ही रहा है।

महात्मा गांधी की जयंती पर उनका याद दिलाया भी याद रहे। समाज के सर्वांगीण विकास में ही व्यक्ति का असल विकास भी निहित है।(delhi assembly election)

इसलिए दिल्ली में जो प्रचार चल रहा है उसका परिणाम दिल्लीवासियों को ही देना है। यह याद रखते हुए कि प्रकृति ने हर व्यक्ति को दो आंख, दो कान दिए, मगर मुंह एक ही दिया है।

देखना होगा की दिल्ली की जनता सत्ता का दल बदलती है या दलों के दलदल में से भी सेवाभावी जनसेवक चुनती है? और स्वार्थ से ऊपर उठ कर समाज हित में मतदान करती है? दिल्ली को चुनना नहीं, चुनाव करना है।

By संदीप जोशी

स्वतंत्र खेल लेखन। साथ ही राजनीति, समाज, समसामयिक विषयों पर भी नियमित लेखन। नयाइंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर।

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