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फ्रांसीसी चुनाव: ‘लेफ्ट’-‘लिबरल’ का सच

‘लेफ्ट-लिबरल’ कितना विरोधाभासी है, उसका जीवंत उदाहरण फ्रांस के हालिया संसदीय चुनाव में देखने को मिल जाता है। जब पहले चरण के चुनाव में दक्षिणपंथी ‘नेशनल रैली’ गठबंधन ने वामपंथी दलों के ऊपर निर्णायक बढ़त बनाई और उसकी प्रचंड जीत की संभावना बनने लगी, तब इसी ‘लेफ्ट-लिबरल’ गिरोह के चेहरे से ‘लिबरल’ मुखौटा एकाएक उतर गया। वास्तव में, ‘लेफ्ट-लिबरल’ संज्ञा किसी फरेब से कम नहीं। यह दो अलग शब्दों को मिलाकर बना है, जिनका रिश्ता पानी-तेल के मिलन जैसा है। ऐसा इसलिए, क्योंकि जहां वामपंथ होता है, वहां उसके वैचारिक चरित्र के मुताबिक हिंसा, असहमति का दमन, मानवाधिकारों का हनन और अराजक व्यवस्था की भरमार होती है। ठीक इसी तरह वामपंथ और एकेश्वरवादी दर्शन का गठजोड़ भी छलावा है। ऐसा में एक ‘लेफ्ट’ का ‘लिबरल’ होना असंभव है। इस पृष्ठभूमि में फ्रांस का घटनाक्रम महत्वपूर्ण हो जाता है।

फ्रांसीसी संसदीय चुनाव के पहले चरण में लेफ्ट पार्टियों के ‘न्यू पॉपुलर फ्रंट’ के पिछड़ने के बाद लेफ्ट ने ‘एंटीफा’ (वामपंथी समूह) और जिहादियों के साथ मिलकर हिंसक प्रदर्शन शुरू कर दिया। वे अपने खिलाफ आए इस जनादेश को मानने को तैयार नहीं हुए। उन्होंने सड़कों पर कब्जा करके कई निजी-सार्वजनिक संपत्तियों को पेट्रोल-बम के इस्तेमाल से राख कर दिया, तो सुरक्षा में तैनात सैकड़ों पुलिसकर्मियों पर टूट पड़े। इस दौरान दंगाइयों ने कई दुकानों को भी लूट लिया, उनमें तोड़फोड़ की और स्थानीय भवनों को बदरंग कर दिया।

अधिकतर फ्रांसीसी राजनीतिक विश्लेषक इस नतीजे पर पहुंच चुके थे कि राष्ट्रवादी दल की नेता मरिन ले पेन के नेतृत्व में ‘नेशनल रैली’ और उसके सहयोगी 250-300 सीट जीत सकते हैं। उनका यह अनुमान इसलिए भी ठीक लग रहा था, क्योंकि इसी वर्ष हुए यूरोपीय चुनाव में भी मरिन नेतृत्व ने शानदार प्रदर्शन किया था। लेकिन ‘नेशनल रैली’ को किसी भी सूरत में रोकने के लिए पहले चरण में अलग-अलग चुनाव लड़ने वाले फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों नीत मध्यमार्गी ‘इनसेंबल’ और वामपंथी ‘न्यू पॉपुलर फ्रंट’ ने दूसरे चरण के आखिरी वक्त में गठबंधन (रिपब्लिकन फ्रंट) कर लिया। इसके तहत दोनों ने मिलकर अंतिम समय में अपने कुल 217 उम्मीदवारों को मैदान से हटा लिया, ताकि दक्षिणपंथ विरोधी वोट एकजुट रहें। परिणामस्वरूप, नाटकीय मोड़ के साथ ‘नेशनल रैली’ ऐसी पिछड़ी कि वह पहले से सीधे तीसरे स्थान पर खिसक गई।

भले ही दक्षिणपंथी ‘नेशनल रैली’ चुनाव हार गई, परंतु उसे सर्वाधिक 37.1 प्रतिशत वोट प्राप्त हुआ, तो उसके विरोधी लेफ्ट गठजोड़ और मैक्रों नीत ‘इनसेंबल’ का मत प्रतिशत क्रमश: 26.3 प्रतिशत और 24.7 प्रतिशत ही रहा। फ्रांस की 577 सदस्यीय नेशनल असेंबली (संसद) में तीनों प्रमुख गठबंधनों में से किसी को भी स्पष्ट बहुमत नहीं मिला है। फ्रांसीसी गृह मंत्रालय द्वारा जारी नतीजों के मुताबिक, वामपंथी ‘न्यू पॉपुलर फ्रंट’ सबसे ज्यादा 188 सीट, तो मध्यमार्गी ‘इनसेंबल’ को 161 सीट और दक्षिणपंथी ‘नेशनल रैली’ 142 सीट जीतने में सफल रही है।

भारत में भी ‘लेफ्ट-लिबरल’ का पाखंड फ्रांस से अलग नहीं है। यहां कांग्रेस के शीर्ष नेता और लोकसभा में नेता-प्रतिपक्ष राहुल गांधी को इसी श्रेणी में रखना, गलत नहीं होगा। वे विशुद्ध वामपंथी की तरह ‘जितनी आबादी, उतना हक’ नारा लगाते हुए ‘हिंदुस्तान के धन’ को पर पुनर्वितरित करने की बात चुके हैं। इस संबंध में 31 मार्च 2024 को दिल्ली के रामलीला मैदान में विपक्षी दलों की ‘लोकतंत्र-संविधान बचाओ’ रैली में राहुल के उस वक्तव्य को याद करना स्वाभाविक हो जाता है, जिसमें उन्होंने देश को हिंसा की आग में झोंकने का ऐलान किया था। तब उन्होंने कहा था, “मेरी बात आप अच्छी तरह सुन लो… अगर हिंदुस्तान में मैच फिक्सिंग कर चुनाव बीजेपी जीती और उसके बाद संविधान को उन्होंने बदला तो इस पूरे देश में आग लगने जा रही है। जो मैंने कहा, याद रखो… ये देश नहीं बचेगा।“

दोबारा फ्रांसीसी चुनाव की ओर लौटते हैं। फ्रांस में मरिन ले पेन को उनके राजनीतिक प्रतिद्वंदियों द्वारा यहूदी विरोधी और मुस्लिम विरोधी के रूप में पेश किया जाता है। मरिन फ्रांसीसी सेकुलर मूल्यों और राष्ट्रीय पहचान की रक्षा के लिए अप्रवासियों द्वारा बढ़ते अपराध के खिलाफ आक्रमक रही हैं। इसमें अक्टूबर 2020 में प्रवासी मुस्लिम द्वारा फ्रांसीसी शिक्षक का ‘सिर तन से जुदा’ करने की घटना भी शामिल है। अब जो वाम-जिहादी समूह पहले चरण के फ्रांसीसी चुनाव में हारने पर हिंसक हो गया था, वे दूसरे चरण के चुनाव में बढ़त बनाने के बाद हाथों में फिलस्तीनी झंडा लेकर सड़कों पर उतरे और अराजकता फैलाने लगे। स्थानीय मीडिया के अनुसार, वामपंथी गठजोड़ द्वारा आयोजित कई ‘विजय समारोहों’ में फ्रांसीसी ध्वजों झंडों की तुलना में फिलस्तीनी झंडे फहराते और ‘गाजा-गाजा’ नारे लगाते देखे गए थे।

वर्ष 1991 में वामपंथ नीत सोवियत संघ के विघटन के बाद विश्व में अमेरिका और यूरोप सहित सत्ता के कई केंद्र बन चुके हैं, जिसमें एक अत्यंत शक्तिशाली ‘राज्यहीन’ और ‘बिना उत्तरदायित्व’ वाला समूह भी शामिल है। किसी उपयुक्त संज्ञा के अभाव में इस वर्ग को ‘वोक’ (woke) कह सकते हैं। यह समूह छोटा, अति-मुखर और आक्रमक है, जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनी सरकारों को उसके उन घोषित एजेंडे को लागू करने से रोकने और व्यवस्था को पंगु करने का प्रयास करता है। स्वघोषित ‘लेफ्ट-लिबरल’ और ‘वोक’ मानकर चलते हैं कि शेष समाज निर्णय लेने में गैर-काबिल है, इसलिए उन्हें ही उनका भला करने का दैवीय अधिकार प्राप्त है। वामपंथी वैचारिक-अधिष्ठान से प्रेरित यह गिरोह, बिना किसी अपराध-बोध के जनादेश का हरण करने में हिचकता नहीं है। फ्रांस में पहले चरण के आम चुनाव में पराजित होने पर वामपंथियों द्वारा हिंसक प्रदर्शन इसका एक उदाहरण है।

पूरे विश्व में लोकतंत्र और बहुलतावादी संस्कृति को खतरा है, तो वह दोहरे चरित्र वाले ‘लेफ्ट-लिबरल’ से है। इस जुमले में ‘लेफ्ट’ ही महत्व रखता है और ‘लिबरल’ किसी आकर्षक पैकिंग की तरह है। कोई हैरानी नहीं कि दुनिया में जहां-जहां ‘लेफ्ट’ की सरकार बनी, वहां की उदारवादी व्यवस्था पर आघात हुआ और अंततोगत्वा वह समाज में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मानवाधिकारों के हनन के प्रतीक बन गया। भारत की कालजयी उदारवादी परंपराओं को इसी ‘लेफ्ट-लिबरल’ और ‘वोक’ से भी सर्वाधिक खतरा है।

 

हाल ही में लेखक की ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक प्रकाशित हुई है।

संपर्क:- punjbalbir@gmail.com

By बलबीर पुंज

वऱिष्ठ पत्रकार और भाजपा के पूर्व राज्यसभा सांसद। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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