रिलीज़ के पहले हफ्ते में, यानी पूरे सात दिन में, ‘कस्तूरी’ केवल सत्रह लाख रुपए कमा सकी है। आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि यह कितने थिएटरों में लगी होगी। और वह भी इतनी मशक्कत के बाद। हमारे सिनेमा की जो व्यवस्था है या उसका जो इन्फ़्रास्ट्रक्चर है, उसके रवैये अथवा मनमानी के सामने छोटी फिल्मों को हमेशा इसी दुर्गति का सामना करना पड़ता है। क्या यह स्थिति किसी दुर्गन्ध से कम है? कितने लोगों को इसकी चिंता है? इसके लिए कस्तूरी कौन लाएगा?
इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि फ़िल्म का प्रकार क्या है। वह कॉमेडी है, सस्पेंस है, हॉरर, साइंस फ़िक्शन या कोई प्रेम कहानी है, कुछ भी है, लेकिन अगर वह छोटी फ़िल्म है तो फिर उसका कुछ नहीं हो सकता। छोटी फ़िल्म से मतलब, जिसका बजट छोटा हो और कलाकार भी छोटे हों। ज़ाहिर है कि ऐसी फ़िल्म का प्रचार भी छोटा होगा। उसका कथ्य कितना भी महत्वपूर्ण हो, उसकी तरफ़ न कोई डिस्ट्रीब्यूटर देखेगा और न कोई एग्ज़ीबीटर। छोटी फ़िल्में बनाने वालों से बात करके देखिए। एक से एक दर्दनाक आपबीतियां सुनने को मिलेंगी।
बजट ठीक है और उसमें कोई स्टार भी है तो छोटी फ़िल्म की भी हैसियत बड़ी हो सकती है। लेकिन जब ये दोनों ही चीजें नहीं होतीं तो क्या होता है, इसके दो उदाहरण इन दिनों हमारे सामने हैं। कृष्णा अभिषेक और पायल घोष की ‘फ़ायर ऑफ़ लव: रेड’ नाम की फ़िल्म इसी हफ़्ते रिलीज़ हुई है जिसके निर्देशक अशोक त्यागी हैं। इसमें हीरो एलएलबी करने के बाद लेखक बन जाता है और एक अमीर लड़की अपने घरवालों की मर्ज़ी के खिलाफ़ जाकर उससे शादी कर लेती है। हीरो के उपन्यास बिक नहीं पाते तो वह शराब का ऐबी हो जाता है और पत्नी से दुर्व्यवहार करने लगता है। एक दिन पत्नी ख़ुदकुशी कर लेती है और उसे इस हालत में पहुंचाने के अपराध में उसके कॉलेज के समय के प्रेमी को पकड़ लिया जाता है। मगर बाद में एक पुलिस अफ़सर किसी अन्य मामले में उपन्यास लेखक के फ़ॉर्महाउस पहुंचता है तो उसे कुछ खटकता है और फिर चीज़ें बदलने लगती हैं। इस फ़िल्म के हीरो कृष्णा अभिषेक एकदम अनजान चेहरा नहीं हैं। वे कॉमेडी सर्कस इत्यादि के बाद कपिल शर्मा शो के जाने-पहचाने कलाकार हैं और गोविंदा के भान्जे के नाते भी चर्चा में रहते हैं। लेकिन बड़े परदे पर उनकी कोई पहचान नहीं है जिसके कारण उनकी फ़िल्म को कोई पूछ नहीं रहा। फिर उनकी फ़िल्म में ऐसा है भी क्या, जिसके लिए उसे पूछा जाए?
मगर ‘कस्तूरी’ के लिए ऐसा नहीं कहा जा सकता। इसमें हम अपने समाज के एक वर्ग का क्रूर यथार्थ देखते हैं। एक स्कूली लड़के गोपीनाथ का पिता लावारिस लाशों का पोस्टमार्टम करने में डॉक्टर की मदद करता है और मां पाखाना साफ़ करती है। लड़का अपनी मां और पिता दोनों के काम में हाथ बंटाता है और आठवीं क्लास में पढ़ भी रहा है। मगर क्लास के दूसरे छात्र उसकी जाति और उसके काम को लेकर उसका मज़ाक उड़ाते हैं। उसके करीब बैठना तक नहीं चाहते। ऐसा जताते हैं जैसे उससे कोई दुर्गन्ध आ रही है। गोपी को भी उनकी बात सही लगने लगती है। वह खुद भी इस दुर्गन्ध से परेशान हो उठता है। ऐसी दुर्गन्ध जिसमें लावारिस और सड़ती लाशों का भी अंश है और गंदगी का भी। वह इससे निजात पाना चाहता है।
आखिर वह क्या करे? इस समस्या का हल उसे अपनी दादी की सुनाई एक कहानी से सूझता है, जिसमें वे कस्तूरी की बात करती हैं जो हर दुर्गन्ध को ख़त्म कर देती है। गोपी को लगता है कि कस्तूरी मिल जाए तो उसके शरीर से दुर्गन्ध समाप्त हो जाएगी। यह बात वह अपने प्रगाढ़ दोस्त आदिम को बताता है जो कि मुस्लिम है। उसके पिता कसाई हैं और वह भी मांस और खून की दुर्गन्ध से परिचित है। दोनों दोस्त मिल कर कस्तूरी की तलाश शुरू करते हैं। कोई उनसे कहता है कि वह कस्तूरी दिला तो सकता है, मगर काफ़ी पैसे लगेंगे। इस पर दोनों दोस्त पैसे जुटाने में लग जाते हैं। इस चक्कर में गोपी अतिरिक्त काम तक करता है। उसे बस किसी तरह इस दुर्गंन्ध से मुक्ति चाहिए थी जो उसे लगता है कि उसमें बस गई है।
मगर कस्तूरी की तलाश के इस अभियान में उसे बार-बार असफलता मिलती है। बार-बार उसका सपना टूटता है। धीरे-धीरे वह इस हालत में पहुंच जाता है जहां कोई भी सुगंध उसके काम की नहीं रह जाती। सारे इत्र फ़ेल हो जाते हैं। तब उसे समझ में आता है कि यह दुर्गन्ध उस पेशे और उस परिवेश की है जिससे वह जुड़ा हुआ है। और वह केवल शिक्षा के जरिये इस स्थिति से बाहर निकल सकता है। यह समझ ही उसकी कस्तूरी है, जो किसी को मिल जाती है और किसी को कभी नहीं मिल पाती।
तथ्य यह है कि फ़िल्म के निर्देशक विनोद कांबले खुद भी ऐसी ही पृष्ठभूमि से निकले हैं। उनके पिता भी म्युनिस्पैलिटी के सफ़ाई कर्मचारी थे। बचपन में दादी के साथ विनोद भी झाड़ू लगाने जाते थे। जब उन्होंने हाईस्कूल कर लिया तो उनके पिता ने कहा कि पढ़ाई छोड़ हमारे साथ काम करो, चार पैसे और आएंगे। मगर विनोद नहीं माने। दादी कहती थी, कितना भी पढ़ ले, आखिरकार तो तुझे झाड़ू की लगानी है। पर विनोद ने किसी की नहीं सुनी। देखते-देखते वे इंजीनियर बने और फिर नौकरियों को तिलांजलि देकर फ़िल्म निर्माण में आए।
एक अख़बार में उन्होंने पढ़ा कि उनके ही शहर सोलापुर में एक लड़का है जो अपने बचपन से पोस्टमार्टम कर रहा है। असल में वह लड़का वहां अपने पिता के साथ जाता था जो कि पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टर के सहायक थे। वहां वह भी काम सीख गया। आगे चल कर खुद पोस्टमार्टम करने लगा और आज भी करता है। विनोद उस लड़के से मिले और उन्होंने उस पर एक शॉर्ट फ़िल्म ‘पोस्टमार्टम’ बनाई। उसी का बड़ा और परिष्कृत रूप ‘कस्तूरी’ है जिसमें दुर्गन्ध की कहानी भी आ जुड़ी है। दिलचस्प बात यह है कि ‘कस्तूरी’ की निर्माता आठ महिलाएं हैं। असल में ‘पोस्टमार्टम’ देख कर ये महिलाएं इतनी प्रभावित हुईं कि उन्हें लगा कि इसकी तो पूरी लंबाई वाली फ़िल्म बननी चाहिए। इन महिलाओं में कोई अफ़सर है, कोई प्रोफ़ेसर, कोई डॉक्टर है तो कोई बिजनेस में है। सब अलग-अलग क्षेत्रों से हैं। विनोद कांबले की मदद के लिए सबसे पहले इन महिलाओं ने इन्साइट फ़िल्म्स नाम की अपनी प्रोडक्शन कंपनी बनाई। फिर लगभग दो करोड़ रुपए जुटाए जो कि इस फ़िल्म का बजट था। तब ‘कस्तूरी’ बननी संभव हुई। सेल्फ़ डिस्कवरी यानी आत्म-अन्वेषण की इस फ़िल्म को हिंदी मिश्रित मराठी में बनाया गया है।
‘कस्तूरी’ को बने साढ़े चार साल से भी ज़्यादा समय बीत गया। तीन साल पहले इसे सर्वश्रेष्ठ बाल फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। मगर यह रिलीज़ अब आकर हुई है। इसी 8 दिसंबर को। इतनी देर से कि गोपीनाथ और आदिम की भूमिकाएं करने वाले दोनों लड़के समर्थ सोनवाणे और श्रवण उपलकर, जिन्हें लगभग पांच सौ लड़कों का ऑडीशन लेकर छांटा गया था, वे अब अठारह साल से ऊपर के हो चुके हैं। जब फ़िल्म की शूटिंग हुई थी, तब वे तेरह बरस के थे। छोटी फ़िल्मों को रिलीज़ होने में आने वाली दिक्कतों का यह हाल है।
वैसे भी, हमारे सिनेमा ने जिस तरह के दर्शक तैयार किए हैं, दर्शकों को जैसा संस्कार दिया है, उसके सामने ऐसे परिवेश और ऐसी कहानी पर कौन फ़िल्म बनाना चाहेगा? बना भी ले तो वह रिलीज़ कैसे होगी? मगर धर्मशाला फ़ेस्टिवल में टकराए एक सज्जन ने विनोद कांबले की मुलाकात किसी तरह फ़िल्मकार अनुराग कश्यप से करवा दी। अनुराग इसे प्रेजेंट करने को तैयार हो गए। फिर विनोद मराठी की ‘सैराट’ और हिंदी की अमिताभ बच्चन वाली ‘झुंड’ बनाने वाले नागराज मंजुले से मिले। आख़िरकार अनुराग कश्यप और मंजुले के नाम ‘कस्तूरी’ से जुड़े, तब जाकर यह थिएटर की शक्ल देख पाई।
इससे पहले, विनोद कांबले तमाम कोशिशें करके हार गए, पर वे इसे किसी ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म पर भी रिलीज़ नहीं करा पाए। विनोद जहां भी जाते, लोग उनसे कहते कि इसमें तो कोई स्टार नहीं है। गाने भी नहीं हैं। कोई भी कमर्शियल आकर्षण नहीं है। फिर हम इसे कैसे रिलीज़ करें। विनोद उन्हें बताते कि इसे नेशनल अवॉर्ड मिला है और दुनिया के कई फ़ेस्टिवलों में इसे सराहना मिली है। मगर उन लोगों के लिए इन बातों का कोई मोल नहीं था। यानी अगर किसी को लगता है कि छोटी फ़िल्में ओटीटी पर आसानी से रिलीज़ हो सकती हैं तो उसे अपने इस भ्रम से बाहर निकल आना चाहिए।
अपनी रिलीज़ के पहले हफ्ते में, यानी पूरे सात दिन में, ‘कस्तूरी’ केवल सत्रह लाख रुपए कमा सकी है। आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि यह कितने थिएटरों में लगी होगी। और वह भी इतनी मशक्कत के बाद। हमारे सिनेमा की जो व्यवस्था है या उसका जो इन्फ़्रास्ट्रक्चर है, उसके रवैये अथवा मनमानी के सामने छोटी फिल्मों को हमेशा इसी दुर्गति का सामना करना पड़ता है। क्या यह स्थिति किसी दुर्गन्ध से कम है? कितने लोगों को इसकी चिंता है? इसके लिए कस्तूरी कौन लाएगा?