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जब तक ईवीम है तब तक मोदी हैं!

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महाराष्ट्र में भाजपा की अविश्वसनीय स्ट्राइक रेट। और ईवीएम पर सवाल तेज हुआ तो सुप्रीम कोर्ट का जजमेंट सवाल की शक्ल में आ जाता है कि जीतने पर चुप हार गए तो ईवीएम पर सवालनरेटिव सेट कर दिया। …

ऐसे कहा जा रहा है जैसे विपक्ष कोर्ट में गया हो। यह एक पुरानी टेक्टिस है… किसी आदमी से इस तरह की पीआईएल दाखिल करवा दो। और उसके बाद कहो कि सुप्रीम कोर्ट ने विपक्ष को करारा जवाब दिया। जो बात बीजेपी और मोदी सरकार कहती है वही चुनाव आयोग कहता है, फिर  वही बात सुप्रीम कोर्ट से आती है …

शकील अख्तर

विपक्ष का मुख्य मुद्दा नरेंद्र मोदी को हटाना है। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने सभी संस्थाओं  पर ऐसा कब्जा कर लिया है कि सिवाए विपक्ष के कोई आवाज बची ही नहीं है। और विपक्ष जिसमें कांग्रेस बड़ी पार्टी है उसके सबसे बड़े नेता राहुल गांधी का यह कहना सही है कि हमारा माइक ही बंद कर दिया जाता है। मगर उससे ज्यादा यह कहना बहुत महत्वपूर्ण, दमदार और उत्साहवर्धक है कि माइक बंद कर दो मगर मैं खड़ा रहूंगा। नेता प्रतिपक्ष कहते हैं कि मुझसे कहा जाता है कि माइक बंद हो गया तो बैठ जाओ। मगर मैं बैठूंगा नहीं। खड़ा रहूंगा।

तो एक आवाज जो विपक्ष की बची है उसे भी बंद करने की कोशिश है। लेकिन यही एक काम सबसे मुश्किल है। विपक्ष के तमाम नेता एक मजबूत ताकत के रूप में खड़े हुए हैं। राहुल ने यही कहा बैठेंगे नहीं। खड़े रहेंगे। लड़ते रहेंगे। और जाहिर है तब तक जब तक कि लोकतंत्र अपनी मूल भावना के अनुरूप वापस नहीं आ जाता।

और जैसा कि हमारा पहला वाक्य स्पष्ट है कि ऐसा प्रधानमंत्री मोदी को हटाए बिना नहीं हो सकता। सबसे बड़ा इंस्टिट्यूशन तो न्यायपालिका था। लेकिन अभी रिटायर हुए और नई पोस्टिंग की राह देख रहे चीफ जस्टिस चन्द्रचुड़ ने क्या कहा? हम विपक्ष नहीं! क्या मतलब है इसका? इसका मतलब ऐसे समझिए जैसे सरकार कहे कि हमने कोई जनता का ठेका नहीं ले रखा है। अभी नहीं कहा। मगर यही हालत रही तो जल्दी ही डायरेक्ट यह कह दिया जाएगा कि क्या तुम्हारी गरीबी, बेरोजगारी हमारी जिम्मेदारी है? बस यह कहने के लिए चुनाव में जाने की मजबूरी ना हो।

हालांकि सब कुछ सेट है। मगर फिर भी चुनाव में जाना पड़ता है। इसलिए जनता पर अप्रत्यक्ष रूप से सब कुछ डाला जाता है। उसके अधिकारो की बात न करके केवल कर्तव्य याद दिलाए जाते हैं। मगर डायरेक्ट अभी यह कहने की स्थिति नहीं है कि आप कौन?

इसलिए वह स्थिति आए उससे पहले देश में वापस लोकतंत्र को चाहने वालों को मोदी को हटाना पड़ेगा। और मोदी को हटाने के लिए ईवीएम को हटाना पड़ेगा। इसलिए कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने संविधान दिवस पर बहुत महत्वपूर्ण बात कही है। वोट ईवीएम से नहीं। अगर कांग्रेस यह आन्दोलन सारे विपक्षी दलों को विश्वास में लेकर सही तैयारी से करती है तो समझ लीजिए की ईवीएम हटते ही मोदी भी हट गए। कांग्रेसी भी, दूसरे भी मोदी सरकार की जान बताते हैं कि इस तोते में है। मगर सही यह है कि जान ईवीएम में है।

कैसे? इसका एक उदाहरण बताते हैं। महाराष्ट्र के अविश्वसनीय स्ट्राइक रेट। भाजपा के 90 प्रतिशत के बाद ईवीएम पर सवाल तेज हो गए। और सवाल होते ही सुप्रीम कोर्ट का जजमेंट सवाल की शक्ल में आ जाता है कि जीतने पर चुप हार गए तो ईवीएम पर सवाल?  नरेटिव सेट कर दिया। मीडिया इसी पर लगा हुआ है। और गोदी मीडिया के बाद दूसरा बड़ा प्रचार उपकरण व्ह्ट्स एप भी। विपक्ष के हारने का बहाना ईवीएम!

ऐसे कहा जा रहा है जैसे विपक्ष कोर्ट में गया हो। यह एक पुरानी टेक्टिस है जिसे विपक्ष उजागर नहीं कर पाता कि कोई भी गंभीर मामला होने पर किसी भी गैर गंभीर या अपने किसी आदमी से इस तरह की पीआईएल दाखिल करवा दो। और उसके बाद कहो कि सुप्रीम कोर्ट ने विपक्ष को करारा जवाब दिया। जो बात चुनाव आयोग कहता है, बीजेपी और मोदी सरकार कहती है वही बात जब सुप्रीम कोर्ट से आती है तो जनता फिर सोचने लगती है कि मैंने ही बेरोजगारी, मंहगाई के खिलाफ वोट दिया था दूसरों ने नहीं। अब मेरे अकेले वोट से क्या होता है?  मोदी जी यही चाहते हैं। उनके विरोध की आवाज निराश हो जाए।

अब जरा यह देखना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट में क्या हुआ? सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ता को पूरा मौका दिया गया कि वह अपनी बात कहे। और उसने बताया कि वह तीन लाख अनाथ बच्चों को बचा चुका है। 40 लाख विधावाओं की उसने मदद की है। 155 देशों की यात्राएं। 180 पूर्व आईएएस, आईपीएस, न्यायधीश उसकी याचिका के साथ है। और 18 राजनीतिक दल भी।

कोर्ट में वह खुद ही अपनी पैरवी कर रहा था। और माननीय न्यायधीश उससे और सवाल पूछ पूछकर उसे खूब आत्म प्रचार का मौका दे रहे थे। याचिकाकर्ता था डाक्टर ए के पाल और सुप्रीम कोर्ट की बैंच थी न्यायधीश विक्रम नाथ और पीवी वराले की। क्या मतलब था पाल की बातों का? मगर फैसला आ गया। माहौल बन गया। और यह कोई एक अकेला मामला नहीं है। ऐसे ही कई बड़े मुद्दों पर जानबुझकर अपने लोगों से याचिका दाखिल करवाकर उस मुद्दे को कमजोर कर दिया जाता है। और मनचाहा नरेटिव (कहानियां) बना लिया जाता है। कांग्रेस को और विपक्ष को यह भी

ध्यान रखना चाहिए और तत्काल बात स्पष्ट करना चाहिए।

साथ ही यह समझना चाहिए कि ईवीएम पर यह याचिका क्यों दाखिल की गई। इसीलिए कि उन्हें मालूम है कि ईवीएम ही एक ऐसा मुद्दा है जो अगर ठीक वही जनादेश देने लगे जो मतदाता ने उसमें फीड किया है तो फिर उनका इस तरह चुनाव जीतना मुश्किल है।

जैसा कि हमने उपर कहा कि हर संस्थान पर कब्जा कर लिया है। और चुनाव आयोग जैसे इन्स्टिट्यूशन तो बिल्कुल सरकार की भाषा बोलने लगे हैं। विपक्ष को गैर जिम्मेदार और आदतन हमला करने वाला तक बता दिया। इसलिए अब पूरी चुनाव प्रणाली ही शक के घेरे में आ गई है। वोटर लिस्ट में नाम काटने और जाली नाम चढ़ाने के आरोपों के बाद यह गंभीर आरोप भी है कि मतदाता सूची फाइनल होने से पहले उसका एक्सेस ( पहुंच) भाजपा के पास होता है। वह अपनी मर्जी से नाम काटती और जोड़ती है। अभी कांग्रेस ने महाराष्ट्र के मामले में यह आरोप लगाया।

तो मतदाता सूची से लेकर नतीजों की घोषणा रोक लेने तक हर जगह धांधली के आरोप हैं। मगर उल्टा चुनाव आयोग विपक्ष को चेतावनी देती है कि भविष्य में ऐसे आरोप नहीं लगाएं। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस ने ईवीएम को मैनेज कर लेने की बात पहले नहीं समझी थी। 2018 में जब राहुल खुद कांग्रेस अध्यक्ष थे पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन दिल्ली के इन्दिरा गांधी ओपन स्टेडियम में हुआ था। वहां बाकायदा ईवीएम के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया गया। मगर उस पर कोई अमल नहीं किया गया।

अब 29 नवम्बर शुक्रवार को कांग्रेस की सर्वोच्च नीति निर्धारण इकाई सीअब्ल्यूसी की मीटिंग हो रही है। उसमें आन्दोलन पर विचार होगा। कांग्रेसियों को इससे बहुत उम्मीद है। पिछले कुछ समय से कांग्रेस जिस तरह सड़क पर संघर्ष कर रही है उसने मोदी को हिलाया तो है। लोग कहते हैं कांग्रेस सड़क पर क्यों नहीं आती। यह भी एक नरेटिव ( झूठी धारणा ) है। राहुल ने दो यात्राएं कीं। पहली तो चार हजार किलोमीटर पैदल। कन्याकुमारी से कश्मीर तक। दूसरी साढ़े छह हजार किलोमीटर से उपर। यह सब कहां कीं? सड़क पर नहीं थीं? हवा में उड़ते हुए जा रहे थे? बोल देते हैं चाहे जो! कांग्रेस को सड़क पर उतरना चाहिए। राहुल से ज्यादा देश में किसी ने

यात्राएं नहीं की। दस हजार किलो मीटर से उपर। इन यात्राओं ने माहौल बदला। ईवीएम के बावजूद मोदी लोकसभा में बहुमत नहीं पा पाए। चन्द्रबाबू नायडू, नीतीश कुमार के सहारे सरकार बनाना पड़ी। लेकिन यह भी कहना पड़ेगा कि हरियाणा की अप्रत्याशित हार ने राहुल की बनाई सारी बढ़त को खत्म कर दिया। हरियाणा की निम्नतम स्तर पर की गई गुटबाजी कांग्रेस को बहुत महंगी पड़ी। कांग्रेस को ईवीएम के खिलाफ तो आंदोलन करना चाहिए। वह एक बड़ा कारण है। मगर उसका बहाना बनाकर गुटबाज नेता मुझे मुख्यमंत्री बना दो, मुझे भी बना दो के अपने स्वार्थी और पार्टी विरोधी आचरण से मुक्त नहीं हो सकते।

लड़ाई बहुकोणीय है। ईवीएम के साथ अपने अंदर के उन सारे क्षत्रपों को बाहर फेंकने की जिन्हें अपने निज स्वार्थ के आगे कुछ नहीं दिखता है। कांग्रेस को कम से कम दो राज्यों में जहां सबसे ज्यादा गुटबाजी रही और हार का प्रमुख कारण भी राजस्थान और हरियाणा वहां तो कड़ाई करना ही पड़ेगी। तभी ईवीएम के खिलाफ उसकी लड़ाई की विश्वसनीयता बढ़ेगी।

By शकील अख़्तर

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स के पूर्व राजनीतिक संपादक और ब्यूरो चीफ। कोई 45 वर्षों का पत्रकारिता अनुभव। सन् 1990 से 2000 के कश्मीर के मुश्किल भरे दस वर्षों में कश्मीर के रहते हुए घाटी को कवर किया।

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