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क्या पार्टियां देवमंदिर और नेता देवता है?

लोकसभा चुनाव

आज सुप्रीम कोर्ट में यह दावा कैसे हो रहा, कि राजनीतिक दल अन्य संस्थाओं, नागरिकों से ऊपर और वित्तीय हिसाब देने से परे हैं? इस से बड़ी जबरदस्ती और सत्ता का दुरुपयोग क्या होगा – कि जो सब से अधिक लोभ-लालसा के शिकार होने, और भयंकर गड़बड़ियाँ कर सकने की स्थिति में हो, उसी को जबावदेही से मुक्त कर दें! .. क्या राजनीतिक दल और उन के नेता कोई देवमंदिर और देवता हैं, जिन की हस्ती दूसरी संस्थाओं और मनुष्यों से ऊपर है?…क्या हम रूस वाली सोवियत व्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं, जहाँ पार्टी और राज्य एकम-एक बना दिए गये थे?

पार्टी और राज्य का घालमेल रोकें–1

अभी सुप्रीम कोर्ट में कहा गया कि राजनीतिक दलों को जहाँ-तहाँ से मिलने वाले धन, मात्रा, स्त्रोत, आदि किसी को जानने की जरूरत नहीं है। क्या राजनीतिक दल और उन के नेता कोई देवमंदिर और देवता हैं, जिन की हस्ती दूसरी संस्थाओं और मनुष्यों से ऊपर है? सामान्य  विवेक छोड़िए, संविधान में भी एक शब्द नहीं, जिस से ऐसी मनमानी का बचाव हो। यह मंसूबा उदाहरण है कि किस तरह लोकतंत्र मजे से लूटतंत्र में बदल सकता है।

संविधान ने कुछ विशिष्ट अधिकार संसद या सरकार को दिए हैं। लेकिन राजनीतिक दल कोई सरकारी संस्था नहीं, बल्कि स्वैच्छिक संगठन हैं। जिन के रहने न रहने से संविधान, कानून, और सरकार का कोई संबंध नहीं है। इसीलिए संविधान में राजनीतिक दल का उल्लेख तक न था! जबकि दल और उन की गतिविधियां तब भी मौजूद थी।

इस प्रकार, संविधान निर्माताओं ने राजनीतिक दलों को अन्य संगठनों जैसा माना था। अतः जो नियम व मर्यादाएं अन्य संस्थाओं, संगठनों के लिए हैं, वही राजनीतिक दलों के लिए भी स्वत: लागू हैं। यही संविधानिक स्थिति है। संविधान सभा की संपूर्ण चर्चा में कहीं भी राजनीतिक दलों के लिए अलग विधान, या नैतिक, कानूनी छूट, सुविधा, आदि का कोई संकेत तक नहीं है।

तब आज सुप्रीम कोर्ट में यह दावा कैसे हो रहा, कि राजनीतिक दल अन्य संस्थाओं, नागरिकों से ऊपर और वित्तीय हिसाब देने से परे हैं? इस से बड़ी जबरदस्ती और सत्ता का दुरुपयोग क्या होगा – कि जो सब से अधिक लोभ-लालसा के शिकार होने, और भयंकर गड़बड़ियाँ कर सकने की स्थिति में हो, उसी को जबावदेही से मुक्त कर दें!

फिर, जिसे कोई अनुचित काम नहीं करना, अनुचित धन नहीं ‌लेना, वह हिसाब देने से क्यों कतराएगा? (वह भी अपने ‘मालिक’ जनता को, वरना अपने को ‘जनता का सेवक’ कहना धूर्तता है)। गोपनीयता का अधिकार सरकार को है, पार्टी को नहीं। दोनों का घालमेल देश की आँखों में धूल झोंकना है।

क्या हम रूस वाली सोवियत व्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं, जहाँ पार्टी और राज्य एकम-एक बना दिए गये थे? हमारे सभी संवैधानिक अधिकारियों – सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग, आदि – को समय रहते ध्यान देना चाहिए। अन्यथा अगले चरण में किसी की खैर नहीं रहेगी! यह राजनीतिक दलों का सार्वभौमिक चरित्र है। इसे महान समाजशास्त्री राबर्ट मिचेल्स ने ‘अल्पतंत्र का लौह नियम’ कहा था। यह नियम, कि आकार बढ़ते ही दलों, संगठनों, उन के नेताओं में अनैतिक, अवांछित प्रवृत्तियाँ पैदा होकर बढ़ने‌ लगती है। उसे दल के निचले नेता भी नहीं रोक सकते। अतः दलों पर विशेष अंकुश की व्यवस्था चाहिए, न कि विशेष छूट की!

वस्तुत: अमेरिकी संविधान निर्माताओं ने यह पहले ही समझ रखा था। इसीलिए ‘सेपेरेशन ऑफ पावर्स’, तथा पदासीन की अवधि सीमा, आदि कई इंतजाम किए थे। ताकि किसी नेता या पार्टी में निरंकुशता और आजीवन गद्दी का लोभ न उपजे। पर हमारे संविधान निर्माताओं ने पद अवधि सीमा नहीं रखी। नतीजन तुरत ही ताउम्र गद्दीनशीन रहने की प्रवृत्ति पनप गई! कितनी भी भयावह गलतियाँ करके भी भारतीय नेता पद छोड़ना नहीं चाहते। अपराध-लिप्त प्रमाणित होकर भी सीधे या परोक्ष शासक बने रहते हैं। ऐसा अमेरिका यूरोप में असंभव है। यदि यहाँ संभव हुआ है, तो निराकरण इस का होना चाहिए। जबकि उलटे और उत्तरदायी-हीन हो सकने की जुगत की जा रही है!

इस प्रकार, अभी सुप्रीम कोर्ट में दी गई दलील भी मिचेल्स की प्रस्थापना पुष्ट करती है। अतः यदि किसी संगठन, नेता को अनुचित विशेषाधिकार ले लेने दिए गये, तो वे क्रमशः कोई हिसाबदारी रहने नहीं देंगे। अपनी पार्टी में भी नहीं, जो भाजपा में दिख भी रहा है। बेचारा चीफ भी नहीं जानता कि वह किस दिन बंगारू हो जाएगा!

यही सोवियत कम्युनिज्म का दारुण अनुभव है। यहाँ भी इस की झलकियाँ दिखती रही हैं। विविध उच्च पदों, महत्वपूर्ण संस्थाओं, आदि में स्तरहीन व्यक्तियों या बौनों, अनुचरों को लाना, दागियों को सार्वजनिक पद देना, आदि सभी एक ही प्रवृत्ति की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं।

यह कोई पहली विचित्र चाह भी नहीं है‌। यहाँ २०१८ ई. में पार्टियों को विदेशी चन्दों की जाँच न करने का निर्णय संसद में हो चुका। यह निर्णय कि किसी राजनीतिक दल को विदेशी स्त्रोतों से मिले धन की कोई जाँच नहीं होगी। क्यों? यह किसी ने नहीं पूछा।

अब, सी.बी.आई. को सुप्रीम कोर्ट खुद ‘तोता’ बता चुकी है। कुछ नेताओं ने ई.डी., सी.ए.जी. के भी दुरुपयोग, ह्रास का आरोप लगाया है। शिक्षा-संस्कृति संस्थाओं पर ‘संगठन’ के पार्टीबंदों का मकड़जाल पसर चुका है। यह सब देखते हुए सुप्रीम जजों का यह संदेह स्वभाविक है कि राजनीतिक दलों की अदृश्य धनदाताओं से लेन-देन ‘प्रोटेक्शन मनी’ का धंधा न बने, इस की क्या गारंटी है?

दुर्भाग्यवश, अधिकांश नेता पार्टीबंदी से आगे नहीं देखते। इसीलिए हर बात दलीय हानि-लाभ की फिक्र बनाते हैं। फलत: उतना ही बोलते हैं जिस से उन का तात्कालिक दलीय हित-अहित जुड़ा है। उन के रडार से वृहत समाजिक हित, देश, न्याय, विवेक प्रायः बाहर रह जाता है। जबकि कुछ बातों को दलीयता से ऊपर, सामाजिक, नैतिक दृष्टि से ही परखना चाहिए।

सोवियत रूसी अनुभवों से भी सीखना चाहिए, जहाँ पार्टी और राज्य का घालमेल हो जाने से अंतत: सब कुछ तबाह हुआ। वहाँ सोवियत सत्ता, सोवियत पार्टी की मनमानी देखने वाला कोई न रहा। मीडिया, अदालतें, विश्वविद्यालय, लेखक-कवि, आदि सभी पार्टी के अनुचर बनने को मजबूर हुए। ऐसी तानाशाही में जल्द ही पार्टी में भी हर स्तर पर सब से धूर्त, जड़ और निर्दयी तत्वों की बढ़त हुई। अंततः ऊपर कोई सही जानकार और विवेकशील पदधारी न बचा। फलत: अन्त में सोवियत व्यवस्था की दयनीय आत्मपराजय हुई।

अतः ध्यान दें, कि स्वतंत्र भारत में उसी सोवियत तंत्र के कई अवगुण शुरू से ही अपनाए गये। उस के दुष्परिणाम भी होते रहे। पर सोवियत शैली की ही नियमित लफ्फाजी और सत्ता बल से वह सब सदैव ढँके रखा गया। हानियाँ बढ़ती गईं। अंततः अर्थव्यवस्था में कुछ सुधार पी.वी. नरसिंहराव ने किसी तरह चुपचाप कर दिया। परन्तु राजनीतिक, दलीय, संसदीय, और शैक्षिक क्षेत्रों में सोवियत नकल वाली मनमानियाँ बदस्तूर बनी रहीं। बल्कि समय के साथ उस में वृद्धि होती गई। अभी राजनीतिक दल को सभी नैतिकता, सूचना अधिकार कानून, तथा आय-व्यय संबंधी कानूनों से मुक्त रखने की  जिद उसी की एक और सीढ़ी है।

पर, सावधान! यह सामाजिक पतन की सीढ़ी साबित हो सकती है। (चाहे यह अभी न‌ दिखे, जैसे सोवियत विघटन का संकेत भी साल भर पहले तक भी किसी को नहीं दिखा था)। हमारी राजनीतिक व्यवस्था का बढ़ता विद्रूप यूरोपीय, अमेरिकी राज्यतंत्र के व्यवहारों से तुलना करके भी समझा जा सकता है। भारत में राजनीतिक दलों और नेताओं का व्यापक दबदबा, उन्हें राजकीय संसाधनों से बेशुमार और आजीवन सुविधाएं, तथा उन्हें सामान्य नैतिकता से ऊपर मानकर चलना – यह सब पश्चिमी लोकतंत्रों में नहीं देखा जाता। न हमारे संविधान निर्माताओं ने ऐसी कोई व्यवस्था दी थी।

By शंकर शरण

हिन्दी लेखक और स्तंभकार। राजनीति शास्त्र प्रोफेसर। कई पुस्तकें प्रकाशित, जिन में कुछ महत्वपूर्ण हैं: 'भारत पर कार्ल मार्क्स और मार्क्सवादी इतिहासलेखन', 'गाँधी अहिंसा और राजनीति', 'इस्लाम और कम्युनिज्म: तीन चेतावनियाँ', और 'संघ परिवार की राजनीति: एक हिन्दू आलोचना'।

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