भोपाल। जीवन में मैं से हम हो जाने का अपना आनंद होता है और कौन दंपत्ति जीवन का यह आनंद नहीं चाहता लेकिन यह भी सच्चाई है कि मैं से हम होने की राह इतनी आसान नहीं होती। डॉ. सच्चिदानंद जोशी लिखित और अभिनीत नाटक ‘यूं ही साथ-साथ चलते’ में एक प्रौढ़ दंपत्ति के मैं से हम होने का उलझन भरा लेकिन बेहद रोचक सफर से दर्षक रुबरू होता है। प्रेमी प्रेमिका से दंपत्ति बन गये पति पत्नी यानी सच्चिदानंद जोषी और मालविका जोषी ने पति पत्नी के संबंधों के प्रेम, नोकझोंक, उलाहना और विबषता को इतनी सहजता से प्रस्तुत किया कि हर दंपत्ति को लगा होगा कि यह तो उनका ही जीवन है मुझे तो कम से कम ऐसा ही लगा। ऐसा लग रहा था कि दोनों अभिनय नही कर रहे हैं अपना जीवन ही जी रहे है। मैंने महसूस किया कि जिदंगी के एक दौर में पति पत्नी साथ-साथ जीवन जीते हुये भी महज दो प्राणी बनकर रह जाते हैं। यहां से वापस पति पत्नी के रिष्तों को जीना ही मैं से हम हो जाना है।
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सच्चिदानंद और मालविका का सार्वजनिक जीवन रंगमंच से ही शुरू होता है, रंगमंच में ही दोनों में प्यार हो जाता है और वे विवाह बंधन में बंधकर पति पत्नी बन जाते हैं। जीवन के अलग-अलग दौर, अलग-अलग जिम्मेदारियां और अलग-अलग पड़ाव के बाद भी दोनों का रंगमंच अंतराल के साथ जारी रहा है और उनकी इसी रंगयात्रा की खूबसूरत प्रस्तुति थी नाटक ’यूं ही साथ-साथ चलते’। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में हर माह आयोजित होने वाले ’श्रुति’ श्रृंखला में यह नाटक खेला गया। दरअसल ’श्रुति’ रचनाकारों की रचनाओं के पाठ का मंच रहा है। इस नाटक की प्रस्तुति भी श्रुति परंपरा का ही निर्वाह था जिसमें दोनों कलाकार नाटक की प्रतियां अपने-अपने हाथों में लेकर नाटक को पढ़ते हुए अभिनय कर रहे थे।
इस नाटक के बनने की भी अपनी कहानी है। इस नाटक के गीतों की रचना पहले हुई और इन्हीं गीत रचना के अगले चरण में नाटक लिखा गया। सच्चिदानंद और मालविका के विवाह के 31वें वर्षगांठ पर आनंदजीत ने इन दोनों की लिखी कुछ कविताओं को धुनों से सजाकर गीत तैयार किया। इन गीतों की प्रस्तुति की प्रक्रिया पर मंथन करते हुए सच्चिदानंद ने यह नाटक लिख डाला। दो पात्रीय यह नाटक वास्तव में जोषी दंपत्ति के अपने जीवन अनुभव को ही अभिव्यक्ति देता दिखता है जो इनका अपना ही नहीं बहुतों की जीवन यात्रा को प्रतिबिंबित करता है।
प्रेम के अगले दौर वैवाहिक जीवन में आने के बाद भी प्रेमिका अपने सपनों से बाहर निकलने को तैयार नहीं जबकि पारिवारिक जिम्मेदारियांे के अहसास के साथ प्रेमी सपनों और हकीकत के अंर्तद्वंद्व में है। प्रेमिका कहती है मेरे सपने बड़े नहीं, छोटे-छोटे हैं तो प्रेमी समझाता है कि हमेषा सपनों में रहना अच्छा नहीं होता। सपनों से हकीकत में आओं। हकीकत भी कम खूबसूरत नहीं होता। (यह नाटक का हूबहू संवाद नहीं है, यह उसका भाव है जिसके शब्द मेरे है क्योंकि नाटक के हूबहू संवाद मुझे याद नहीं रहा।) नाटक के संवाद याद करना तो प्रौढ़ावस्था में सच्चिदानंद और मालविका के लिये भी कहां संभव था। तब ही तो वे नाटक की पटकथा पढ़ते हुये अपना अभिनय करते हैं। यह मैं नहीं कह रहा, खुद पात्र नाटक में कहता है।
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नाटक में पीछे से प्रांपटिंग होते तो कई बार देखा है लेकिन नाटक की प्रति हाथ में लेकर उसे पढ़ते हुए कलाकारों का अभिनय पहली बार देख रहा था। यह प्रयोग राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के ’श्रुति’ कार्यक्रम की संरचना के अनुरूप भी लगता है लेकिन यह नाट्य पाठ नहीं बल्कि मुकम्मल नाटक था। नाटक की पटकथा इतनी सधी हुई और संवाद इतने रोचक और नाटकीयतापूर्ण हैं कि अभिनेताओं को अपने अभिनय में सहजता और जीवंता लाने में अतिरिक्त प्रयास नहीं करना पड़ा। इस नाटक को देखते हुए मेरी यह सोच और पुख्ता हुई कि जब कोई रंगकर्मी नाटक लिखता है तो उसका मंचन अधिक प्रभावी हो जाता है। ऐसा इसलिये कि रंगकर्मी नाटक लिखते हुए मंचन की सारी संभावनाओं को विजुआइज कर लेता है। वह दरअसल नाटक नहीं लिखता नाटक की पटकथा (स्क्रिप्ट) लिखता है।
जोषी दंपत्ति द्वारा रचित कवितायें जो संगीतबद्ध होकर गीत बन गये थे, जिन्हें आनंद जीत और दिव्यम ने बहुत खूबसूरती से तैयार भी किया और प्रस्तुत भी किया। नाटक के बीच-बीच में इन गीतों की प्रस्तुति नाटक की कथावस्तु को और प्रभावी तथा अर्थपूर्ण बना रहे थे। साथ ही दो पात्रों के बीच चल रहे संवाद को गति प्रदान करने वाले थे। गाय को गायन और संगीत का अंदाज शास्त्रीय होते हुए कष्य से गुथा हुआ है।
सच्चिदानंद और मालविका को मंच पर नाटक करते हुए अरसे बाद देखने को मिला। तीन दषक से अधिक समय बीत गया होगा, दोनों का अभिनय छोड़े लेकिन इसका जरा सा भी अहसास इस नाटक में उनके अभिनय को देखकर नहीं होता। नाटक दोनों के रग-रग में इतना समाया हुआ है कि तीन दषक के अंतराल के बाद मंच पर अभिनय करते हुए ऐसा लग रहा था कि वे पूर्णकालिक रंगकर्मी ही है में जो नियमित नाटक कर रहे हों। हालांकि मंच से परे गणेषोत्सव व दुर्गाउत्सव के दौरान पूरे दस ग्यारह दिन रोज कथा की आनलाइन नाटकीय प्रस्तुतियां दोनों कलाकार करते रहे हैं जिसमें उनका अभिनय समाया रहता है। सच्चिदानंद जोषी की रचनात्मकता मुझे अक्सर रोमांचित करती है। इंदिरा गांधी कला केन्द्र के सदस्य सचिव रहते हुए देष विदेष के प्रवासों सहित इतनी व्यस्तता के बावजूद वे फेसबुक पर लंबी-लंबी टिप्पणियां लगातार लिखते रहते हैं। कहानियां व कवितायें भी लिखते हैं। इसी घोर व्यस्तता के चलते ही उन्होंने यह नाटक भी लिख डाला और अब इसका अलग-अलग जगहों पर मंचन कर रहे हैं। मालविका लंबे समय से मंच से दूर रही हैं लेकिन उनका साहित्य सृजन निरंतर जारी है।
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यह नाटक यानी नाटक की कथावस्तु उनके और उनके जैसे अनगिनत मध्यवर्गीय दंपत्तियों की कहानी है जो पारिवारिक व अन्य जिम्मेदारियों के चलते सहज प्रेम को भूल से गये हैं या उससे दूर हो जाने के लिये विवष हैं। पति पत्नी के संबंधों के तनाव को नाटक के चुटीले संवादों के जरिये, तानों और उलाहनों के जरिये दिखाना और बिना किसी तीसरे पात्र के प्रवेष के दोनों का उससे उबरने की कोषिष करना हौसला देने वाला लगता है। नाटक के आखिरी में दोनों का उजास भरी जिंदगी में प्रवेष एक अलग तरह का सुखांत है। हमारी लोक कथाओं और त्यौहारी आख्यानों का अंत इस कामना के साथ होता है कि ”जैसे उनके दिन बहुरे वैसे सब के दिन बहुरे“ यह नाटक भी अनगिनत दंपत्तियों के लिये कुछ ऐसे ही कामना करता लगता है।