वस्तुतः युगों-युगों से लोकाराध्या लक्ष्मी मन की कामनाओं, संकल्प की सिद्धि एवं वाणी की सत्यता प्रदान करती हैं। यही कारण है कि गौ आदि पशु एवं विभिन्न प्रकार के अन्न भोग्य पदार्थों के रूप में, यश के रूप में श्री लक्ष्मी के गृह में आगमन हेतु अधिकांश भारतीय इनकी आराधना में लीन रहते हैं।…वेदों में कहीं-कहीं पृथ्वी भी लक्ष्मी के रूप में प्रयुक्त हुई है। श्रीसूक्त में लक्ष्मी को महीमाता कहकर भी संबोधित किया गया है। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में भी धरतीमाता लक्ष्मीरूपा हो गई है।
सुवर्ण के रंग वाली, सोने और चाँदी के हार पहनने वाली, अपने कर-कमलों में कमल युगल धारण करने वाली, चन्द्रमा के समान प्रसन्नकांति, समस्त सर्वांगींण कल्याण का विधान करने वाली, स्वर्णमयी देवी जगजननी लक्ष्मी की उपासना भारत में अति प्राचीन काल से प्रचलित है। लक्ष्मी की दशांग उपासना की सम्पूर्ण विधि पटल, पद्धति, शतनाम, सहस्त्रनाम आदि स्त्रोतों एवं ऋग्वेद के खिल पर्व श्रीसूक्त के सम्पूर्ण विधान, लक्ष्मी तंत्र आदि का पाठ प्रायः घर-घर में नित्यप्रति होता है। समस्त लोकों की ईश्वरी, भक्त जनों के अपराधों को क्षमा करके मुस्काराते रहने वाली, कमल दलों के समान सुन्दर नेत्र वाली विष्णुप्रिया लक्ष्मी के श्रीविग्रह की उपासना-अराधना से नैरन्तर्य माधुर्य-मंगलमयी आनन्द प्राप्ति के साथ ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रुपी पुरूषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति एवं विविध प्रकार के अभीष्टों की सिद्धि सहज ही हो जाती है।
साक्षात ब्रह्मरूपा, मंद-मंद मुसकराने वाली, सोने के आवरण से आवृत, दयार्द्र, तेजोमयी, पूर्णकामा, अपने भक्तों पर अनुग्रह करनेवाली, कमल के आसन पर विराजमान तथा पद्मवर्णा लक्ष्मी की उपासना से चन्द्रमा के समान शुभ्र कान्तिमयी, सुन्दर द्युतिशालिनी, यश से दीप्तिमती, स्वर्गलोक में देवगणों के द्वारा पूजिता, उदारशीला, पद्महस्ता लक्ष्मी की शरण प्राप्त होती है, दारिद्र्य दूर हो जाता है। हस्तिनाद को सुनकर प्रमुदित होने वाली लक्ष्मी अपने भक्तों को देवसखा कुबेर और उनके मित्र मणिभद्र तथा दक्ष प्रजापति की कन्या कीर्ति, धन और यश प्रदान करती हैं। इस राष्ट्र में उत्पन्न होने के प्रति गर्विता के साथ ही कीर्ति और ऋद्धि प्रदान करती हैं।
लक्ष दर्शनांकनयोः इस धातु से लक्ष्मी शब्द सिद्ध होता है। महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती विरचित सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुलास में कहा गया है- यो लक्षयति पश्यत्यंकते चिह्नयति चराचरं जगदथवा वेदैराप्तैर्योगिभिश्च यो लक्ष्यते स लक्ष्मीः सर्वप्रियेश्वरः। जो सब चराचर जगत् को देखता, चिह्नित अर्थात् दृश्य बनाता, जैसे शरीर के नेत्र, नासिकादि और वृक्ष के पत्र, पुष्प, फल, मूल, पृथिवी, जल के कृष्ण, रक्त, श्वेत, मृत्तिका, पाषाण, चन्द्र, सूर्यादि चिह्न बनाता तथा सब को देखता, सब शोभाओं की शोभा और जो वेदादिशास्त्र वा धार्मिक विद्वान् योगियों का लक्ष्य अर्थात् देखने योग्य है, इससे उस सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अनन्त गुण, कर्म, स्वभावानुसार अनेकों नामों में से एक नाम लक्ष्मी है।
इसी प्रकार श्री शब्द की व्युत्पति करते हुए कहा गया कि श्रिञ् सेवायाम् इस धातु से श्री शब्द सिद्ध होता है। यः श्रीयते सेव्यते सर्वेण जगता विद्वद्भिर्योगिभिश्च स श्रीरीश्वरः। जिसका सेवन सब जगत, विद्वान और योगीजन करते हैं, उस परमात्मा का नाम श्री है। संस्कृत के शब्द कोशों में लक्ष्मी शब्द के अर्थ विष्णु पत्नी, हरिप्रिया, हरिवल्लभा, श्रीसागरसुता, कमला, पद्मा, सरस्वती, धन अधिष्ठात्री देवी तथा श्रीसौभाग्य लक्ष्मी के साथ ही सम्पति, समृद्धि,सफलता, शोभा, विभूति, सिद्धि- बुद्धि, कीर्ति, सुगन्धि, सुन्दरी, शक्ति, भार्गवी, दुर्गा, लोकमाता,राजशक्ति, वीरपत्नी,मोती,हल्दी एवं औषधि आदि अनेकार्थक अर्थ मिलते हैं ।
वैदिक ग्रंथों में श्रीलक्ष्मी के प्राप्त होने वाले सन्दर्भों में कहीं भी विष्णु के साथ देवी के सम्बन्ध के स्पष्ट प्रमाण प्राप्य नहीं हैं। वेद में श्री शब्द तेजस या कान्ति के रूप में प्रयुक्त हुआ है। कृष्ण यजुर्वेद (तैतिरीय संहिता 7/5/14) में अदिति को भी लक्ष्मी कहा गया है। ऋग्वेद के परिशिष्ट खिल भाग में श्रीसूक्त में श्रीलक्ष्मी की स्तुति गायी गई है। इस स्तुति को आदि स्तुति माना जाता है। श्रीसूक्त में लक्ष्मी का नाम भी आया है। दोनों नाम विष्णु पत्नी सूचक ही हैं। उन्हें कमल के ऊपर बैठी हुई कहा गया है। शुक्ल यजुर्वेद 31/16 व कृष्ण यजुर्वेद के अनुसार भगवान् की दो ह्री (श्री) लक्ष्मी अथवा भूदिव्यलक्ष्मी पत्नियाँ दो शक्तियाँ मानी गई हैं –
ह्रीश्च (श्रीश्च) ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ ।
वेदों में कहीं-कहीं पृथ्वी भी लक्ष्मी के रूप में प्रयुक्त हुई है। श्रीसूक्त में लक्ष्मी को महीमाता कहकर भी संबोधित किया गया है। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में भी धरतीमाता लक्ष्मीरूपा हो गई है। श्रीसूक्त में लक्ष्मी को यश प्रदायिनी, अपूर्व सौन्दर्य की स्वामिनी, समृद्धि की वर्षा करने वाली, धन -धान्य से युक्त अपने भक्तों को समृद्धि प्रदान करने के साथ ही सुवर्ण, पशुधन, अन्न प्रदान कर उनके जीवन से अपनी बहन अलक्ष्मी को जो दारिद्रय, क्षुद्धा, अभाव की प्रतीक है, हटाकर दूर करने वाली कहा गया है। लक्ष्मी सूर्य सी तेजोमयी, सुवर्ण देह्कान्ति, अग्नि के समान जाज्वल्यमान, दमदमाते आभूषणों से नित्यमंडिता है। कमले कमलासना, पवित्रता की प्रतीक कमल पर स्थित हरिप्रिया ही कैलाश की पार्वती, श्रीरोद की सिन्धुकन्या है, बैकुण्ठ की महालक्ष्मी है।
कमल सृष्टि का प्रतीक है, जल से जीवन का रस ग्रहण कर व्यापक सृष्टि का प्रजननकर्ता, कर्दम से निकला फिर भी परम पवित्र। एक ओर कमल को पवित्रता का मूर्तिमान विग्रह कहा गया है तो दूसरी ओर आध्यात्मिकता का संचार करने में पूर्णतया सक्षम। उस पर विराजमान हरिप्रिया- दोनों ओर सूंड से जलवृष्टि करते हुए हस्तिद्वय। ये ऐरावत हैं, ऐश्वर्य के प्रतीक, साथ ही धन- धान्य की निरन्तर वृष्टि करने वाले। कालान्तर में मिश्र की असुर देवियों के भावना के अनुकरण में श्रीनामी देवी के अंशों को दुर्गा, काली, भवानी,भैरवी,चण्डी , अन्नपूर्णा, चामुण्डा आदि रूप में कल्पित कर लिए गए । मिश्र में भी आदिमाया मिनर्वा, जुनोब्रेनसा, हीआ, हेक्ट्री, डायना और इयर आदि देवी पूजा प्राचीन काल से चन्दन, अक्षत, धूप, मांस- रूधिर से होती रही है । जिस तरह भारत की देवी दुर्गा ने महिषासुर को मारा, जिसका मुँह भैंसे के समान था, उसी प्रकार मिश्र की देवी ईसिस मिनर्वा ने हीकस हिपोपोटेमस (दरियाई घोड़े के समान मुँह वाले) राक्षस को मारा था ।
पौराणिक मान्यताओं में लक्ष्मी को धन की देवी और विष्णु की पत्नी माना गया है, परन्तु सूर्य विष्णु का नाम था। सूर्य महर्षि कश्यप और दक्षपुत्री अदिति के कनिष्ठ पुत्र थे। इनके पुत्र मनु वैवस्वत ने आर्य जाति की स्थापना की तथा सूर्य वंश चलाया। कहा जाता है कि समुद्र-मंथन में विष्णु को लक्ष्मी प्राप्त हुई थी, परन्तु विद्वान इस कथा को आलंकारिक मानते हैं तथा कहते हैं कि वास्तव में यह वह एक स्वर्ण खान के मिलने का प्रसंग है जो देव-दैत्य, नाग तीनों ने मिलकर प्राप्त की थी। पीछे सरस्वती नदी को विद्या की देवी मान लेने की भांति धन-लक्ष्मी को धन की देवी मान लिया गया। उसे विष्णु ने प्राप्त किया था। इसलिए वह विष्णु की चरणसेविका बन गई। परन्तु श्री नाम से लक्ष्मी, पार्वती तथा दुर्गा तीनों को समावेश किया गया तथा अब तीनों को ही श्री नाम से जाना जाता है।
लक्ष्मी का एक नाम पद्मा भी है । ऋग्वेद परिशिष्ट श्रीसूक्त एवं श्रीमद भागवत पुराण 10/47/13 में लक्ष्मी को पद्मा कहा गया है। श्रीसूक्त में लक्ष्मी के लिए पद्मस्थिता, पद्मवर्णा,पद्मिनी, पद्ममालिनी.पुष्करणी, पद्मानना. मद्मोरू. मद्माक्षि, पद्मसम्भवा , सरसिजनिलया , सरोजहस्ता, पद्मविपद्मपत्रा, पद्मप्रिया, पद्मदलायताक्षी आदि का प्रयोग हुआ है। लक्ष्मी के लिए प्रयुक्त इन नामों से कमल के साथ इनके अत्यंत घनिष्ठ सम्बन्ध का पता चलता है। लक्ष्मी सुगन्धित कमल की माला धारण करती है, हाथ में कमल रखती है तथा कमल पर निवास भी करती है। इनका वर्ण पद्म से उत्पन्न पद्म का सा है। पद्म (कमल) की पंखुड़ियों की भान्ति इनकी लुभावनी बड़ी-बड़ी आँखें हैं। हाथ, चरण, अरू, आदि समस्त अवयव पद्म की भान्ति है। इनके इन्हीं गुणों के कारण इनका नाम पद्मा भी है। बाल्मिकीय रामायण, महाभारत, पुराणादि संस्कृत साहित्यों में लक्ष्मी का वर्णन विष्णु-पत्नी के रूप में अंकित करते हुए लक्ष्मी को प्रमुख स्थान प्रदान किया गया है । समुद्र से उत्पन्न होने के कारण लक्ष्मी का समुद्रकन्या नाम प्रसिद्ध हुआ ।
महर्षि वेदव्यास रचित महाभारत आदिपर्व 18/35 के अनुसार लक्ष्मी का प्राकट्य समुद्रमंथन के अवसर पर हुआ था। श्रीमद्भागवत पुराण 8/8/24 के अनुसार विष्णु भगवान में इनकी परा अनुरक्ति थी। इसलिए इन्होंने पति के रूप में वरन करते हुए उन्हें ही पद्मों की माला पहनाई थीं। श्रीमद भागवत पुराण 10/47/13 के अनुसार लक्ष्मी के अनेक रूप हैं, उनमें पद्माविष्णु की अनुरागरूपिणी (अनुरागिनीरूपा) है। पद्मा के अतिरिक्त अन्य रूपों में ये ऐश्वर्य प्रदान करती हैं, सम्पति का अम्बार लगा देती हैं और सर्वत्र शोभा का आध्यान भी करती हैं। इसमें सृष्टि के आदि में कृष्ण के नामांश से महारास के समय लक्ष्मी का प्रादुर्भाव दिखाया गया है।
स्कन्द पुराण वेवर खंड भूमि वराह खंड के अनुसार आकाश राज की अयोनिजा कन्या के रूप में अवतीर्ण हुई, तब इनका नाम पद्मावती, पद्मिनी और पद्मालय रखा गया। भगवान् जब कल्कि अवतार ग्रहण करते हैं, तब लक्ष्मी का नाम पद्मा ही होता है। मार्कंडेय पुराण में लक्ष्मी के स्वरुप का वर्णन करते हुए कहा गया है कि इनका मुखमंडल चन्द्रमा के सदृश है । ये कमललोचना एवं पीनपयोधरा हैं। इनका शरीर सुगन्धित है। ये मृदुभाषिणी एवं समस्त स्त्रियोचित गुणों से विभूषित हैं। भक्तमाल में लक्ष्मी को कमला तथा विष्णु की शक्ति के रूप में निरूपित किया गया है। वायुपुराण 9/79/98 में लक्ष्मी की उत्पति का वर्णन करते हुए कहा गया है- हिरण्यगर्भ से पुरूष तथा प्रकृति की उत्पति हुई । पुरूष ग्यारह भागों में विभक्त हुआ। प्रकृति के दो भाग – प्रज्ञा या सरस्वती तथा श्रीलक्ष्मी हुए। वे दोनों अंश अनेक रूपों में संसार में व्याप्त हुए। विष्णु पुराण 1,8/29 में कहा गया है कि विष्णु भगवान् विश्व के आधार हैं और लक्ष्मी जी उनकी शक्ति हैं – अवष्टम्भो गदापाणिः शक्तिर्लक्ष्मीर्द्विजोत्तम् ।।
लक्ष्मी आख्यानों के लिए सर्वप्रचलित श्रीमद्भागवत पुराण में लक्ष्मी को धन की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रतिष्ठा मिली। इसके साथ ही धन की देवी के रूप में लक्ष्मी की पूजा आरम्भ हुई। लक्ष्मी जो सागर मंथन में चौदह रत्नों के साथ प्राप्त हुई थी, भागवत पुराण 8/8/23 के अनुसार जिनको श्रीविष्णु ने उसे स्वयं वरण किया था, शताब्दियों के पश्चात उनका पौराणिक दिव्य रूप प्रतिष्ठित हुआ है। लोकमान्यता के अनुसार लक्ष्मी स्वर्णवर्णा हैं और अत्यंत सुन्दरी, नित नवीना सदा युवती रहने वाली चार भुजाओं वाली देवी है तथा जो जल में लाल कमल पर विराजमान है, जिन पर द्विगज स्वर्ण कलश से निरन्तर जलार्पण करते रहते हैं। इन्हीं देवी का दीपावली की सघन रात्रि में दीपों के प्रकाश के साथ पूजा-अर्चना का विधान है। ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में भी इनकी पूजा-अर्चना का वृहत वर्णन अंकित है।
इसमें लक्ष्मी सर्वऐश्वर्य और सर्वसम्पत्ति देने वाली है। लक्ष्मी देवी गौरवर्णा, रत्नजटिता, अलंकार विभूषितापीत वस्त्र धारण किये हुए नवयौवना है। नारायण, विष्णु एवं शिव के साथ ही स्वयंभू मनु, ऋषियों एवं गन्धर्वों द्वारा भी ये पूजित हुईं। श्रीमद्भागवत पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, नारद,मार्कंडेय आदि विविध पुराणादि ग्रन्थों में लक्ष्मी के स्वरुप व उनकी अभ्यर्थनाओं, प्रार्थनाओं से सम्बंधित साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। वस्तुतः युगों-युगों से लोकाराध्या लक्ष्मी मन की कामनाओं, संकल्प की सिद्धि एवं वाणी की सत्यता प्रदान करती हैं। यही कारण है कि गौ आदि पशु एवं विभिन्न प्रकार के अन्न भोग्य पदार्थों के रूप में, यश के रूप में श्री लक्ष्मी के गृह में आगमन हेतु अधिकांश भारतीय इनकी आराधना में लीन रहते हैं।