भोपाल। शास्त्रीय तौर पर पर तो लोकतंत्र में विधायी संस्था शासन के निकाय पर नियंत्रण रखती है, और इन दोनों के अतिरेक को स्पष्ट करने के लिए ’न्यायपालिका होती है। सुनने में तो यह बहुत अच्छा लगा, लेकिन सभी लोकतंत्र राष्ट्रों में होता इसका उल्टा ही है। प्रजातन्त्र की अवधारणा यूं तो बहुत सत्य लगती हैं, परंतु वास्तविकता के धरातल पर होता उल्टा ही हैं ! यंहा हम यूरोप के अनेक देशों और संयुक्त राज्य अमेरिका के कुछ उदाहरण लेते हैं। अमेरिका में नेता और जनता का यह संवाद बहुत माकूल हैं। जनता के अधिकारों की रक्षा का वादा करने वाले एक राजनेता से वॉटर कहता है यदि आप नेता है तब आप अवश्य ही करोड़पति होंगे, तब आप जनसाधारण की तकलीफों को दूर नहीं करेंगे वरन आप पूंजी के निकायों की रक्षा करेंगे। क्यूंकि ऐसा करके ही आप करोड़पति बने रहेंगे। यह स्थिति लगभग सभी देशों के लोकतंत्र में लागू होती है। संसद या जनप्रतिनिधि के चुनाव के लिए बहुत अधिक धन की जरूरत होती हैं।
वह राशि उद्योगपतियों से आता हैं, जिन्हे जनता की नहीं वर्ण अपने उद्योग -व्यापार के लाभ की चिंता होती हैं। राष्ट्रपति बराक ओबामा के समय अमेरिकी जनों के स्वास्थ्य के लिए बीमारी के बीमा की योजना चलाई गई, जिससे दवा कंपनियों और इंश्योरेंस कंपनियों के लाभ का अंश घाट दिया गया। फलस्वरूप नया केवल उद्योग और -व्यापार संगठनों ने इस योजना का विरोध किया बल्कि इसे अनुचित बताया। खैर ओबामा ने इस संगठित कोशिस को नाकाम किया। वणः की अदालतों में इस जनहितकारी योजनया को नाकाम चुनौती दी।
अमेरिका में उच्च शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाये बहुत मंहगी है। प्राथमिक स्तर पर तो वे सर्व सुलभ है परंतु उनकी गुणवत्ता ठीक नहीं। छोटे छोटे मामलों मे वनहा की अदालत ने नागरिकों के पक्ष को सुरक्षित रखा, परंतु निर्णायक मुद्दों पर अदालत और उसके जजों की निष्पक्षता संदिग्ध रही हैं। जैसा कि भारत के सुप्रीम कोर्ट ने भी अनेक अवसरों पर जनता से अधिक सरकार या सत्ता का साथ दिया हैं। उदाहारण के लिए जब ट्रम्प डेमोक्रेटिक उम्मीदवार जो बाइडेन से चुनाव हार गए तब उन्होंने अपने समर्थकों को काँग्रेस भवन पर हमला के लिए उकसाने वाला भाषण दिया ! फलस्वरूप हजारों ट्रम्प समर्थक ने हमला कर के उप राष्ट्रपति माईक पेन्स को चुनाव परिणाम की घोसन करने से रोकने की कोशिश की।
इस घटना को दुनिया ने टीवी पर देखा। अब यह पराजित उम्मीदवार की खीज थी जो न केवल अनैतिक थी वर्ण आपराधिक भी थी। क्यूंकि ट्रम्प की इस हरकत से अमेरिका का लोकतंत्र कलंकित हुआ। खैर सेनेट और प्रतिनिधि सभा ने इस घटना की जांच के लिए विसहेस अधिकारी नियुक्त किया। जिसने ट्रम्प और उनके सहयोगियों को संसद पर हमले का दोषी माना। परंतु जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट पँहुचा तब ट्रम्प के शासनकाल में नामित पाँच जजों ने, इसे राष्ट्रपति का विशेषाधिकार माना। नौ सदस्यीय अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में हकीकत हार गई और उपकरत जजों ने ट्रम्प को निर्दोष सा बात दिया।
कुछ ऐसा ही नरेंद्र मोदी काल में सुप्रीम कोर्ट में नामित जजों ने अयोध्या की बाबरी मस्जिद को गिराए जाने की घटना के दोषियों को न केवल मुक्त कर दिया बल्कि संसद के कानून होने के बावजूद, जिसमें साफ – साफ लिखा है कि आजादी के समय जिस उपासना स्थल का जो स्वरूप था -उसे बरकरार रखा जाएगा। जस्टिस गोगोई, चंद्रचूड़ आदि नौ जजों ने कानून को दरकिनार करते हुए भावनाओं सरकार और सत्ता संगठन के तंत्र को खुश करने के लिया एक कानूनी फैसला देश को दिया पर न्याय नहीं किया। बाद में देश के प्रधान न्यायाधीश बने चंद्रचूड़ जी ने देश की सामाजिक और धार्मिक समरसता को खतम करने वाला एक और फैसला दिया जिसमे उन्होंने कहा की उपासना स्थलों के स्वरूप को नहीं बसला जा सकता – परंतु उसकी वास्तविकता जानने के लिए पुरातत्व मंत्रालय जांच कर सकेगा !
अब इसी अदालती हरकत का परिणाम है की -इस जबानी वक्तव्य को कानून और फैसला मानकर संभाल – बंदयू और अजमेर के ख्वाजा की दरगाह की जांच के मुकदमे जिला अदालतों मे लग गये। और हिन्दू हिन्दू के नारे लगने लगे। तार्किक रूप से देखे जब हमारी जांच स्थल के स्वरूप और मालिकाना हक को बदल नहीं सकती तब इस अकादमिक कवायद का उद्देश्य क्या है ? अब इसी संदर्भ मे अगर कोई पांडवों के पिता और जनक के बारे में पुच ले तब क्या सुप्रीम कोर्ट इस तथ्य की भी जांच का आदेश देगी। महभारत में दिए गए तथ्यों के अनुसार ही सूर्य देव से कुंती को कर्ण पुत्र रूप मे प्राप्त हुए। फिर धरमराज से युधिस्थर और देवराज इन्द्र से अर्जुन वायु देवता से महाबली भीम और अश्वनी कुमारो से नकुल और सहदेव प्राप्त हुए। परंतु पांडव पुत्रों के पिता के रूप में महराज पांडु का ही नाम लिया जाता है। अब इस प्रकार विगत मे तत्कालीन समय में पूर्वजों द्वारा अनेक ऐसे कर्म और करत्या हुए जिन्हे ना तब मान्यता थी और ना ही आज है। ऐसे तथ्यों की अनदेखी करना ही शुभ होता।