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सच्चे संघवाद की समझ कब होगी?

नासमझी ऐसी कि दुनिया के सामने वसुधैव कुटुंबकम्या सर्वे भवन्तु सुखिन:की डींग हाँकने वाले विभिन्न राज्यों, बल्कि एक राज्य, समुदाय और दल में भी ईर्ष्या-द्वेष, अविश्वास को हवा देते हैं। मानो, अपने समुदाय या दल के भी सब को अपना नहीं मानते। तब संघ-राज्य संबंध पर हल्केपन का क्या कहना!….कैसी विडम्बना कि अंग्रेजों ने भारतीय समाज को अधिक समझा था! उन्होंने यहाँ विशिष्ट क्षेत्रों, शासकों, समूहों को बिलकुल स्वायत्त रहने दिया था। जबकि वे असंख्य रियासतें मजे से खत्म कर सकते थे।

कल्पना कीजिए कि फिल्म निर्माण, और खेलकूद को केंद्रीय विषय बनाकर उसे राजकीय एकाधिकार में ले लिया जाए। तब बाबू लोग फिल्म बनाने की, और टूर्नामेंट के हर प्रस्ताव पर निर्णय लेंगे। मंत्री लोग अपने क्षेत्र के ‘विकास’, यानी मतदाताओं को लुभाने की दृष्टि से फिल्म पास करेंगे। उस में आरक्षण प्रावधान करेंगे। फिल्मों की शूटिंग, और क्रिकेट मैच अपने राज्य में कराने का हुक्म देकर उदघाटन करते हुए भाषण देंगे।

यह कोई असंभव कल्पना नहीं। वस्तुत: कई विषयों में कुछ वैसा ही हास्यास्पद दृश्य है। शिक्षा और संस्कृति में राजकीय अधिकार और बढ़ते केंद्रीकरण का ही नजारा समय-समय पर लज्जाजनक समाचारों में दिखता है। हर चीज के केंद्रीयकरण से गुणवत्ता चौपट होती है। कोई भी केंद्रीय व्यक्ति या समिति विशाल मात्रा में विविध प्रकार के नियमित कागजों, आवेदनों, इंतजामों, समस्याओं, शिकायतों, सुझावों, आदि को स्वयं देख ही नहीं सकती जो देश भर से आती रहती हैं। फिर, नेतागण अपने निजी/दलीय गोरखधंधे में अधिक उलझे रहते हैं। खुद शायद ही कभी उन मामलों पर माथा लगाते हैं जो उन की विभागीय जिम्मेदारी है। कई बार तो वे इस के योग्य भी नहीं होते। सो अंततः वह सब केंद्रीय संस्थानों के मामूली कर्मचारी देखते हैं! जो अपनी स्थिति से ही सीमित समझ रखते हैं।

इस प्रकार, असंख्य विषयों में विकेंद्रित रहने से जो कार्य स्थानीय और अनुभवी लोग या संस्थान अधिक अच्छे से करते, वह केंद्रीय स्तर से होने पर प्रायः जैसे-तैसे और खानापूरी होकर रह जाते हैं। ऊपर से, यदि कदाचार हुआ तो इकट्ठा पूरे देश के लाखों-लाख लोगों के हित, समय, परिश्रम और संसाधन स्वाहा हो जाते हैं। यह सब अंधाधुंध केंद्रीकरण का भी परिणाम है। विशेषकर शिक्षा क्षेत्र में। यह हमारे देश में कम्युनिस्ट व्यवस्था की नकल के दुष्परिणामों में एक है।

यूरोप और अमेरिका में ऐसा केंद्रीकरण कोई सोच भी नहीं सकता! पर हमारे नेता ऐसी ही मूर्खताओं में आकंठ डूबे रहते हैं। वे धर्म-संस्कृति, शिक्षा, और उन्नति, एकता की बातें भी दलीय रंग में करते हैं! अपने दल, संगठन, और अपनी शेखी बघारने वालों को इतनी समझ भी नहीं कि ये विषय दलीय सीमाओं से ऊपर हैं!

संविधान और संघ-क्षेत्र संबंध भी ऐसे ही विषय हैं। जिन पर दलगत रौब झाड़ना ही नासमझी का प्रदर्शन है। स्वतंत्रता के ७७ वर्ष बाद भी हमारे नेताओं ने संघ और क्षेत्र के स्वस्थ, सौहार्दपूर्ण संबंध बनाने पर कोई राष्ट्रीय सहमति बनाने की चिन्ता तक नहीं रखी। विगत चुनाव में द्वेषपूर्ण बयानबाजियाँ ने तो उल्टा दिखाया। नेतागण क्षेत्रीय विद्वेष या अहंकार उभार कर अपना स्वार्थ साधने को तत्पर थे। एक राष्ट्रीय नेता ने ‘पुरी के जगन्नाथ मंदिर की चाबी दक्षिण चली गई’ कहकर पूरे दक्षिण भारत के विरुद्ध हवाबाजी की। नेतागण एक ही विषय पर अलग-अलग शहरों में अंतर्विरोधी बातें कहते हैं। एक पद पर जिसे पवित्र सिद्धांत बताते हैं, दूसरे पद पर जाते ही उसे तुरत रौंद देते हैं। एक जगह जिस नीति की निन्दा करते हैं, दूसरी जगह पहुँच कर उसी को दूने उत्साह से लागू करते हैं। यह सब देश-हित की प्राथमिक समझ का भी अभाव दिखाता है।

नासमझी ऐसी कि दुनिया के सामने ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ या ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ की डींग हाँकने वाले विभिन्न राज्यों, बल्कि एक राज्य, समुदाय और दल में भी ईर्ष्या-द्वेष, अविश्वास को हवा देते हैं। मानो, अपने समुदाय या दल के भी सब को अपना नहीं मानते। तब संघ-राज्य संबंध पर हल्केपन का क्या कहना! जब किसी राष्ट्रीय दल‌ की ताकत बढ़ जाती है, तो केंद्रीकरण बढ़ने लगता है। जब केंद्र में किसी को बहुमत न मिले तो कई नीतियों में टाल-मटोल, अस्पष्टता दिखती है। यह सब संघ-राज्य संबंध पर गंभीरता का अभाव ही है।

कैसी विडम्बना कि अंग्रेजों ने भारतीय समाज को अधिक समझा था! उन्होंने यहाँ विशिष्ट क्षेत्रों, शासकों, समूहों को बिलकुल स्वायत्त रहने दिया था। जबकि वे असंख्य रियासतें मजे से खत्म कर सकते थे। किन्तु मैसूर से राजपुताना, और कश्मीर से त्रावणकोर तक सैकड़ों क्षेत्रों पर अंग्रेजों ने केवल औपचारिक अधिकार रखा। वास्तविक सत्ता देसी राजाओं के पास रही। भारत में ब्रिटिश राज लंबे समय तक सफलता से चलने का यह भी कारण था। सैकड़ों भारतीय राजे अंग्रेजों के प्रति सहज या मैत्री भाव रखते थे। उन के राज्यों में अंग्रेज दखल नहीं देते थे। केवल संपूर्ण भारत पर अपनी संप्रभुता, और बाह्य खतरों से इस की रक्षा पर उन का ध्यान केंद्रित था। इस से ब्रिटिश राज अधिक सबल, समृद्ध और दीर्घ बना। ब्रिटेन की साम्राज्ञी और कोई सम्राट बिना कभी भारत आए भी सौ साल तक यहाँ के सर्वोच्च शासक बने रहे। यह प्राचीन भारत के चक्रवर्ती सम्राट वाली भावना का ही व्यवहारिक रूप था!

जबकि स्वतंत्र भारत के देसी नेता ही उस के प्रति नितांत नासमझ रहे हैं। हर विषय का केंद्रीकरण करते जाना, परन्तु पूरी उत्तरदायित्वहीनता। कभी केंद्र अत्यधिक हस्तक्षेपकारी, तो कभी एकदम ढुलमुल। एक समय तो केंद्र में भारी बहुमत से आई सरकार मनमाने तौर पर राज्य सरकारों को बर्खास्त कर देती थी, ताकि राज्यों में भी केंद्रीय सत्ताधारी दल की सरकार बन जाए। क्षेत्रीय भावनाओं पर चोट का एक नियमित रूप केंद्रीय नेताओं द्वारा राज्यों के मुख्यमंत्री मनमाने नियुक्त करना, बदलना है। इस में राज्य के विधायकों की भी इच्छा दरकिनार कर केंद्रीय नेता अपनी थोपते हैं! इस से एक नेता द्वारा देश के हर कोने पर अपनी थोपने की जिद रहती है। यह राष्ट्र-हित या संविधान की भी कौन‌ सी समझ है?

वैसे कदम क्षेत्रीय असंतोष पैदा करते हैं। विशेषकर जब कोई राज्य और केंद्र में अंतर्विरोधी नीतियाँ अपनाए। जैसे, राज्य सभा में किसी राज्य की सीटों पर पर उसी राज्य के व्यक्ति जाएं, या किसी भी राज्य के व्यक्ति जा सकते हैं? अथवा, क्या नेताओं की कोई रिटायरमेंट आयु है? ऐसी अनेक बातों पर जब जैसा तब तैसा से स्वार्थ और मतिहीनता झलकती है।

वस्तुत: राजनीतिक केंद्रीयकरण भारतीय मिजाज और परंपरा के विपरीत है। प्राचीन महाजनपदों के समय से ही उन की अपनी-अपनी सांस्कृतिक व राजनीतिक विशेषताओं के साथ ही भारतवर्ष एक अनूठा देश बना रहा। केंद्रीय सत्ता की दुर्बलता से कई बार हानियाँ भी हुईं – पर वह मुख्यतः नई सैन्य तकनीक और बाहरी आक्रमणकारियों का चरित्र न समझ पाने की कमी थी। अन्यथा, विकेंद्रित राजनीतिक व्यवस्था से भारतीय कृषि, उद्योग, व्यापार, शिक्षा, आदि क्षेत्रों में कभी कोई अभाव नहीं हुआ था। बल्कि भारत की गौरवशाली विविधता, तथा ज्ञान व धन समृद्धि तभी बनी थी, जब सभी महाजनपद अपनी विशेषताओं के अनुरूप स्वतंत्रता से चलते रहे थे।

वस्तुत: आज भी भारत की सैन्य और‌ वैदेशिक नीति में ही केंद्र का महत्व रखना उचित है। काफी हद तक मुद्रा और विदेश-व्यापार में भी। शेष सभी विषय – भाषा, शिक्षा, धर्म-संस्कृति, कराधान, स्थानीय प्रशासन, आदि – में क्षेत्रीय रुचि और क्षमता को प्रमुखता देना ही उचित है। वही देशवासियों के बीच सहयोग, सौहार्द, और अपनी-अपनी प्रतिभाओं के उन्मुक्त विकास में भी सहायक होगा।

सो, केंद्र द्वारा कम से कम विषयों पर अधिकार रखना ही उचित और बुद्धिमत्तापूर्ण है। दक्षता, समृद्धि, और नवोन्मेष के लिए भी उपयुक्त है। देश की सच्ची एकता के लिए तो अच्छा है ही। अत: हमारे नेताओं को राजनीतिक ही नहीं, शैक्षिक, सांस्कृतिक, और व्यापारिक विषयों पर भी केंद्र और राज्यों के बीच उदार संबंध बनाने की पहल करनी चाहिए। यह दलबंदी से ऊपर उठ कर ही संभव है। यदि अंग्रेज विदेशी होकर भी वैसी सुचारू व्यवस्था बना सके थे, तो कोई कारण नहीं कि स्वदेशी नेता उस में विफल हों। यह केवल सच्ची इच्छा और सदभावना की माँग करता है। शेष सभी उपाय सरलता से मिल जाएंगे।

By शंकर शरण

हिन्दी लेखक और स्तंभकार। राजनीति शास्त्र प्रोफेसर। कई पुस्तकें प्रकाशित, जिन में कुछ महत्वपूर्ण हैं: 'भारत पर कार्ल मार्क्स और मार्क्सवादी इतिहासलेखन', 'गाँधी अहिंसा और राजनीति', 'इस्लाम और कम्युनिज्म: तीन चेतावनियाँ', और 'संघ परिवार की राजनीति: एक हिन्दू आलोचना'।

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