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क्या दिल्ली में कभी पहले वाली ‘सर्दी’ आएगी?

Delhi air disasterImage Source: ANI

Delhi air disaster: क्या दिल्ली में अब कभी वह सर्दी आएगी जो पहले आती थी? वह सर्दी जिसमें हम दिल्लीवासी साफ़ हवा में सांस लेते थे?  क्या सर्दियों में नीला आकाश देखने को मिलेगा? क्या हम कभी ताजगी से महकती हवा में गहरी सांस ले पाएंगे?

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दिल्ली अपनी सांस रोक लो

दिल्ली को पहली बार 2016 में अहसास हुआ कि हवा जहरीली हो सकती है। उस साल दिल्ली पर पहली बार धुंध की एक बड़ी-सी चादर छा गई थी।

हाहाकार मचा और अस्तव्यस्तता के हालात बने।  उस समय हम न तो वायु प्रदुषण से जुड़े शब्दों (जैसे एक्यूआई) को समझते थे, ना इसके दुष्प्रभाव को और ना ही इसके अंतिम नतीजों को।

इसके एक साल पहले, 2015 में न्यूयार्क टाईम्स के दक्षिण एशिया संवाददाता गार्डिनर हैरिस ने एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था “दिल्ली अपनी सांस रोक लो।

इस लेख में जो कहा गया था, वह अंततः सही सिद्ध हुआ। लेकिन उस समय उसकी बहुत आलोचना हुई थी और उसे एक डरावनी कल्पना से अधिक कुछ नहीं माना गया था। मगर आज उस लेख की भविष्यवाणी, दिल्ली की भयावह हकीकत है।

दिल्लीवासी आज भी इन कदमों से खुश नहीं

सन् 2016 में एक्यूआई 372 था, जो वायु प्रदूषण का ‘खतरनाक’ स्तर होता है। तब मैंने एक एयर प्यूरीफायर खरीदा था। लेकिन मैं यह नहीं जानती थी कि आठ साल बाद मुझे अकेले अपने घर में साफ हवा में सांस लेने के लिए दो एयर प्यूरीफायरों की जरूरत होगी।

उस समय इवन-आड (जिन गाड़ियों के नंबर विषम हैं, उन्हें एक दिन और जिनके सम हैं, उन्हें अगले दिन सड़क पर चलने की इजाजत देना), डीजल वाहनों पर प्रतिबंध, ट्रकों के शहर में प्रवेश पर पाबंदी, स्कूलों की छुट्टी आदि जैसे छोटी अवधि के लिये कारगर उपाय लागू किए गए।

मगर इनसे दिल्ली निवासी खुश नहीं थे। आज दिल्ली में प्रदूषण का स्तर उस समय से बहुत ज्यादा है लेकिन उससे निपटने के लिए वही पहले वाले उपाय लागू हैं।

बस फर्क यह है कि इन उपायों को एक आधिकारिक नाम दे दिया गया है – जीआरएपी 4। दिल्लीवासी तब की तरह आज भी इन कदमों से खुश नहीं हैं। लेकिन उनके पास कोई चारा नहीं है। इन हालातों के लिए वे स्वयं जिम्मेदार हैं।

हम साल-दर-साल इस भयावह प्रदूषण का सामना करते रहे लेकिन कहीं कोई गुस्सा नजर नहीं आया। हर सुबह कोई-न-कोई न्यूज़ एजेंसी धुंध में लिपटी दिल्ली की तस्वीरें और वीडियो ट्वीट करती है और उसके बाद ले देकर राजनीति शुरू हो जाती है।

दिल्ली में यह संकट इसलिए और गंभीर रूप अख्तियार करता जा रहा है क्योंकि यहाँ मुफ्त बिजली और मुफ्त पानी तो चुनावी मुद्दे हैं, मगर प्रदूषण नहीं है।

और क्यों हो? दुर्भाग्यवश आम दिल्लीवासी मुफ्त बिजली और मुफ्त पानी ही चाहता है। लोग समय से पहले बीमारियों से घिर रहे हैं मगर कोई सरकारों से यह नहीं कहता कि इस मुद्दे पर वे गंभीर रूख अपनाएं।

कोई सरकारों से मांग नहीं करता कि उसे सांस लेने के लिए साफ़ हवा उपलब्ध करवाई जाए।

हवा किस हद तक प्रदूषित हो चुकी है

पिछले आठ सालों में हवा किस हद तक प्रदूषित हो चुकी है यह सबको महसूस है। सड़क के पार की इमारतें तक नजर नहीं आतीं, उड़ानों में देरी हो रही है या उन्हें रद्द करना पड़ रहा है, छोटे-छोटे बच्चों को नेबुलाइजर का इस्तेमाल करना पड़ रहा है और बड़ों को खांसी की दवाईयों का।

यह सब आम हो चला है। लेकिन इसके बावजूद जनाक्रोश कहीं नहीं है – ऐसा जनाक्रोश जो सरकारों को हालात में बदलाव लाने के लिए मजबूर करे। अब बच्चा-बच्चा पीएम 2.5 का मतलब जानता है। और लोगों की सेहत पर इसका गंभीर दुष्प्रभाव पड़ रहा है।

शोधों से अब साबित हो गया है कि प्रदूषित हवा में सांस लेने से टाईप 2 डाईबीटीज का खतरा बढ़ जाता है। एक अन्य अध्ययन में यह पाया गया है कि दिल्ली के लोगों के पीएम 2.5 के औसत वार्षिक एक्सपोज़र (92 माइक्रो ग्राम प्रति क्यूबिक मीटर) के कारण रक्तचाप में बढ़ोत्तरी हो रही है और हाइपरटेंशन का रोग होने की संभावना बढ़ गई है।

प्रदूषण का शरीर में कोलोस्ट्रोल और विटामिन डी के स्तर, लोगों के स्वास्थ्य संबंधी विभिन्न पहलुओें जैसे जन्म के समय वजन, गर्भवती स्त्री के स्वास्थ्य, किशोरों में इंसुलिन प्रतिरोध और अल्झाइमर व पार्किन्संस होने की संभावना आदि पर क्या प्रभाव होता है, इस पर भी अध्ययन किए जा रहे हैं।

एक सोच यह भी है कि प्रदूषित वायु से मनुष्यों का मूड बिगड़ता है, जिससे आत्महत्या का विचार मन में आने की संभावना में बढ़ोत्तरी होती है।

लेकिन इस मामले में दिल्लीवालों के ढीले-ढाले रवैये को देखकर ऐसा लगता है कि वे साफ़ हवा को ऐसा मुद्दा ही नहीं मानते जिसके लिए उन्हें संघर्ष करना चाहिए, लड़ना चाहिए।

चीन में प्रदूषण से लड़ाई जारी

औद्योगीकरण की राह चुनने वाले सभी राष्ट्र एक-न-एक दिन अपने आप को एक दोराहे पर पाते हैं। उन्हें समझ आता है कि ‘प्रगति’ और पर्यावरण में से उन्हें एक को चुनना होगा।

‘प्रगति’ हर शहर और उसके लोगों से अपनी कीमत वसूलने लगती है। औद्योगिक क्रांति के बाद यूरोप में यही हुआ। अमेरिका को अपनी हवा की गुणवत्ता को बेहतर बनाने में 25 से 35 साल लगे।

लास एजिंल्स शहर अपनी हवा को साफ़ करने में 1950 के दशक से जुटा हुआ है मगर अब तक संघीय सरकार द्वारा निर्धारित मानकों तक नहीं पहुंच सका है। चीन में प्रदूषण से लड़ाई जारी है।

चीन जल्दी में है क्योंकि उसने युद्ध काफी देर से शुरू किया है। मगर उसने बहुत जल्दी नतीजे हासिल कर लिए हैं।

लेकिन दिल्ली में तो अभी जंग तक एलान तक नहीं किया गया है – न जनता द्वारा और ना ही उसके निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा।

निगरानी ढीली-ढाली है और संबंधित कायदे-कानूनों पर सख्ती से अमल नहीं किया जा रहा है। प्रदूषण के स्त्रोतों से निपटने के लिए कड़े नियम बनाने और एक परिष्कृत और अनवरत चलने वाली रणनीति अपनाने में किसी की रूचि नहीं है।

दिल्ली बड़ी होती गई, आबादी बढ़ी

‘डाउन टू अर्थ’ में छपे एक लेख के अनुसार पिछले दो दशकों से दिल्ली धुंध से लड़ाई में लगातार मात खाता आ रहा है। सन 1990 के दशक में जब वायु प्रदूषण पहली बार एक चिंता का मुद्दा बना, तब सीएनजी का इस्तेमाल शुरू किया गया, कारखाने दिल्ली से हटाकर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में भेजे गए और मेट्रो पर काम शुरू हुआ।

लेकिन जैसे-जैसे दिल्ली बड़ी होती गई, आबादी बढ़ती गई, ये उपाय बौने नज़र आने लगे। फोकस ‘प्रगति’ पर था। और बड़े, और ऊंचे शहर, और हाईटेक शहर पर था।

मगर इससे होने वाले प्रदूषण से निपटने के लिए कुछ नहीं किया गया। एक्सप्रेसवे बनाये गए – जिन पर कारें हेलीकाप्टर की स्पीड से दौड़ती हैं  – मगर पैदल चलने वालों और साइकिल चलाने वालों के लिए सड़कों पर कोई जगह नहीं थी।

सिंगापुर में इलेक्ट्रिक व्हीकल्स खरीदने वालों को सरकार अनुदान देती है। मगर हमारे यहाँ सरकारें मुफ्त रेवड़ियों बाँट रही हैं। सरकारी तंत्र, प्रदूषण से निपटने के काम को कोई ख़ास तवज्जो नहीं देता।

बीच-बीच में सुप्रीम कोर्ट के जगाने पर वह कुछ देर के लिए जागता है – और फिर राजनीति उसे लोरी सुनाकर निद्रामग्न कर देती है।

‘डाउन टू अर्थ’ के अनुसार, “2010 से लेकर 2015-16 के अवधि में केंद्र और राज्य दोनों सरकारों ने प्रदूषण से निपटने के लिए बहुत कम ठोस कदम उठाए।

आज दिल्ली में रहना मुहाल हो गया

मगर प्रदूषण के स्त्रोत बढ़ते गए और रिकॉर्ड स्तर तक पहुँच गए – दिल्ली के अन्दर (वाहन और शहर का ठोस कचरा) भी और एनसीआर (निर्माण और उद्योग) में भी।

आज दिल्ली में रहना मुहाल हो गया है। सांस लेना मुश्किल हो गया है। नीला आसमान केवल कविता-कहानियों में बचा है। मगर अधिकांश लोगों को कोई परवाह नहीं है। सब कुछ सामान्य है। यमुना का पानी ज़हर बन गया है। मगर सियासी दांवपेंच जारी हैं।

आईक्यू एयर के अनुसार, दिल्ली इस वक्त दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर है। दिल्ली का एक्यूआई 1,156 है। एक्यूआई 335 के साथ कोलकाता तीसरे नंबर पर है,  और मुंबई नौवें स्थान पर।

वहां का एक्यूआई 165 है। इस प्रकार, दुनिया भर के सबसे प्रदूषित 10 महानगरों में से तीन भारत में है। मगर विश्वगुरु को कोई परवाह नहीं है। वह तो ‘प्रगति’ का दीवाना है –  और बड़ा, और ऊंचा। कचरा?

उसे तो हम कल साफ़ कर लेंगे। मगर वह नहीं समझ रहा है कि कल तो आज ही है-  और आज न होगा तो कल भी न होगा। काश लोग समझ पाते कि अगर सांस लेने के लिए साफ़ हवा ही नहीं है, तो विश्वगुरु होने का क्या मतलब है। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)

By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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